tag:blogger.com,1999:blog-42406476278704827962024-03-13T05:43:39.409+05:30आस्था मुक्ति
हमारा उद्देश्य समाज में व्याप्त अन्धास्थाओं, अंधविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, अवैज्ञानिकता और धार्मिक संगठनों द्वारा फैलाई जा रही भ्रांतियों को दूर कर एक तर्कशील व वैज्ञानिक चेतना युक्त समाज की स्थापना करना है।
If you have query like manav ki utpatti, does god exist, science and religion, atheism, evolution, theory of evolution, reality of religion, rational, critical thinking etc. you are at right place.Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.comBlogger17125tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-33711505689918436762020-09-28T17:07:00.002+05:302020-09-28T17:10:09.473+05:30अध्यात्म : धर्म के भ्रमजाल का आखिरी हथकंडा <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHzx3Ag0ga_n-IoAuUm4S8ZepGlwJwGpkCY_Zi86sPvL6MdClF-uYThRDZZFTx4k47Mb9reweBWtXdik54ZFJ_7pdU7YF50fdU9rg3dZhhuHLWcm1I7y900_jrcCHTvOgGLVEOhLgTUCLY/s1024/osho-sannyas-red-robe-mala-1024x509.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="509" data-original-width="1024" height="318" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHzx3Ag0ga_n-IoAuUm4S8ZepGlwJwGpkCY_Zi86sPvL6MdClF-uYThRDZZFTx4k47Mb9reweBWtXdik54ZFJ_7pdU7YF50fdU9rg3dZhhuHLWcm1I7y900_jrcCHTvOgGLVEOhLgTUCLY/w640-h318/osho-sannyas-red-robe-mala-1024x509.jpg" width="640" /></a></div><br /> <p></p><p><span style="background-color: white; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;">आजकल धार्मिक लोगों में एक नया ट्रेंड चला है खुद को आध्यात्मिक कहने का। वे स्वयं को धार्मिक के स्थान पर आध्यात्मिक कहलाना पसंद करते हैं। धार्मिक कहलाना थोडा लो क्लास सा फील देता है जबकि आध्यात्मिक के साथ हाई क्लास और बुद्धिजीवी वाला फील आता है। सामान्यतः एक आम धार्मिक व्यक्ति अपनी परम्पराओं और मान्यताओं के बारे में कोई तर्क नहीं दे पाता। देता भी है तो वे बड़े बचकाने और खोखले तर्क होते हैं जो जरा से तर्क वितर्क से ढह जाते हैं। जबकि खुद को आध्यात्मिक कहने वाले व्यक्तियों के पास अपनी मान्यताओं के पक्ष में बड़े भारी-भरकम और जटिल तर्क होते हैं जिसे उसने बड़े जतन से कुछ आध्यात्मिक गुरुओं से प्रवचनों को पढ़कर अथवा सुनकर, अपने धर्म/मत के पक्ष में लिखित तर्कशास्त्रों को पढ़कर या फिर वर्तमान में अत्यधिक प्रचलित प्रोपेगैंडा साहित्य को पढ़कर जमा किया होता है। आध्यात्मिक लोग धार्मिक लोगों को मान्यतावादी कहते हैं और स्वयं को मान्यताओं से मुक्त एक स्वतंत्र खोजी की तरह प्रस्तुत करते हैं। </span></p><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ऐसा माना जाता है कि धार्मिक व्यक्ति यानी वह जिसने धर्मगत आस्थाओं और परम्पराओं को बिना विचारे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है। जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति उन्हें बिना जाने समझे नहीं स्वीकारता, परन्तु नकारता भी नहीं। बल्कि वह कुछ ऐसा कहता है कि वह इन आस्थाओं की सत्यता को खोजने का प्रयत्न कर रहा है। जब तक वह इनकी सत्यता अथवा असत्यता को स्वयं अनुभव नहीं कर लेता इनको स्वीकारा अथवा नकारा नहीं जा सकता। बात सुनने में काफी तार्किक प्रतीत होती है। परन्तु मेरा ऐसा अनुभव है कि ऐसा कहने वाले लगभग सभी तथाकथित अध्यात्मिक व्यक्ति अपने जीवन में वही सब धार्मिक क्रियाकलाप करते पाए जाते हैं जो कोई धार्मिक व्यक्ति करता है। इसके पीछे भी तर्क वही कि जब तक सत्य का पता न चले तो इनको नकारा भी नहीं जा सकता, अतः इनको करते रहने में कोई विशेष हानि नहीं। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यदि आप धर्मग्रंथों में लिखी अतार्किक और विरोधाभासी बातों पर चर्चा छेड़ें तो वे कहते हैं कि ये ग्रन्थ इनके रचयिता ने अनुभव के किसी विशिष्ट स्तर पर जाकर लिखे हैं, इनकी सत्यता को आंकने के लिए हमें उसी स्तर पर पहुंचना होगा। अनुभव के उस स्तर पर पहुंचे बिना इनके बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ है। कुछ लोग एक कदम बढ़कर ऐसा भी कहते पाए जाते हैं कि अनुभव के उस स्तर पर आपको इनमें किसी तरह की अतार्किकता अथवा विरोधाभास नहीं मिलेगा। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ईश्वर के अस्तित्व के सन्दर्भ में भी वे कुछ ऐसा ही तर्क देते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर में आस्था रखने वाले और ईश्वर में अनास्था रखने वाले दोनों ही गलत हैं। अर्थात आस्तिक और नास्तिक दोनों ही वास्तव में मान्यतावादी हैं। आस्तिक ने मान लिया है कि ईश्वर है और नास्तिक ने मान लिया है कि ईश्वर नहीं है। दोनों ही चूँकि बिना खोजे ही निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं अतः दोनों ही कभी सत्य को नहीं जान सकेंगे। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">मुझे नहीं पता इस तर्क का मूल प्रतिपादनकर्ता कौन है लेकिन मैंने इसे सर्वप्रथम ओशो के प्रवचनों में सुना था। आज भी ओशो के चेले जगह जगह इसी तर्क को दोहराते देखे जा सकते हैं। अपनी पोस्टों पर अक्सर ही मेरा सामना ऐसे लोगों से होता रहता है। यह तर्क सुनने में बड़ा तार्किक प्रतीत होता है। धर्म से तलाक की अर्जी देने जा रहे व्यक्ति को भी घरवापसी के लिए सोचने पर विवश कर देने की क्षमता रखता है। परन्तु वास्तव में आध्यात्मिकों के सभी तर्क भले ही प्रथमद्रष्टया कितने ही तार्किक प्रतीत हों लेकिन सभी सिरे से आधारहीन हैं। आइये देखें कैसे?</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">सर्वप्रथम ईश्वर के अस्तित्व के संदर्भ में दिए जाने वाले तर्क को ही ले लेते हैं। इस तर्क में आस्तिक और नास्तिक दोनों को ही मान्यतावादी कहकर एक ही पड़ले में तोलने का प्रयास किया जा रहा है। यह तर्क नास्तिक, अनीश्वरवादी दर्शन पर आधारित धर्म के अनुयायियों के लिए तो उचित जान पड़ता है लेकिन वे लोग जो ईश्वर की अवधारणा की प्रमाणहीनता को समझकर नास्तिक हुए हैं उन पर यह तर्क सही नहीं बैठता। क्योंकि उनके द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का कोई आस्थागत कारण नहीं है बल्कि ईश्वर की अवधारणा के पक्ष में प्रमाणों का नितांत आभाव है। भला प्रमाणों के आभाव में किसी अवधारणा को कैसे स्वीकारा जा सकता है? लेकिन अब यहाँ कुछ लोग एक नया तुर्रा देते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण दिए नहीं जा सकते, प्रमाण आपको स्वयं खोजने होंगे। आंय???? क्या कहा जरा दोबारा कहिये?</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यह तर्क कितना मूर्खतापूर्ण है जरा देखिये तो। दावा आप कर रहे हैं और प्रमाण खोजने को हमें कह रहे हैं। क्या ऐसा ही तर्क सभी अस्तित्वहीन काल्पनिक कथाओं के चरित्रों के बारे में नहीं दिया जा सकता? उदहारण के तौर पर यदि मैं कहूँ कि परियों के अस्तित्व को स्वीकारने वाले और नकारने वाले दोनों ही गलत हैं क्योंकि दोनों ही बिना खोजे निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं। परियों के अस्तित्व का प्रमाण दिया नहीं जा सकता, यह आपको स्वयं ही खोजना होगा। यही तर्क उड़ने वाले घोड़ों, फरिश्तों और हर उस चीज के सन्दर्भ में दिया जा सकता है जिसका अस्तित्व सिर्फ मनुष्य की कल्पनाओं में है। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यदि कोई किसी ऐसी चीज की खोज में लग जाए जिसका कि वास्तविकता में कोई अस्तित्व ही न हो तो क्या उसकी खोज कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकती है? ऐसी खोज के किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए ब्रह्माण्ड की आयु भी कम पड़ जायेगी, क्योंकि जिसका कोई अस्तित्व ही न हो उसके होने न होने के बारे में आपको कभी कोई सुराग नहीं मिलेगा, भले ही आप उसकी खोज में अपना जीवन ही क्यों न न्योछावर कर दें। अध्यात्म जिसे एक स्वतंत्र खोज पद्धति की तरह प्रस्तुत किया जाता है कुछ ऐसी ही खोज है। लेकिन आध्यात्मिक व्यक्ति इसे चुनौती की तरह लेते हैं। यद्धपि यह अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। वे कहते हैं कि यह खोज उन्हीं के लिए है जो जिन्दगी की बाजी लगाने को तैयार हैं। इस तरह वे अपने को एक जांबाज की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं जिसने ईश्वर की खोज में जीवन की बाजी लगा दी है। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">वास्तव में देखा जाए तो ईश्वर का अस्तित्व है अथवा नहीं यह प्रश्न ही गलत है। सही प्रश्न है “ब्रह्माण्ड कैसे अस्तिव में आया?” ईश्वर तो इस सवाल का जवाब पाने की चेष्टा में गढ़ी गई एक अवधारणा है जो मात्र मानवीय कल्पनाओं की उपज है। अब यदि कोई किसी कल्पना को खोज का विषय बनाएगा तो भला वह क्या कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकता है? </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अब ठीक इसी तरह आप धर्मग्रंथों के बारे में दिए गए तर्कों को भी ले सकते हैं। वहां भी आपको धर्मग्रंथों के बारे में कोई फैसला सुनाने से रोकने की कोशिश की जा रही है। तर्क दिया जा रहा है कि अनुभव की किसी विशिष्ट अवस्था पर पहुंचकर ही इनकी सही व्याख्या की जा सकती है। यानी यहाँ भी आपसे उम्मीद की जा रही है कि आप अनुभव की उस अवस्था जिसके होने का भी कोई प्रमाण नहीं है के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दें तभी आपको इनका सार पल्ले पड़ेगा। जब तक आपको इनमें जरा सी भी अतार्किकता दिख रही है तो इसका मतलब आप अभी अनुभव के उस स्तर पर नहीं पहुंचे। मतलब धर्मग्रन्थ गलत नहीं हैं आप ही गलत हैं जो उन्हें समझ नहीं पा रहे। धर्मग्रंथों को सही ढंग से समझने के लिए उस तथाकथित अनुभव के घटित होने का इन्तजार करने के अतरिक्त आपके पास कोई चारा नहीं है। जाहिर है यहाँ भी ईश्वर की खोज की तरह ही एक काल्पनिक अवस्था जिसके होने का कोई भी प्रमाण नहीं है को खोज का विषय बनाया गया है और कहना गलत नहीं होगा कि यह खोज भी कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँचने वाली नहीं है।</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अब जरा एक मिनट के लिए उन लोगों की मानसिक स्थिति के बारे में विचार कीजिये जो ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों पर विश्वास करके बैठे हैं और अध्यात्म को विज्ञान के ही समकक्ष एक तर्कपूर्ण खोज पद्धति समझकर स्वयं के एक स्वतंत्र खोजी होने का भ्रम पालकर बैठे हैं। क्या आपको वास्तव में लगता है कि ऐसे लोग स्वतंत्र खोजी हैं? जो धार्मिक मान्यताओं से निरपेक्ष होकर खोज कर रहे हैं?</div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यदि आप सूक्ष्मता से निरिक्षण करेंगे तो पायेंगे कि ये सभी वास्तव में धर्मभीरु लोग हैं। क्योंकि ऐसी खुली चालबाजी को वही नजरअंदाज कर सकता है जिसकी अपने धर्म में गहरी आस्था हो। आस्था आपको मूर्खतापूर्ण तर्कों पर भी विश्वास करने पर राजी कर सकती है बशर्ते वे आपकी धार्मिक मान्यताओं की किसी प्रकार रक्षा करते हों। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">यही नहीं ऐसे लोग तमाम पूर्वाग्रह अपने साथ लिए चलते हैं। जैसे कोई ब्रह्म है जिसका हमें साक्षात्कार करना है। ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है। सत्य पर माया का पर्दा है। ब्रह्म के साक्षात्कार से यह पर्दा हट जाता है और व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरुप का बोध होता है इत्यादि इत्यादि। कोई भी स्वतंत्र खोज इतने पूर्वाग्रहों को साथ लेकर होती है क्या? इतने पूर्वाग्रहों को लेकर यदि कोई लम्बे समय तक ध्यान करता है तो बहुत सम्भावना है कि एक समय उसका मस्तिष्क इन सभी को साकार कर दे। गहरा ध्यान हमको ट्रांस की अवस्था में ले जाता है। ये सम्मोहन की अवस्था जैसी ही होती है। इस अवस्था में मस्तिष्क की किसी भी विचार को आसानी से स्वीकार लेता है। इस अवस्था में स्वीकारे गए विचार आगे चलकर मतिभ्रम(hallucination) को जन्म देते हैं। जिन्हें साधक द्वारा अध्यात्मिक अनुभव समझ लिया जाता है। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अध्यात्म असल में धर्म के ही एक रीसायकल मेकेनिज्म जैसा ही है। जो लोग थोड़ा अध्ययनशील होते हैं परिपक्क्वता के स्तर पर आकर धर्म के दावों की प्रमाणहीनता का बोध उनकी आस्था को झकझोरने लगता है। तभी अध्यात्म का जाल उन्हें घेर लेता है। कुछ वैसे ही जैसे अपना मोबाइल नंबर पोर्ट करवाने पर सर्विस प्रोवाइडर कम्पनी के मार्केटिंग डिपार्टमेंट से ऑफर आने लगते हैं। अरे कहाँ जाने की सोच रहे हो? किस पर संदेह कर रहे हो? अपने पैत्रक धर्म पर? वही धर्म जिसके साथ इतने वर्ष गुजारे। इतने निष्ठुर न बनो। अपने पैत्रक धर्म को तुमने इतना कमजोर समझा है? प्रमाण की बात है न? हाँ तो मिल जाएगा प्रमाण। कौन बड़ी बात है? तुमने अभी खोजा ही कहाँ जो मिल जाए? खोजो तो सही। खोजने पर भी न मिले तब बात करना। तुम तो बिना खोजे ही चलने का मूड बना लिए। आओ खोजें। अब अंधे को क्या चाहिए दो ऑंखें। धार्मिक लोग वैसे भी अपनी आस्थाओं को डूबने से बचाने के लिए तिनके के सहारे खोजते रहते हैं। कोई भी व्यक्ति जिसकी अपने धर्म में गहरी आस्था हो को यह बात एकदम जंच जाती है। और इस तरह संदेह के शूल का चतुराईपूर्वक शमन करके व्यक्ति को पुनः उसी मुर्खता में धकेल दिया जाता है। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">जितने भी तथाकथित अध्यात्मिक गुरु हैं उनके आस-पास आपको ज्यादातर पढ़े लिखे लोग ही मिलेंगे, कम पढ़े लिखे लोग ज्यादातर आपको कथावाचकों के पंडालों में ताली पीटते नजर आयेंगे। वर्तमान में सद्गुरु जग्गी वासुदेव इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। ये सभी वही लोग हैं जो अपनी डांवाडोल धार्मिक आस्थाओं को एक मजबूत आधार प्रदान करने के प्रयास में लुभावने तर्कों के जाल में फंसकर ऐसे गुरुओं तक पहुँचते हैं। </div></div><div class="o9v6fnle cxmmr5t8 oygrvhab hcukyx3x c1et5uql ii04i59q" style="background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">देखा जाये तो आध्यात्मिकता कुछ और नहीं बस थोड़े से बेहतर कुतर्कों से सुसज्जित धार्मिकता ही है। आध्यात्मिक लोग भले ही स्वयं को स्वतंत्र खोजी मानें लेकिन वास्तव में वे स्वयं को धोखा देने में आम धार्मिक लोगों से थोड़ा ज्यादा कुशल मात्र हो गए हैं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /></div></div>Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-37512580968101493422019-12-01T11:25:00.000+05:302019-12-01T11:26:48.437+05:30नास्तिकता और नैतिकता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjOVDSNS_Ehd1HpRwPfvrjOlUKMNXvtlIZNXRjp7xDWRdWjZuIB00sFHgerhxQ_wYzZB5WvQ4GFbRqqk3ZcVFWBa2YuLHcqwf57ffedDGV8Z2V75NwCMqr734_VIJ3CzPw5XXTNSitggyVK/s1600/The-5-Views-of-Morality.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="838" data-original-width="1600" height="164" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjOVDSNS_Ehd1HpRwPfvrjOlUKMNXvtlIZNXRjp7xDWRdWjZuIB00sFHgerhxQ_wYzZB5WvQ4GFbRqqk3ZcVFWBa2YuLHcqwf57ffedDGV8Z2V75NwCMqr734_VIJ3CzPw5XXTNSitggyVK/s320/The-5-Views-of-Morality.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "noto sans" , sans-serif;">धार्मिक अंधभक्त नैतिकता से सम्बंधित सवालों द्वारा अक्सर
नास्तिकों को घेरते देखे जा सकते हैं। ये सवाल मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं।
पहले प्रकार के सवाल में वे नैतिकता का स्रोत पूछते हैं और न बता पाने की स्थिति
में धर्म को नैतिकता का स्रोत बताते हुए ठेल देते हैं। कहने का मतलब जो भी नैतिकता
है वो सब धर्म की देन है और धर्म के कारण टिकी हुयी है। बिना धर्म नैतिकता की
व्याख्या संभव ही नहीं है। धर्म गया तो नैतिकता भी चली जायेगी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">दुसरे प्रकार के सवाल वो होते हैं जिनमें नास्तिकों से
नैतिकता में विश्वास रखने की वजह पूछी जाती है। कि यदि वे सब कुछ प्रमाण की
बुनियाद पर ही स्वीकार करते हैं तो आखिर वे नैतिकता को किन प्रमाणों की बुनियाद पर
स्वीकार करते हैं</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">? <span lang="HI">यानी कोई नैतिक नियम जैसे चोरी करना</span>,
<span lang="HI">व्याभिचार करना गलत है यह किन प्रमाणों के आधार पर ज्ञात हुआ</span>?
<span lang="HI">तो आइये आज इसी पर थोड़ी चर्चा करते हैं और इन सवालों के जवाब तलाशने
का प्रयास करते हैं। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">जो पहला सवाल है यानी नैतिकता का स्रोत क्या है</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">? <span lang="HI">इसका एक लाइन में जवाब दिया जाए तो वह होगा</span>, “<span lang="HI">नैतिकता
का स्रोत है सोशल डिस्कोर्स यानी सामाजिक परिचर्चा। नैतिकता के कोई लिखित नियम
नहीं हैं। ये नियम कालांतर में हमने ही यानी हमारे समाज द्वारा ही निर्मित हुए हैं
हमारी यानी समाज की जरूरतों के अनुसार। मनुष्य चूँकि एक सामाजिक प्राणी है</span>,
<span lang="HI">और जहाँ भी समाज होगा समूह होगा वहां कुछ नियम कायदे निर्धारित करने
होंगे ताकि समाज एक ईकाई की तरह सुचारू रूप से चल सके और अराजकता न फ़ैल जाए। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">ये नियम कायदे सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं पाए जाते</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">अन्य सामाजिक जीवों में भी इन्हें देखा जा सकता है। जैसे जंगली कुत्तों के
समाजों में हर सदस्य का स्थान और उसका काम निर्धारित होता है। मनुष्य के पूर्वजों
का अस्तिव भी इसी कारण से बच सका था क्योंकि उन्होंने समूह की ताकत को पहचाना था।
मानव ने चूँकि विचारों के संप्रेषण के लिए भाषा जैसी एक जटिल प्रणाली विकसित कर ली
थी जिसके कारण हम अन्य जीवों से इतर एक जटिल सामाजिक व्यवस्था बना सके। विचारों के
संप्रेषण के लिए भाषा एक बढ़िया माध्यम सिद्ध हुयी जिसने हमें बड़े समूह बनाने में
मदद की। बड़े समूहों की आवश्यकता के अनुसार सामाजिक नियम भी जटिल और परिष्कृत होते
चले गए। तो अब सवाल उठता है कि आखिर ये नियम बनते कैसे हैं</span>? <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">हमारे समाज में क्या गलत है और क्या सही</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">क्या करने योग्य है और क्या नहीं<span style="mso-spacerun: yes;">
</span>इस पर हमेशा एक चर्चा चलती रहती है। समाज में अक्सर नैतिक उस व्यवहार को
माना जाता है जिसे अधिकांश समाज सही और करने योग्य के तौर पर स्वीकार कर लेता है।
अब चूँकि ये डिस्कोर्स हमेशा चलता रहता है तो नैतिकता के नियम भी बदलते समय के साथ
बदलते हैं और परिष्कृत होते रहते हैं। समय के साथ बहुत सी चीजें जो कभी नैतिक रूप
से स्वीकार्य थीं वे टैबू बन जाती हैं और जो कभी टैबू थीं वो स्वीकार्य हो जाती
हैं। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">गुलामी प्रथा</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">बाल विवाह</span>, <span lang="HI">बहु विवाह
एक समय में समाज में नैतिक रूप से स्वीकार्य थे। हमारे तमाम प्राचीन ग्रंथों में न
केवल इनका जिक्र है बल्कि इनसे सम्बंधित नियम कायदे भी मौजूद हैं। लेकिन आज के
सभ्य समाजों में ये सभी एक टैबू हैं।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>इसी
तरह समलैंगिकता और लिव इन जो लम्बे समय से टैबू रहे हैं को अब धीरे धीरे सभ्य
समाजों में स्वीकार्यता मिल रही है। ये सभी उस सोशल डिस्कोर्स का फल है जिसे आप
लम्बे समय से समाज में चलते देख रहे हैं। ये जो रात दिन इनको लेकर अखबारों</span>,
<span lang="HI">पत्रिकाओं</span>, <span lang="HI">टीवी और आपके घर आस पड़ोस में जो
चर्चा चलती है यही सोशल डिस्कोर्स है जिससे किसी चीज के संदर्भ में एक आम राय बनती
है और जो कालांतर में किसी नैतिक नियम में बदल जाती है। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">अब चूँकि ये एक एवोलुशनरी प्रोसेस है तो धर्म ग्रन्थ कभी भी
इसका स्रोत नहीं हो सकते। क्योंकि उनके नैतिक नियम तो जड़ हैं जिनमें परिवर्तन की
कोई गुंजाईश नहीं होती। धर्म ग्रंथो में मौजूद नियम उस दौर के हैं जिस समय इनकी
रचना हुयी थी और जाहिर है उनमें से बहुत सारे नियम अब आउटडेटेड हो चुके हैं। अगर
धार्मिक संहिताओं को नैतिकता के स्रोत की तरह स्वीकार करें तो हमें उन तमाम
वर्तमान में बर्बर समझे जाने वाले नियमों को भी स्वीकारना पड़ेगा जिन्हें कोई भी
सभ्य समाज स्वीकारने को राजी नहीं हो सकता। यहाँ तक कि वे लोग जो धर्म को नैतिकता
का स्रोत बताते हैं वे स्वयं भी इनको स्वीकारने में अचकचाते हैं। उन्हें भी जब इन
बर्बर नियमों का हवाला दिया जाता है तो वे या तो कुतर्कों से इनका बचाव करते नजर
आते हैं या इन्हें प्रक्षिप्त बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं।<span style="mso-tab-count: 3;"> </span><span style="mso-tab-count: 14;"> </span></span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">धर्म प्रदत नैतिकता की पोल धार्मिक लोगों के व्यवहार से खुल
जाती है। सभी प्रमुख धर्मों का इतिहास खून से रंजित है और जिसका ख़ासा कारण भी है।
धार्मिक सिद्धांत चूँकि मानव कल्पना की उपज हैं जिनका कोई भी प्रमाणिक आधार आज तक
सिद्ध नहीं किया जा सका है। यही कारण है कि सभी धर्मों के सिद्धांत एक दूसरे से
टकराते हैं अब चूँकि इनका आधार सत्य नहीं बल्कि कल्पना है तो इनका समाधान किसी भी
प्रकार संभव नहीं है। धर्मों के इन्हीं सैद्धांतिक टकरावों ने इतिहास में भीषण
संघर्षों को जन्म दिया है</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">और वर्तमान में भी हर दिन सैकड़ों लोग इन
संघर्षों की भेंट चढ़ रहे हैं। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">अपने देश का ही अगर उदहारण लें तो विभाजन जैसी त्रासदी का
एकमात्र कारण धार्मिक मतभेद ही था। इसके कारण जो स्थितियां बिगड़ीं वे आज तक
सामान्य नहीं हो सकीं। भारत और पकिस्तान के बीच तीन युद्ध हो चुके हैं</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">सीमा पर जारी संघर्ष और सीमापार आतंकवाद के कारण लाखों जानें जा चुकी हैं।
धार्मिक भावनाओं के भड़कने के कारण तमाम दंगे हो चुके हैं। धार्मिक मतभेदों के कारण
हर दिन देश के किसी न किसी हिस्से में बदसलूकी और मारपीट की घटनाएँ आम हैं।
धार्मिक लोग अपने ऐतिहासिक महापुरुषों</span>, <span lang="HI">आइडल्स और सिद्धांतों
की आलोचना के प्रति कितने असहिष्णु हैं ये भी किसी से छिपा हुआ नहीं है</span>, <span lang="HI">जिसके लिए वो किसी को जान से मार देने तक में गुरेज नहीं करते।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span><span style="mso-tab-count: 1;"> </span></span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">धर्म को नैतिकता का स्रोत बताने वाले ये भी दावा करते हैं
कि धर्म के कारण ही व्यवस्था कायम है यदि लोग धर्म से विमुख हो गए तो अराजकता फ़ैल
जायेगी। लेकिन आंकड़े कुछ और ही बयान करते हैं। आंकड़ों की मानें तो दुनिया के वे
देश जहाँ धार्मिकता का प्रतिशत अधिक है वही देश अपराध</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">मानवाधिकार हनन</span>, <span lang="HI">सामाजिक असुरक्षा में शिखर पर हैं।
जबकि वे देश जहाँ धार्मिकता का प्रतिशत कम है वहां का न केवल नागरिक जीवन का स्तर
ऊँचा है बल्कि मानवाधिकार और सामाजिक सुरक्षा भी बेहतर स्थिति में है। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">अभी कुछ वर्ष पूर्व नीदरलैंड में अपराधियों की कम संख्या के
कारण जेलों को बंद किये जाने की खबर मिडिया की सुर्ख़ियों में थी। नीदरलैंड की
डेमोग्राफी पर नजर डालें तो पता चलता है कि वहां की आधी से अधिक जनसंख्या उन लोगों
की है जो किसी भी धर्म में आस्था नहीं रखते। इसलिए ये कहना बिल्कुल ही गलत होगा कि
धर्म लोगों को अराजक होने से रोकता है। अगर आप अराजकता की घटनाओं का विश्लेषण करें
तो उसमें धर्म से मोटीवेटेड लोगों की भीड़ ही पायेंगे। </span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">क्या दंगों में दुकानों घरों को आग लगाती</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">लूटपाट करती</span>, <span lang="HI">घरों में घुसकर लोगों को मारती
बलात्कार करती भीड़ नास्तिकों की है</span>? <span lang="HI">जरा एक बार ठन्डे दिमाग
से सोचिये क्या वास्तव में व्यवस्था धर्म की वजह से कायम है</span>? <span lang="HI">नहीं! व्यवस्था कायम है संविधान और कानून की वजह से। इसमें खामियां हो
सकती हैं लेकिन फिर भी यही है जिसने अराजकता पर लगाम लगाईं हुयी है। यदि एक दिन के
लिए कानून हटा लिया जाए तो परिणाम की कल्पना आप कर सकते हैं।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">अब बात करते हैं दूसरे सवाल की</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">यानी नास्तिक नैतिकता को किन प्रमाणों की बुनियाद पर स्वीकार करते हैं</span>?
<o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">जैसा कि अभी हमने ऊपर समझा कि नैतिकता के नियम प्रकृति के
नियमों जैसे नहीं हैं जो कि यूनिवर्सल हैं और जिनको सिद्ध किया जा सकता है ।
नैतिकता के नियम हमारे द्वारा ही निर्मित किये गए हैं समाज की आवश्यकताओं के
अनुसार। और इसीलिए एबसोल्युट मोरेलिटी जैसी कोई चीज नहीं होती। जैसे चोरी करना गलत
है ये नियम हमने अपने समाज की जरूरतों के मुताबिक़ बनाया है। ये कोई सार्वभौम सत्य
नहीं है। अगर ये कोई सार्वभौमिक सत्य होता तो प्रकृति में हर ओर इसका पालन होता
नजर आता। लेकिन प्रकृति में तो हर ओर इसका उल्लंघन ही नजर आता है। </span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">यदि आपने खाद्य श्रंखला के बारे में पढ़ा होगा तो आप जानते
होंगे कि पौधों को छोड़कर बाकी सभी जीव अपनी उर्जा जरूरतों के लिए एक दुसरे पर
निर्भर हैं। इसके लिए वे दुसरे जीवों द्वारा जमा की गई उर्जा का बलपूर्वक अधिग्रहण
करते हैं। जो कि चोरी ही है। पौधे जो स्टार्च जमा करते हैं</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">, <span lang="HI">या पशु जो चर्बी या मांस जमा करते हैं</span>, <span lang="HI">या मधुमक्खी
जो शहद बनाती है</span>, <span lang="HI">गाय जो दूध देती है वो आपके लिए नहीं है।
आप बिना उनकी अनुमति के बलपूर्वक उसे लेते हैं ताकि आप खुद जिन्दा रह सकें। तो
नैतिकता का यह नियम यहाँ काम नहीं करता</span>, <span lang="HI">क्योंकि यह नियम
हमने अपने समाज की आवश्यकता के अनुसार निर्मित किया है। एक अन्य उदाहरण से समझते
हैं। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">यातायात के नियमों से तो आप सभी परिचित होंगे। जैसे सड़क पर
बाएं ओर चलना चाहिए। रेड लाइट पर रुकना चाहिए। स्पीड लिमिट का पालन करना चाहिए
इत्यादि। क्या ये सभी नियम एबसोल्युट हैं</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">? <span lang="HI">क्या ये कोई सार्वभौमिक सत्य हैं</span>? <span lang="HI">कतई नहीं। ये सभी नियम हमने ही बनाये हैं ताकि सड़क पर यातायात सुचारू रूप
से चल सके। ठीक इसी तरह नैतिक सामाजिक नियम भी इसीलिए बनाये जाते हैं ताकि समाज
सुचारू रूप से चल सके। और जिस तरह यातायात के नियमों की सत्यता का कोई प्रमाण नहीं
दिया जा सकता उसी तरह नैतिकता के नियमों का भी प्रमाण नहीं दिया जा सकता। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
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<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">क्या सड़क पर बायीं ओर ही चलना चाहिए इसको किसी तरह सिद्ध
किया जा सकता है</span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">? <span lang="HI">नहीं। हाँ इसके पक्ष में तर्क दिए जा सकते
हैं। कि हमें सड़क पर बायीं ओर इसलिए चलना चाहिए ताकि विपरीत दिशा से आते दो वाहन
टकरा न जाएँ। ठीक इसी तरह चोरी करना गलत है इसे किसी तरह सिद्ध नहीं किया जा सकता</span>,
<span lang="HI">पर इसके पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं। चोरी करना गलत है क्योंकि
इससे सामाजिक व्यवस्था भंग होती है जिससे समाज में अराजकता और असुरक्षा बढ़ती है।
नास्तिक भी इन्हीं तर्कों के आधार पर नैतिक नियमों को समाज के हित के लिए आवश्यक
मानकर उनका समर्थन और पालन करते हैं।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;">क्या आपको नहीं लगता नैतिकता का पालन और समर्थन दैवीय दंड
की अपेक्षा तर्कों से करना बेहतर है? आइंस्टीन का यह कथन यहाँ बेहद प्रासंगिक है, “अगर
दंड का भय ही आपको अच्छे काम के लिए प्रेरित करता है तो माफ़ कीजियेगा आप एक बुरे
इंसान हैं। <span style="mso-spacerun: yes;"> </span></span><span style="font-family: "noto sans" , sans-serif; mso-bidi-language: HI;"><o:p></o:p></span></div>
<br /></div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-22712742550919986602018-12-04T15:28:00.000+05:302019-05-30T18:27:59.714+05:30क्रमिक विकास के प्रमाण <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeKt0BOEdC7wyg2rB3MZJgdAQ3uWhEpSA3aN9W5ekAVsgmiX7rE7TVqTFxDm9jwYOhQhyphenhyphenpJV_HLaNcKxiXXIAuHNMrFC3OYLfH8DA6q8NLS43_y-U8TgKzyHYCkefoTVw0KohaKmT7J1b0/s1600/main-qimg-0f732291ed6c36767605f23c11871f94-c.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="400" data-original-width="387" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeKt0BOEdC7wyg2rB3MZJgdAQ3uWhEpSA3aN9W5ekAVsgmiX7rE7TVqTFxDm9jwYOhQhyphenhyphenpJV_HLaNcKxiXXIAuHNMrFC3OYLfH8DA6q8NLS43_y-U8TgKzyHYCkefoTVw0KohaKmT7J1b0/s320/main-qimg-0f732291ed6c36767605f23c11871f94-c.jpg" width="309" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
क्रमिक विकास का सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जिसके बारे में न केवल इसके विरोधियों में बल्कि समर्थकों में भी जानकारी का बेहद आभाव है। लोग इसको लेकर इस कदर भ्रांतियों का शिकार हैं कि अधिकांश लोगों के लिए इस सिद्धांत का अर्थ केवल बंदर से इंसान बनने से है। इसीलिए वे मासूमियत से बार-बार पूछते रहते हैं कि अब बंदर से इंसान क्यों नहीं बन रहा? काश यदि वे इसका विधिवत अध्ययन करते तो समझ पाते कि इस सिद्धांत का सम्बन्ध केवल इंसान और बंदरों से नहीं है बल्कि पूरे जीव जगत से है। और चूँकि यह सिद्धांत इतना विस्तृत है यह भी एक कारण है कि लोगों में इसके बारे में सही जानकारी का आभाव है। क्योंकि इसके सभी पहलुओं को किसी एक लेख यहाँ तक की एक किताब में भी नहीं समेटा जा सकता। फिर हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों में भी इसके बारे में बेहद संक्षित्प्त जानकारी ही उपलब्ध है और भारतीय भाषाओँ में इससे सम्बंधित स्तरीय पुस्तकों का भी आभाव है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
धार्मिक समूह लोगों के अज्ञान का फायदा उठाकर क्रमिक विकास को महज एक सिद्धांत कहकर ख़ारिज करने का प्रयास करते हैं क्योंकि यह न केवल उनके सर्वशक्तिमान ईश्वर के अस्तित्व और उसकी बुद्धिमानी पर प्रश्नचिन्ह लगाता है बल्कि मनुष्य के ईश्वर द्वारा निर्मित सर्वश्रेष्ठ कृति होने के दावे को भी झूठ सिद्ध करता है। वे कहते हैं कि क्रमिक विकास के सम्बन्ध में विज्ञान के पास कोई प्रमाण नहीं है और यह पूरा सिधांत महज एक तुक्के पर आधारित है। जबकि हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। क्रमिक विकास के सबूत हमारे चारों ओर बिखरे हुए हैं। यहाँ तक कि हमारे तमाम शारीरिक अंग स्वयं इसका एक जीता-जागता सबूत है। क्रमिक विकास के पक्ष में विज्ञान के पास सबूतों का कोई आभाव नहीं है बस जरुरत है हमें उन सबूतों को समझने की। आज इस लेख में आपको कुछ ऐसे ही सबूतों से परिचित कराने प्रयास है। लेकिन इससे पहले कि मैं उन सबूतों के बारे में चर्चा शुरू करूँ आपको एक छोटी सी कहानी सुनानी जरुरी है ताकि आप उन सबूतों को ठीक से समझ सकें।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कहानी कुछ इस तरह है कि एक एयरक्राफ्ट इंजिनियर रोजाना अपनी कार से शहर के दुसरे कोने में स्थित अपने ऑफिस का सफर करता था। इस दौरान उसका सामना अक्सर ही भारी ट्रेफिक जाम से होता था। जाम में इंच इंच सरकता वह सोचा करता था कि काश उसके पास उसका व्यक्तिगत एयरक्राफ्ट होता तो वह बिना जाम में फंसे अपने घर से सीधा ऑफिस पहुँच जाया करता। एक दिन उसके मन में विचार आया कि क्यों न वह अपनी कार को ही एयरक्राफ्ट में बदल दे। वह ऐसा कर सकता था क्योंकि उसके पास इससे सम्बन्धित सभी जरुरी तकनीकी योग्यता थी। लेकिन एक अड़चन थी। उसके पास एक ही कार थी जिसे वह एयरक्राफ्ट में तब्दील होने तक गेराज में नहीं छोड़ सकता था। तो उसने तय किया कि वह अपनी कार का इस्तेमाल करना जारी रखेगा साथ ही अपनी कार में रोजाना ऑफिस टाइम से फ्री होकर छोटे छोटे बदलाव करेगा और इस तरह एक दिन वह उसे पूरी तरह एक एयरक्राफ्ट में तब्दील कर देगा। तो उसने ऐसा ही किया और कार के पुर्जों में तमाम जुगाड़ों, सुधारों, बदलावों की एक बेहद लम्बी प्रक्रिया के बाद आख़िरकार अपने रिटायरमेंट के एक दिन पहले उसने अपनी कार को एयरक्राफ्ट में बदल ही दिया।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
हो सकता है आप इस कहानी को पढ़ते समय उस इंजिनियर को सनकी समझ रहे हों। आप ऐसा सोच सकते हैं। आप ही नहीं कोई भी समझदार व्यक्ति यही सोचेगा कि उसे इतनी उलझाऊ, जटिल और जुगाड़बाजी वाली प्रक्रिया को अपनाने की जरुरत क्या थी? क्या वह एक बिल्कुल ही नया एयरक्राफ्ट डिजाईन नहीं कर सकता था? जो कि इसकी अपेक्षा न केवल बेहद आसान होता बल्कि कई मामलों में इस जुगाड़ से बहुत बेहतर भी। कोई भी बुद्धिमान रचनाकार जिसके सामने कोई विशेष मजबूरी नहीं है ऐसी जटिल जुगाड़बाजी को अंजाम देने के बजाये चीजों को नए सिरे से बनाना पसंद करेगा। पर यदि आप वास्तव में यह मानते हैं कि धरती का प्रत्येक जीव एक बुद्धिमान रचयिता की बुद्धिमत्तापूर्ण रचना है तो वास्तव में वह रचयिता भी कुछ ऐसा ही सनकी है। उसकी तथाकथित रचनाएं भी अपने भीतर तमाम विसंगतियों को समेटे चीख चीखकर अपने अतीत की गवाही दे रही हैं। जैसे इंजिनियर का एयरक्राफ्ट पूर्व में अपने कार होने की कहानी कह रहा है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कार के पुर्जों में बदलाव करके बनाये एयरक्राफ्ट और एक ऐसे एयरक्राफ्ट में जिसे शुरुआत से ही उड़ने के लिए डिजाईन किया गया हो में अंतर बता पाना एक आम आदमी के लिए भले मुश्किल हो लेकिन एक इंजिनियर के लिए कतई मुश्किल नहीं है। नए सिरे से केवल उड़ने के उद्देश्य से डिजाईन किये गए एयरक्राफ्ट में हर पुर्जा बिलकुल नए ढंग से तैयार किया गया होगा, हर चीज बिल्कुल ठीक जगह फिट होगी जिसमें कहीं किसी तरह के समझौते अथवा जुगाड़बाजी की कोई गुंजाईश नहीं देखने को मिलेगी और सबसे बड़ी बात उसमें ऐसा कोई भी ऐसा व्यर्थ का पुर्जा नहीं होगा जिसका कोई उपयोग ही न हो। लेकिन जीवों के शरीर के अध्ययन से हमें पता चलता है कि यहाँ जुगाड़बाजी, समझौतों, पश्च-सुधारों और ऐतिहासिक अवशेषों कि भरमार है जो एक बुद्धिमान रचयिता की बुद्धिमानी अथवा उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। जीवों के शरीर में मौजूद क्रमिक सुधारों का इतिहास यह सिद्ध करता है कि सभी मौजूदा जीव किसी बुद्धिमान रचयिता कि रचनाएं नहीं बल्कि एक पूर्णतः भौतिक रूप से संचालित सुधारों कि एक चरणबद्ध प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये हैं, जीवों में सुधारों और अनुकूलन की इस प्रक्रिया को ही क्रमिक विकास(evolution) कहते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पीढ़ी दर पीढ़ी सुधारों कि यह प्रक्रिया किस तरह जीवों को पूरी तरह बदल देती है लेकिन बावजूद इसके वे अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पाते, व्हेल इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। व्हेल समेत अन्य तमाम समुद्री स्तनपायी जीवों जैसे डाल्फिन, समुद्री गाय इत्यादि में गलफड़े नहीं पाए जाते। अर्थात ये सभी जीव मछलियों कि तरह पानी में श्वसन नहीं कर सकते। इसलिए इनको सांस लेने के लिए बार-बार ऊपर आना पड़ता है। कोई बुद्धिमान रचयिता ऐसी गलती कैसे कर सकता है? आखिर उसने पूरा जीवन समुद्र में बिताने वाले जीव को गलफड़े जैसे महत्वपूर्ण अंग से वंचित क्यों रखा?</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf2DA11294gTuQMvIyvGGgoqAdbQdFrT4nvtKu0WEpCjRnjLIjLj-Cz_jS58eDy8ThQh9-bNwEwdHUGvBjucCGt5cElmtmcSJ2yjqy3J2L16QJu7_UpKuj6PYv5JZl7Pe8lAcUqKbPksoh/s1600/whale-evolution.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="443" data-original-width="590" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgf2DA11294gTuQMvIyvGGgoqAdbQdFrT4nvtKu0WEpCjRnjLIjLj-Cz_jS58eDy8ThQh9-bNwEwdHUGvBjucCGt5cElmtmcSJ2yjqy3J2L16QJu7_UpKuj6PYv5JZl7Pe8lAcUqKbPksoh/s320/whale-evolution.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
असल में व्हेल एक ऐसा जलचर जीव है जो देखने में तो किसी विशालकाय मछली जैसी लगती है पर वास्तव में इसके पूर्वज स्तनपायी थलचर थे जिन्होंने आज से लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व खुद को समुद्री जीवन के अनुकूल ढालना शुरू कर दिया था जिसके जीवश्मिक सबूत हमें प्राप्त हुए हैं। यही नहीं इसके शारीरिक अंग भी इसकी गवाही देते हैं। व्हेल का कंकाल एक टिपिकल स्तनपायी कंकाल है जिसकी हड्डियाँ अन्य किसी स्तनपायी जीव जैसी ही भारी हैं। साथ ही इसमें अगले पैरों के साथ पिछले पैरों के अवशेष भी मौजूद हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति यह पूछ सकता है कि आखिर ये अवशेषी हड्डियाँ यहाँ क्यों हैं जब इनका कोई उपयोग ही नहीं तो? एक बुद्धिमान रचयिता ने इन्हें क्यों बनाया?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसके साथ ही व्हेल और डॉल्फिन का पानी में गति करने का तरीका भी मछलियों से बिल्कुल भिन्न है। मछलियाँ पानी में आगे बढ़ने के लिए अपनी पूंछ को दायें-बाएं हिलाती हैं जबकि व्हेल और डॉल्फिन अपनी पूंछ को ऊपर-नीचे हिलाती हैं। व्हेल और डॉल्फिन का यह तरीका उनके थलचर अतीत की गवाही देता है। थलचर चौपाये दौड़ने के लिए अपनी रीढ़ कि हड्डी को एक स्प्रिंग कि तरह इस्तेमाल करते हैं जो लगातार ऊपर नीचे गति करती रहती है। तो इस तरह व्हेल एक समुद्री जीव होते हुए भी अपने थलचर अतीत से पीछा नहीं छुड़ा सकती। ठीक वैसे ही जैसे उस इंजिनियर का एयरक्राफ्ट उड़ने के बावजूद कार के इंजन से पीछा नहीं छुड़ा सकता।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसके साथ ही जीवों के शरीर में बहुत सारी डिजाईन सम्बन्धी खामियां भी पायी जाती हैं जो किसी बुद्धिमान रचनाकार के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। जैसे वेगस नाड़ी। लैटिन भाषा में वेगस का अर्थ है घुमक्कड़, जिसको यह चरित्रार्थ भी करती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यह नाड़ी उन कुछ नाड़ियों में से है जिसका उदय मस्तिष्क से होता जिसकी कई शाखाएं हैं जिनमें से दो शाखाएं ह्रदय में जाती हैं और दो अन्य शाखायें लेरेंक्स(गले का वह अंदरूनी हिस्सा जो ध्वनि पैदा करता है) में जाता है। जिसमें से एक शाखा तो सीधे लेरेंक्स में चली जाती है लेकिन दूसरी शाखा आश्चर्यजनक रूप से सीने तक जाकर ह्रदय की एक धमनी का चक्कर लगाकर वापस ऊपर गले में लेरेंक्स तक पहुँचती है जबकि इसके इस तरह बेतुके ढंग से बनाये जाने का कोई उपयुक्त कारण नहीं है। यहाँ तक की लम्बी गर्दन वाले जीवों जैसे जिराफ में तो यह मस्तिष्क से सीने में ह्रदय तक और वापस लेरेंक्स तक कई मीटर लम्बा चक्कर लगाती है जो किसी भद्दे मजाक से कम नहीं है। आखिर कोई बुद्धिमान निर्माता ऐसी भयंकर भूल कैसे कर सकता है?</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6snkFLhycIALbRpckWLd2FO_7o5ufVK93jiBErsJ5zsB0PPRnrziWgdCHGcyPE56Uku3n1yeH68yOOv6HOimyCix4bYFxUryZJBgwC7FMS7rCoPasZLanwI0bMDWeoNJR_u6R-FOHR0Z3/s1600/img19.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="356" data-original-width="308" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6snkFLhycIALbRpckWLd2FO_7o5ufVK93jiBErsJ5zsB0PPRnrziWgdCHGcyPE56Uku3n1yeH68yOOv6HOimyCix4bYFxUryZJBgwC7FMS7rCoPasZLanwI0bMDWeoNJR_u6R-FOHR0Z3/s320/img19.jpg" width="276" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसका सीधा सा जवाब है क्रमिक सुधारों का सिलसिला ही ऐसी डिजाईन सम्बन्धी खामियों को पैदा कर सकता है जिसमें पिछली गलतियों को संतुलित करने का प्रयास होता है लेकिन उनको पूरी तरह सुधारने की कोई गुंजाईश नहीं होती। क्रमिक विकास केवल कामचलाऊ सुधारों को पैदा करता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
क्रमिक विकास हमें बताता है कि गरदन वाले जीव बहुत बाद में अस्तित्व में आये। बिना गर्दन वाले जीवों जैसे मछलियों में लेरेंक्स नहीं होता, उनमें वेगस नाड़ी ह्रदय के साथ गलफड़ों के कुछ हिस्सों को नियंत्रित करती है। मछलियों में ह्रदय और गलफड़े आस पास ही होते हैं। लेकिन जैसे जैसे थलचरों और फिर गर्दन वाले जीवों का विकास हुआ जिनमें लेरेंक्स पाया जाता था ने मूल डिजाईन को बहुत हद तक बदल दिया। ह्रदय सीने में चला गया और लेरेंक्स उससे बहुत दूर गले में जा पहुंचा। लेकिन बावजूद इसके यह नाड़ी आज भी अपने मूल मार्ग का ही अनुसरण करती है, जिसके कारण यह आज भी मस्तिष्क से ह्रदय की धमनी का चक्कर लगाकर लेरेंक्स में पहुँचती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आँख जीवों की एक बेहद महत्वपूर्ण इंद्री है। लेकिन मानव समेत तमाम थलचरों की आँखें भी डिजाईन सम्बन्धी खामियों से मुक्त नहीं है। आँख की कार्यविधि मोटे तौर पर बिल्कुल किसी कैमरे जैसी ही है जिसमें एक उत्तल लेंस होता है जो सामने से आती रौशनी को एकत्रित कर पीछे पर्दे पर उसकी एक छवि बनाता है जिसे फोटोग्राफिक फिल्म अथवा सेंसर द्वारा कैद कर लिया जाता है जिससे बाद में वही छवि पैदा की जा सकती है। आपको अपनी आँखों की कार्यकुशलता पर गर्व हो सकता है लेकिन कोई भी कैमरा निर्माता अपने कैमरों में आपकी आँखों में मौजूद डिजाईन सम्बन्धी भूल नहीं कर सकता। सपने में भी नहीं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आपकी आँखों का रेटिना जहाँ छवि बनती है में प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं का एक समूह है, जो प्रकाश को ग्रहण कर उस सुचना को तंत्रिकाओं के एक जाल के जरिये मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन समस्या यह है कि ये उल्टा है। यानी इसका प्रकाशसंवेदी हिस्सा भीतर की तरफ है और तंत्रिकाओं का जाल बाहर की ओर। प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं तक प्रकाश रेटिना की पिछली दिवार से टकराकर पहुँचता है, जहाँ तक पहुँचने के लिए इसको तंत्रिकाओं के जाल से होकर गुजरना पड़ता है और यहाँ तक की इसके मध्य में एक ब्लाइंड स्पॉट भी मौजूद है जिससे प्रकाश पार नहीं हो पाता। यहाँ सभी तंत्रिकाएं आकर एकत्रित होती हैं और किसी सिंकहोल की तरह रेटिना की दीवार से बाहर निकल कर मस्तिष्क तक जाती हैं। लेकिन इतनी बाधाओं और बीच में एक ब्लाइंड स्पॉट के मौजूद होने के बावजूद हमें देखने में कोई समस्या क्यों नहीं होती? कारण है आपका मस्तिष्क, जो एक कुशल ऑनलाइन फोटोएडिटर की तरह कार्य करता है और खाली हिस्सों को भी छद्म जानकारीयों से भर देता है। आप जो कुछ भी आँखों से देखते हैं उसका कुछ हिस्सा मस्तिष्क द्वारा निर्मित है।</div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNncviAthJ9iJnHDif8ovcSihYB0-ahNFTMf7sek78j53oChFl6O5f27rotjebdz7C7SqA5iri4v2VnfP7ecr6W4uIbWTAXVomjt3vN7c9Qa7LRQzdbRhExs_8K1W6AUdeABtV0dCFo0Rz/s1600/e8pZsMe.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="331" data-original-width="725" height="291" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNncviAthJ9iJnHDif8ovcSihYB0-ahNFTMf7sek78j53oChFl6O5f27rotjebdz7C7SqA5iri4v2VnfP7ecr6W4uIbWTAXVomjt3vN7c9Qa7LRQzdbRhExs_8K1W6AUdeABtV0dCFo0Rz/s640/e8pZsMe.jpg" width="640" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आँखों के इस तरह निर्मित होने की वजह भी इसके क्रमिक विकास में छुपी है। आँख तमाम सुधारों से होती हुयी आज अपने वर्तमान स्वरुप में पहुंची है। प्रारंभ में जीवों में कुछ प्रकाशसंवेदी अंग विकसित होने शुरू हुए। इन अंगों से आँखों की तरह स्पष्ट नहीं देखा जा सकता था ये मात्र रौशनी और अँधेरे के फर्क को महसूस करने में मदद करते थे। विकासक्रम के किसी मोड़ पर कुछ जीवों में ये प्रकाशसंवेदी अंग उलटकर भीतर की ओर विकसित होने लगे। चूँकि उस समय तक लेंस का विकास नहीं हुआ था अतः इससे जीवों की प्रकाश को अनुभूत करने की क्षमता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा और लिहाजा आगे भी यह इसी प्रकार विकसित होता रहा और इसके बहुत बाद में जाकर जब एक लेंसयुक्त आँख विकसित हुयी तब भी यह डिजाईन वैसा का वैसा ही रहा। डिजाईन के लिहाज से ऑक्टोपस की आँख किसी भी थलचर जीव की आँख से बेहतर है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ठीक इसी तरह स्तनपायी जीवों में पुरुष जननांग भी डिजाईन की खामी से जूझ रहे हैं। पुरुष जननांगों से शुक्राणुओं को शिश्न तक पहुँचाने वाली नलिका सीधे शिश्न में न जाकर मूत्राशय की नलिकाओं का चक्कर लगाकर शिश्न तक पहुँचती है। केवल स्तनपायी जीवों में ही पुरुष जननांग बाहर की ओर पाए जाते हैं। बाकी सभी जीवों में ये पेट के भीतर स्थित होते हैं। विकासक्रम ने ही इनको यहाँ पहुँचाया है। जिसका कारण है स्तनपायी जीवों के शरीर का तापमान जो शुक्राणुओं के विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। लेकिन पुरुष जननांगों के बाहर आ जाने के बावजूद शुक्राणुवाहिका आज भी अपने मूल मार्ग का अनुसरण कर रही है। चूँकि इससे इसकी कार्यप्रणाली में कोई विशेष बाधा पैदा नहीं हुयी इसलिए यह डिजाईन आज भी इसी तरह चला जा रहा है।</div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLr2IO5fV5ux2kGE8wgR2RQsjVx-CKMj-90Bgi9sY_HBBfCxnA2PU1tm37D2JVJuBNMA9nLdXS_qFwYLj5m0c7zMlU2QTIexSVEAK5Jo-d6FcqT8kzP8pUzhyphenhyphenkyaNTL67jJ0vtNXXDk-vI/s1600/Undescended+testes.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="198" data-original-width="500" height="252" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLr2IO5fV5ux2kGE8wgR2RQsjVx-CKMj-90Bgi9sY_HBBfCxnA2PU1tm37D2JVJuBNMA9nLdXS_qFwYLj5m0c7zMlU2QTIexSVEAK5Jo-d6FcqT8kzP8pUzhyphenhyphenkyaNTL67jJ0vtNXXDk-vI/s640/Undescended+testes.jpg" width="640" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
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<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
लेकिन भले ही इससे अधिकांश जीवों को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुयी हो लेकिन फिर भी कुछ जीवों के लिए यह कई बार बहुत समस्या पैदा कर देती है। यहाँ तक कि उन्हें अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ सकता है। मनुष्य भी उन जीवों में से एक है। पुरुष जननांग मानव भ्रूण के प्रारंभिक काल में पेट में ही विकसित होते हैं और भ्रूण के विकास के आखरी दिनों में पेट से अपने नियत स्थान का सफ़र शुरू करते हैं। कई बार बच्चे के जन्म के बाद उसका एक अथवा दोनों जननांग अपनी जगह पर नहीं पहुँच पाते जिसको कई बार ऑपरेशन से बाहर लाना पड़ता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इससे सम्बंधित समस्याओं का अंत यहीं नहीं होता। जननांगों के इस सफ़र के कारण बनी इन्गुइनल कैनाल की दीवारें भी समय के साथ कमजोर पड़ जाती हैं और बहुत से मामलों में ये इन्गुइनल हर्निया का कारण बनती हैं जो अधेड़ मर्दों की एक प्रमुख बीमारी है। डिजाईन की इस खामी की वजह से प्रति वर्ष लाखों लोग इस रोग से पीड़ित होते हैं। वर्तमान में इसका मेडिकल उपचार सुलभ होने के कारण आज इस रोग की भयावहता का पता नहीं चलता। जरा सोचिये पुराने समय में जब इसका कोई इलाज उपलब्ध नहीं था कितने मर्दों ने इसके कारण तड़पते हुए असमय अपनी जान गंवाई होगी। यह भयानक भूल एक बुद्धिमान निर्माता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसके साथ ही अवशेषी अंग भी क्रमिक विकास का एक बढ़िया प्रमाण हैं जो एक बुद्धिमान निर्माता पर सवाल खड़े करते हैं। लगभग सभी जीवों में कुछ अंग अथवा उनके अवशेष ऐसे पाए जाते हैं जिनका उस जीव के लिए कोई उपयोग नहीं होता। ये अंग उस जीव के इतिहास की निशानियाँ हैं जिन्हें वह आज भी ढो रहा है। इन अंगों का उपयोग उस जीव के लिए विकासक्रम के किसी दौर में रहा होगा, लेकिन बदलते परिवेश और व्यवहार के कारण आज इनका उस जीव के लिए कोई उपयोग नहीं। जैसे एक बहुत अच्छा उदाहरण उन पक्षियों का जो उड़ने की योग्यता खो चुके हैं, जैसे शुतुरमुर्ग, एमु, पेंगुइन, कीवी इत्यादि।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इन सभी जीवों में पंख अथवा उनके अवशेष मौजूद हैं लेकिन ये उड़ने की योग्यता खो चुके हैं। आखिर कोई बुद्धिमान निर्माता किसी जीव को ऐसे अंग क्यों देगा जिनका उसके लिए कोई उपयोग नहीं? इसका जवाब भी हमें क्रमिक विकास में ही मिलता है। बदलते परिवेश ने इन पक्षियों के लिए उड़ने की जरुरत को ख़त्म कर दिया लिहाजा इनके पंखों का विकास रुक गया। जैसे न्यूज़ीलैण्ड में पाये जाने वाले कीवी पक्षी के पूर्वज वे समुद्री पक्षी थे जो भूगर्भीय गतिविधियों के कारण समुद्र से बाहर आई इस भूमि पर उड़कर पहुंचे थे। इस नयी भूमि पर न केवल भरपूर भोजन उपलब्ध था बल्कि उनके लिए कोई प्रतिस्पर्धा और शिकारी भी मौजूद नहीं था। ऐसे माहौल में वे बिना उड़े पूरा दिन जमीन पर कीड़े खाते हुए व्यतीत करते रह सकते थे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ऐसा ही एक उदहारण गहरे समुद्र और अँधेरी गुफाओं में पाए जाने वाले जीवों के सम्बन्ध में दिया जा सकता है जो अपनी देखने की क्षमता खो चुके हैं परन्तु आज भी उनकी आँखों के अवशेष मौजूद हैं। आखिर किसी अंग की जरुरत ख़त्म होने पर उसका विकास किस प्रकार रुक जाता है?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
असल में कोई अंग अथवा व्यवहार जब तक जीव के सर्वाइवल के लिए आवश्यक है प्राकृतिक चुनाव उसे संरक्षित रखता है। जैसे यदि जेनेटिक म्युटेशन के कारण कोई ऐसा कबूतर पैदा होता है जो कि उड़ने में सक्षम नहीं है तो वह सर्वाइव नहीं कर सकेगा और न ही अपनी संतति बढ़ा सकेगा। लिहाजा इस म्युटेशन को बढ़ने का मौका नहीं मिलेगा। लेकिन किसी नए परिवेश में जहाँ उड़ना सर्वाइवल के लिए जरुरी न हो ऐसे में वह म्युटेशन फैलेगा। और समय समय पर ऐसे म्युटेशनस की वजह से वह अंग अथवा क्षमता प्रभावित होगी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
हम अपनी बात करें तो हमारे शरीर में भी बहुत सारे ऐसे अंग मौजूद हैं। जैसे अपेंडिक्स। अपेंडिक्स वास्तव में हमारी आंत का एक अवशेषी हिस्सा है जो अतीत में किसी समय कच्ची वनस्पति पचाने के काम आता था। लेकिन समय के साथ बदलते खान-पान ने इसकी उपयोगिता को समाप्त कर दिया। आज यह एक अवशेषी अंग के रूप में हमारी आंत के सिरे पर मौजूद है और इसमें होने वाले इन्फेक्शन के कारण बहुत से लोगों को भयंकर पेट दर्द का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही अक्कल दाढ़, पूँछ कि हड्डी, साइनस, टॉन्सिल्स, कान को हिलाने वाली मांसपेशी, इरेक्टेर पिली(रोंगटे खड़े करने वाला तंत्र), आँखों के कोने पर पर पायी जाने वाली झिल्ली और 6 माह के बच्चों में पाया जाने वाला ग्रास्प रिफ्लेक्स( जिसके कारण बच्चा आपकी अंगुली को कसकर पकड़ लेता है वास्तव में अतीत में इसी रिफ्लेक्स के कारण बच्चा अपनी माँ को कसकर पकड़े रहता था। आज भी बंदरों और वानरों में इस व्यवहार को देखा जा सकता है।)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
ये तो मात्र कुछ प्रमाण हैं। वास्तव में ऐसे प्रमाण इतनी अधिक संख्या में मौजूद हैं कि ऐसे तमाम प्रमाणों पर एक पूरी किताबों की सिरीज लिखी जा सकती है। ये सभी हमें बताते हैं कि कोई भी जीव किसी बुद्धिमान निर्माता द्वारा निर्मित रचना नहीं है बल्कि वह सुधारों की एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया के कारण ही अपने वर्तमान स्वरुप में पहुंचा है।</div>
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Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-14914175953134467752018-12-04T14:08:00.000+05:302019-05-30T18:35:14.248+05:30डार्विन का क्रमिक विकास सिद्धांत - संक्षिप्त परिचय <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghCWKgDRoXTLHACBgcHQC8RbMlJBlfzLNLSG0L7NgGtj9a1IkeQk8nMAKVL3fg22_uplNJyb3nqWg9sHKZMTPXxtvfhUTQ305l4nULx9WDiiZpL8LILWv0fxnS7kkxc9-UCAJz43fnYYuH/s1600/frame_0_delay-0.01s.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="363" data-original-width="960" height="241" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghCWKgDRoXTLHACBgcHQC8RbMlJBlfzLNLSG0L7NgGtj9a1IkeQk8nMAKVL3fg22_uplNJyb3nqWg9sHKZMTPXxtvfhUTQ305l4nULx9WDiiZpL8LILWv0fxnS7kkxc9-UCAJz43fnYYuH/s640/frame_0_delay-0.01s.jpg" width="640" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
क्रमिक विकास का सिद्धांत(Theory of evolution) विज्ञान के इतिहास में अब तक प्रतिपादित कुछ सबसे प्रसिद्द, बेहतरीन और प्रमाणिक सिद्धांतों में से एक है जो विज्ञान की तमाम शाखाओं जैसे जीवाश्म विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, अनुवांशिकी इत्यादि द्वारा उपलब्ध कराये गए अनेकों अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध है। यह सिद्धांत बेहद रोमांचक है क्योंकि यह हमारी कुछ आदिम जिज्ञासाओं का जवाब देता है....हम कहाँ से आये? जीवन कहाँ से आया? ये जैव विविधता कैसे उत्पन्न हुयी?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सदियों से मनुष्य के पास इन सवालों का कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था सिवाय कुछ धर्मजनित दार्शनिक सिद्धांतों के, जो कितने सत्य हैं कोई नहीं जानता था। इस सिद्धांत ने मानवता के इतिहास में पहली बार न केवल मानव को अपने अस्तित्व स्रोत तलाशने का मार्ग दिखाया बल्कि यह भी बताया कि पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता आपस में सम्बंधित है और यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तिव में आई है। यह लेख आपको क्रमिक विकास के मूलभूत सिद्धांतों से आपका परिचय कराने के साथ-साथ वे कैसे कार्य करते हैं यह भी समझने में मदद करेगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
डार्विन ने सन 1859 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पिशीज’ में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया। जिसके अनुसार प्राकृतिक वरण ही जीवों में बदलावों को गति देता है जिसके कारण लम्बे समय अन्तराल में नयी जैव प्रजातियों का विकास होता है। इस सिद्धांत के तीन प्रमुख बिंदु हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
1. किसी एक परिवेश में रहने वाले किसी जीव प्रजाति के सदस्य न केवल शारीरिक रूप से बल्कि गुण व्यवहार इत्यादि से परस्पर आंशिक रूप से भिन्न होते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
2. जिन सदस्यों के गुण उन्हें उस परिवेश में अपनी ही प्रजाति के सदस्यों पर बढ़त प्रदान करते हैं उनके बचे रहने और संतानोत्पत्ति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसी को प्राकृतिक चुनाव अथवा वरण कहा जाता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
3. इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी प्राकृतिक चुनाव के कारण उन गुणों का निरंतर विकास होता है और एक इसी के कारण एक लम्बे अंतराल में एक बिल्कुल नयी जैव प्रजाति अस्तित्व में आती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
डार्विन ने जब इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया था तब तक अनुवांशिकी और डीएनए के बारे में कोई ख़ोज नहीं हुयी थी, अतः जीवों में विभिन्नताएं किस कारण से आती हैं इसको समझा नहीं जा सका था। परन्तु आज हम जानते हैं जीवों में भिन्नताएं डीएनए और उसमें कालांतर में होने वाले म्युटेशन के कारण आती हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
डीएनए अणुओं की एक चेन जैसी जटिल संरचना होती है जो जेनेटिक सूचनाओं का स्रोत होती है। डीएनए में मौजूद जेनेटिक सूचनाएं ही किसी जीव के शारीरिक विकास, अंगों की बनावट, उनकी कार्यप्रणाली, संतति और व्यवहार को निर्धारित करती है। जीव के शरीर की हर कोशिका में यह डीएनए मौजूद होता है। जब भी कोई कोशिका विभाजित होती है तो वह कोशिका इस डीएनए की कॉपी तैयार करती है। कॉपी तैयार करने की यह प्रक्रिया बेहद कुशल होती है लेकिन फिर भी इसमें अशुद्धि आने की सम्भावना बनी रहती है। हालाँकि अधिकांश मामलों में डीएनए इन अशुद्धियों को स्वतः ठीक कर लेता है। लेकिन फिर भी कुछ मामलों में ये अशुद्धियाँ डीएनए का ही हिस्सा बन जाती हैं इन्हीं अशुद्धियों को म्युटेशन कहा जाता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इन म्युटेशन के कारण जीव के शारीरिक अंगों और व्यवहार में कुछ बदलाव आते हैं। ये बदलाव दो प्रकार के हो सकते हैं हानिकारक और लाभदायक। अधिकांश बदलाव हानिकारक ही होते हैं लेकिन कुछ बदलाव लाभदायक भी होते हैं जो उस जीव को अपने परिवेश में अन्य जीवों पर प्रतिस्पर्धा में बढ़त प्रदान करते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति उत्पन्न की संभावनाएं बढ़ जाती हैं और इस तरह वह म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में प्रसारित होता जाता है। जबकि हानिकारक म्युटेशन जीव को प्रतिस्पर्धा में पछाड़ देते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति पैदा करने की संभावनाएं कम हो जाती हैं, फलस्वरूप वे म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में नहीं जा पाते और इस तरह प्राकृतिक चुनाव उन्हें चलन से बाहर कर देता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जिन जीवों में लैंगिक प्रजनन होता है वहां यह प्रक्रिया और दिलचस्प हो जाती है। चूँकि लैंगिक प्रजनन में दो जीवों के डीएनए आपस में संयुक्त होकर भावी संतति को जन्म देते हैं अतः इस प्रक्रिया में अधिक विविधताओं को जन्म लेने का अवसर प्राप्त होता है, और इसके साथ ही प्रकृति को प्रयोग करने के लिए बड़ा कैनवास मिल जाता है। इस तरह प्राकृतिक चुनाव पीढ़ी दर पीढ़ी जीवों को आकार देता जाता है। किसी जीव प्रजाति में बदलावों का यह सिलसिला एक लम्बे कालांतर में एक बिल्कुल ही नयी जीव प्रजाति को विकसित कर देता है जो दिखने, आकार, प्रकार, व्यवहार में पूर्व प्रजाति से काफी भिन्न होती है। यही क्रमिक विकास है जिसे हम प्रकृति के अद्रश्य हाथों की संज्ञा दे सकते हैं जिसने धरती पर अनगिनत जैव विविधताओं को आकार दिया है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
प्राकृतिक चुनाव किस तरह जैव विविधताओं को आकार देता है इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण हमारे एकदम पास में मौजूद है। मनुष्य का सबसे भरोसेमंद दोस्त जिसकी वफ़ादारी की मिसालें दी जाती हैं, जी हाँ कुत्ते। दुनिया भर में मौजूद कुत्तों की तमाम प्रजातियां ‘जो दिखने में आकार, प्रकार, व्यवहार में एकदूसरे से बहुत भिन्न प्रतीत होती हैं’ वास्तव में एक ही प्राचीन पूर्वज की संतानें हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कुत्तों का विकास लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व भेडियों की एक प्रजाति से हुआ था जो कि अब लुप्त हो चुकी है। शिकार में उपयोगी होने के कारण कुत्ते धीरे-धीरे प्राचीन काल में मौजूद दुनिया के सभी मानव समूहों में पहुँच गए और भिन्न भिन्न स्थानों के पर्यावरण और मानवीय हस्तक्षेप(सेलेक्टिव ब्रीडिंग) ने उन्हें समय के साथ इतने भिन्न-भिन्न रंग रूप और आकारों में ढाल दिया। मानव द्वारा अंजाम दी गयी सेलेक्टिव ब्रीडिंग के कारण कुत्तों की बहुत सी प्रजातियाँ तो मात्र पिछले कुछ 200 वर्ष के दौरान ही विकसित हुयी हैं। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जिस तरह कृत्रिम चयन के कारण जीवों में बेहद कम समय में नाटकीय बदलाव आ सकते हैं ठीक उसी तरह प्राकृतिक चयन भी जीवों को आकार दे सकता है।</div>
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हमारे पालतू जानवर और वे वनस्पतियाँ जिनका हम उपभोग करते हैं को हमारे चयन ने इतना बदल दिया है कि वे आज बिल्कुल ही भिन्न रूप में हमारे सामने हैं। अधिक दूध के उत्पादन के कारण दुधारू नस्लों को लगातार बढ़ावा दिए जाने के कारण आज हमारे दुधारू पशु न केवल अपने शिशु की दैनिक आवश्यकता से बहुत अधिक दूध देते हैं बल्कि शिशु की दूध पर निर्भरता ख़त्म हो जाने के बावजूद दूध देते रहते हैं। दुनिया का कोई भी स्तनपायी जीव अपने शिशु के लिए उसकी आवश्यकता से इतने अधिक दूध का उत्पादन नहीं करता। सेलेक्टिव ब्रीडिंग ने केलों से बीजों को गायब कर दिया है जबकि केले की जंगली प्रजाति में आज भी बीज पाए जाते हैं। बंदगोबी कभी एक लम्बा पत्तेदार पौधा था जो अब एक ग्लोब जैसा बन चुका है। जंगली स्ट्रॉबेरी की तुलना में हमारे द्वारा उगाई जाने वाली संकर स्ट्रॉबेरी लगभग 10 गुना बड़ी है और अधिक मीठी भी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसी तरह हमारे दैनिक उपभोग की लगभग सभी जैविक वस्तुएं आज जिस रूप में हैं जब हमने उनका उपभोग करना प्रारंभ किया था तब वे वैसी नहीं थीं। यही नहीं हमने सेलेक्टिव ब्रीडिंग द्वारा उनकी तमाम किस्में भी विकसित कर ली हैं जो गुण-धर्म में एक दुसरे से एकदम भिन्न हैं। तो जब इतने कम समय में मानवीय हस्तक्षेप सैकड़ों जैव प्रजातियों को आकार दे सकता है तो जरा सोचिये अरबों वर्ष के अंतराल में प्रकृति कितनी जैव विविधताओं को जन्म दे सकती है?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आज दुनिया में मौजूद कुत्तों की प्रजातियाँ एक दुसरे से इतनी भिन्न हैं कि वे देखने में बिल्कुल ही भिन्न जीव लगते हैं। दुनिया का सबसे छोटा कुत्ता टी कप पडल मात्र आधा किलो का है तो तिब्बतियन मेस्टिफ 90 किलो का है। लेकिन बावजूद इसके वे एक ही जीव प्रजाति के अंतर्गत आते हैं। क्योंकि इतना भिन्न दिखने के बावजूद उनका डीएनए बहुत भिन्न नहीं है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कुत्तों की दो प्रजातियों में आकार व्यवहार के फर्क के कारण भले ही प्राकृतिक रूप से उनका सहवास करना संभव न हो लेकिन यदि कृत्रिम गर्भधान कराया जाए तो मादा एकदम स्वस्थ पिल्लों को जन्म दे सकती है। इससे पता चलता है कि कुत्तों में दो भिन्न प्रजातियों के डीएनए आज भी इतने भिन्न नहीं हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण न कर सकें। लेकिन जब एक ही जीव की दो भिन्न प्रजातियाँ विकासक्रम के एक लम्बे सफ़र पर अलग-अलग विकसित होती हैं तो एक लम्बे कालांतर में एक समय ऐसा आता है जब कि उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण नहीं कर सकते। इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है खच्चर।</div>
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खच्चर असल में कोई जीव प्रजाति नहीं है बल्कि यह दो भिन्न जीवों के संयोग से निर्मित है। घोड़े और गधे के कृत्रिम गर्भधान से खच्चर का जन्म होता है। लेकिन खच्चर स्वयं अपनी संतति नहीं पैदा कर सकता, क्योंकि यह नपुंसक होता है। घोडा और गधा एक ही प्राचीन पूर्वज की दो भिन्न वंशबेलें हैं जो कि विकासक्रम में इस अवस्था पर पहुँच चुके हैं जबकि उनका डीएनए आपस में संयुक्त होकर एक स्वस्थ भ्रूण को जन्म नहीं दे सकता।</div>
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इसी तरह एक लम्बे कालांतर के बाद ये भिन्नताएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि तब शुक्राणु भी अंडे को निषेचित नहीं कर पाता। शेर और बिल्ली ये दोनों एक ही संयुक्त पूर्वज की भिन्न-भिन्न वंशबेलें हैं। लेकिन ये दोनों अपने विकास के पथ पर इतना आगे निकल चुके हैं कि कृत्रिम गर्भधान द्वारा भी गर्भधारण नहीं हो सकता।</div>
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लेकिन यहाँ एक सवाल पैदा होता है, कि आखिर वह क्या कारण है जिसकी वजह से एक ही प्राचीन पूर्वज से उत्पन्न संतानें विकासक्रम में भिन्न-भिन्न मार्गों पर विकसित होती हुयी दो भिन्न प्रजातियाँ बन जाती हैं?</div>
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इसका प्रमुख कारण है पृथक्कीकरण। यानी एक ही प्रजाति के दो समूहों के मध्य आया कोई ऐसा अवरोध जो उन्हें आपसी संपर्क से वंचित कर दे। ऐसा दो प्रमुख कारणों से हो सकता है। भौगौलिक कारणों से और ऐच्छिक अथवा व्यहवारगत कारणों से।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भौगौलिक पृथककीकरण में एक ही प्रजाति के दो समूहों के बीच कोई भौगौलिक अवरोध आ जाता है, जिसके कारण वे आपसी संपर्क से वंचित हो जाती हैं और अलग-अलग विकसित होती हैं। एक लम्बे समय अंतराल के बाद उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि भौगौलिक अवरोध न रहने के बावजूद भी वे आपसी संपर्क के इच्छुक नहीं रहते, और यदि संपर्क हो भी जाए तो भी एक स्वस्थ संतति को जन्म देने में असमर्थ होते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जैसा कि हम जानते हैं कि टेक्टोनिक प्लेटों के सरकने के कारण पृथ्वी पर लम्बे कालखंड में मुख्यभूमि से अलग होकर नए महाद्वीपों के बनने और समुद्र में ज्वालामुखीय गतिविधियों के कारण नए द्वीपों के बनने की घटनाएं होती रही हैं जिसकी वजह से कई बार जीव प्रजातियों को भौगौलिक पृथक्कीकरण का सामना करना पड़ा है। इसके साथ ही पर्वतों और घाटियों के बनने और नवीन जलधाराओं द्वारा जमीन के दो हिस्सों को अलग कर देने की घटनाएं भी घटती रही हैं। कई बार भौगौलिक दूरियां भी पृथक्कीकरण का काम करती हैं। डार्विन के मन में क्रमिक विकास के सिद्धांत का विचार जिन जीवों के अध्ययन की वजह से आया उनके भीतर आयी विभिन्नताओं का कारण भौगौलिक पृथक्कीकरण ही था।</div>
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गैलापोगस द्वीप समूह ‘जो कि दक्षिणी अमेरिका के निकट प्रशांत महासागर में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है’ की यात्रा के दौरान डार्विन ने पाया कि हर द्वीप पर मौजूद कछुओं और चिड़ियों की प्रजाति एक दुसरे से भिन्न है। उन्होंने यह भी पाया कि वहां के स्थानीय लोग किसी कछुए अथवा चिड़िया को देखकर यह बता देते थे कि यह किस द्वीप की निवासी है। बाद में अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि द्वीपों पर मौजूद भोजन के प्रकार और उस पर पाए जाने वाले जीवों में सीधा सम्बन्ध है।</div>
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जैसे निर्जन और पथरीले द्वीपों पर पायी जाने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच काठी के आकार का था वहीं उर्वर द्वीपों पर रहने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच गुम्बदाकार था। निर्जन द्वीपों पर चूँकि भोजन के नाम पर केवल कैक्टस के फल ही मौजूद थे अतः उन तक पहुँचने के लिए कछुओं को अपनी गर्दन को ऊँचा उठाना पड़ता था, गुम्बदाकार कवच जिसमें बाधा था अतः प्राकृतिक चयन ने उन कछुओं को प्राथमिकता दी जो अपनी गर्दन को ऊँचा उठा सकते थे, जिसने कालांतर में काठी के आकार वाले कवच के कछुओं को विकसित किया। आज हम जानते हैं कि डार्विन का सोचना एकदम दुरुस्त था क्योंकि जेनेटिक मैपिंग ने यह सिद्ध कर दिया है कि गैलापोगस द्वीप पर पायी जाने वाली कछुओं की विभिन्न प्रजातियाँ वास्तव में एक ही प्राचीन प्रजाति से विकसित हुयी हैं।</div>
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कई बार ऐसा भी होता है कि जीवनयापन के लिए नए अवसरों की तलाश में कोई जीव समूह किसी नए परिवेश अथवा व्यहवार को अपना लेता है, उसकी भावी संततियां भी उसी परिवेश के अनुकूल खुद को ढाल लेती हैं और कोई भौगौलिक बाधा न होते हुए भी अपनी प्रजाति के अन्य समूहों से उनका संपर्क ख़त्म हो जाता है। हालाँकि इस पर वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं।</div>
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जैसे अभी हाल ही में उत्तरी अमेरिका में सेबों में अंडे देने वाले वाली एक फल मक्खी में इस व्यवहार को खोजा गया है। सेब के वृक्ष उत्तरी अमेरिका में प्रवासी वृक्ष हैं जिनको 19वीं सदी में बाहर से लाकर रोपित किया गया था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन वृक्षों के फलों में अंडे देने वाली एक फल मक्खी वास्तव में वहां पाए जाने वाले एक फल हाथोर्न में अंडे देने वाली एक फल मक्खी की वंशज है। अभी तक कीटों पर हुए शोध यह बताते हैं कि हर कीट का एक विशेष वृक्ष से सम्बन्ध रहता है। इनका जीवनचक्र उसी वृक्ष विशेष पर निर्भर करता है। यानी हर फल मक्खी किसी विशेष फल पर ही अंडे देती है। लेकिन हाथोर्न फल में अंडे देने वाली एक मक्खी ने नए अवसरों की तलाश में सेब के फल को चुना और उसकी संततियां भी उसी सेब के वृक्ष पर आश्रित हो गयीं और कालांतर में एक नयी प्रजाति के रूप में विकसित हो गयीं।</div>
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अब जब चूँकि हम ये जान गए हैं कि किस तरह प्राकृतिक चुनाव नयी जैव प्रजातियों को विकसित करता है तो मन में ये विचार सहज ही आता है कि क्या पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जीवन आपस में सम्बंधित हो सकता है? डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत का दूसरा चरण यही कहता है जिसकी पुष्टि पिछले 150 वर्षों में तमाम वैज्ञानिक शोधों में समय-समय पर होती रही है। यानी धरती पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता एक ही आदि जीव के क्रमिक विकास के फ़लस्वरूप अस्तित्व में आयी है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दुनिया की सम्पूर्ण जैव विविधता को यदि हम वर्गीकृत करें तो हमें जीवन के विकास का एक विशाल वृक्ष मिलता है जिसमें तमाम शाखाएं उप-शाखाएं हैं। इस वृक्ष की दो भिन्न शाखाओं का उद्गम खोजते हुए यदि हम ऊपर से नीचे आयें तो एक स्थान पर हम पायेंगे कि दोनों शाखाओं का उद्गम एक ही है। यानी धरती पर मौजूद हर जीव किसी दुसरे जीव के साथ कोई संयुक्त पूर्वज साझा करता है। ठीक उसी तरह जैसे आपके दादा जी आपके सगे भाइयों, चचेरे भाइयों, आपके पिता, चाचा, ताया के संयुक्त पूर्वज हैं।</div>
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पृथ्वी पर मौजूद जीवन के दो प्रारूप परस्पर कितने ही भिन्न हों लेकिन वे दूर के सम्बन्धी हैं। हम अपनी बात करें तो जीवन के वृक्ष पर चिम्पांजी हमारा निकटतम सम्बन्धी है, उसके बाद गोरिल्ला, ओरेंगोटेन। निकटतम सम्बन्धी होने का अर्थ है कि धरती पर वर्तमान में मौजूद जीव प्रजातियों में चिम्पाजी वह जीव है जिसके साथ मानव सर्वाधिक निकट संयुक्त पूर्वज साझा करता है। लेकिन जीवन के वृक्ष पर जब हम निकटतम संयुक्त पूर्वज की बात करते हैं तो निकटतम का अर्थ भी हजारों से लाखों वर्ष पूर्व हो सकता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
मानव की वंश शाखा वानर प्रजाति से लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व अलग हुयी और विकास क्रम में विभिन्न मानव प्रजातियों से होती हुयी वर्तमान मानव के रूप में विकसित हुयी। एक समय था जब धरती के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न मानव प्रजातियाँ मौजूद थीं। लेकिन वे सभी विभिन्न कारणों से समय के साथ लुप्त हो गयीं और वर्तमान प्रजाति यानी होमोसेपियंस यानी हम बचे रहने में कामयाब रहे।</div>
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Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-30304862308874893182018-09-18T16:57:00.000+05:302018-09-18T16:57:08.287+05:30इस्लामिक कट्टरवाद और समाधान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
कई दशकों से दुनिया की नाक में सबसे ज्यादा दम यदि किसी ने किया है तो वह है इस्लामिक कट्टरवाद और उससे जनित आतंकवाद। सभी देश अपने अपने तरीके से इससे निपट रहे हैं लेकिन भारत में एक तेजी से उभरता वर्ग जिस तरह से इससे निपटना चाह रहा है वह चिंताजनक है। इनके तौर तरीके उन्मादियों वाले हैं जिनमें कोई सूझ-बूझ, कोई दूरगामी नीति की झलक दूर दूर तक दिखाई नहीं देती। ये माथे पर तिलक और हाथों में भगवा झंडे उठाये ऐसे धार्मिक उन्मादियों की भीड़ है जिनके पास अपना कोई दिमाग ही नहीं है। ये लोग ऐसे हैं जैसे आँखों पर पट्टी बांधकर तलवार भांजता कोई तलवारबाज। जो अपने ही लोगों को मार रहा है, जबकि उसका प्रतिद्वंद्वी दूर खड़ा हंस रहा है। इन उन्मादियों की भीड़ को अपने सुरक्षित किलों में बैठे आकाओं द्वारा अपने व्यक्तिगत हितों के लिए रिमोट से संचालित किया जा रहा है। ये वो लोग हैं जिनको समस्या की कोई वास्तविक समझ नहीं है। इनके सामने इनके आकाओं द्वारा जो विकृत सच्चाई परोसी जा रही है और उससे निपटने का जो समाधान सुझाया जा रहा है, ये बस उसी को सच मानकर सड़कों पर निकल पड़े हैं। जबकि ये नहीं जानते कि जिसे ये समाधान समझ रहे हैं वह इनको और इनकी आने वाली कौम को ऐसी मुसीबतों में फंसा देगा जिसकी भरपाई शायद हो ही न पाए।</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2GXcjY7x82VuMmi_dPoyRkUaqwc3XKyDaVwDd9Bkhk-BePMU7_o8lxi2hnTkfoxfPwEpbfISASNgDgJV5nZ1CRzSZ-wysjFSAef6qBKqUqA4_rKWDVh-xkE5eL49oIO-9zimxMsvfK3U1/s1600/islamic_1491423516.jpeg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="397" data-original-width="750" height="169" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh2GXcjY7x82VuMmi_dPoyRkUaqwc3XKyDaVwDd9Bkhk-BePMU7_o8lxi2hnTkfoxfPwEpbfISASNgDgJV5nZ1CRzSZ-wysjFSAef6qBKqUqA4_rKWDVh-xkE5eL49oIO-9zimxMsvfK3U1/s320/islamic_1491423516.jpeg" width="320" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वैसे भी धार्मिक अंधमूढ़ लोगों के समाधान अक्सर समस्या को सुलझाते नहीं बल्कि उसको और ज्यादा उलझा देते हैं। क्योंकि किसी भी समस्या के सटीक समाधान पर पहुँचने के लिए निष्पक्ष तार्किक विश्लेषण जरुरी है ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। लेकिन निष्पक्ष और तार्किक हो पाना धार्मिक लोगों के लिए असंभव सी बात है। तो होता ये है कि सांप भी नहीं मरता और लाठी भी टूट जाती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ये लोग असल में इस्लामिक कट्टरपंथ का जवाब हिन्दू कट्टरपंथ से देना चाहते हैं। इनका मानना है ऐसा करके ये इस्लामिक कट्टरपंथ को परास्त कर देंगे। सच कहूँ तो मुझे इनकी मूर्खता और मासूमियत पर हंसी आती है। जो भी ऐसा सोचता है की इस्लामिक कट्टरपंथ का इलाज हिन्दू कट्टरपंथ है तो वह वास्तव में इस्लाम और हिन्दू धर्म की मूल भावना और दर्शन से बिलकुल अनभिज्ञ है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भारत में धर्म के उदय का कारण और इसके दर्शन का मूल केंद्र जीवन, प्रकृति और ब्रह्माण्ड को लेकर मानव की सहज जिज्ञासाएं हैं। विस्तारवाद और अधिपत्य स्थापित करने की भावना इसमें अन्य पश्चिमी धर्मों की अपेक्षा बहुत कम है। यही कारण है कि भारत पर आक्रमण करने धरती के दुसरे छोर सुदूर पश्चिम तक से आक्रमणकारी चले आये लेकिन हम किसी पर आक्रमण करने कभी नहीं गए। जबकि इस्लाम के दर्शन का मूल केंद्र ही विस्तारवाद और अपने अधिपत्य की स्थापना करना है। और यह ऐसा कर पाने में बहुत सफल है क्योंकि यह लगभग अपने हर अनुयायी को म्रत्यु के भय से मुक्त कर एक समर्पित सैनिक में बदल देने की क्षमता रखता है जो दिन रात इस्लाम के विस्तार और अधिपत्य की स्थापना के लिए संघर्षशील रहता है। इस्लाम के दर्शन में यह जीवन वास्तविक जीवन नहीं है, यह सिर्फ एक टेस्ट है जो की अल्पकालिक है, असली जीवन जो की अनंतकाल तक रहेगा म्रत्यु के बाद शुरू होगा। ऐसा व्यक्ति जिसका इस दर्शन में अटूट विश्वास हो कुछ भी कर गुजर सकता है। इसके साथ ही इस्लाम का संघीय ढांचा बेहद मजबूत और अभेद है और इसके भीतर बेहद कुशल संगठनात्मक योग्यताएं भी हैं। यही कारण है कि अपने उदय के बाद मात्र कुछ ही शताब्दियों में यह पश्चिम में यूरोप की सीमाओं तक और पूर्व में मध्य एशिया को पार करते हुए भारत तक में फ़ैल गया।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसलिए यदि आप धार्मिक कट्टरता को हथियार बनाकर इस्लामिक कट्टरपंथ से मुकाबला करने उतर रहे हैं तो आप भारी भूल कर रहे हैं। आप इसके सामने कहीं भी नहीं ठहरते। आपकी हार सुनिश्चित है। भले ही आप कितने ही कट्टर धार्मिक संगठन खड़े कर लें या आवाम में पूरे जोर शोर से धार्मिक कट्टरता का प्रचार कर लें फिर भी वह आपको उस उत्कृष्टता पर नहीं पहुंचा सकती कि आप कट्टर इस्लाम का मुकाबला कर सकें। क्योंकि आपके धर्म के डीएनए में ही वह चीज नहीं है। उस उत्कृष्टता पर पहुँचने के लिए आपको हिन्दू धर्म का पूरा दर्शन ही बदलना पड़ेगा। जो की असंभव के साथ साथ औचित्यहीन भी है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यूँ समझिये इस्लाम अपने कट्टरतम स्वरुप में एक चतुर और खूंखार शिकारी है, जबकि हिन्दू धर्म अपने कट्टरतम स्वरुप में मात्र एक आसान शिकार। भारत की 800 वर्ष लम्बी गुलामी और इस दौरान भी हिन्दुओं में स्वतंत्रता की जनचेतना का न पैदा हो पाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हिन्दू धर्म में वर्चस्व और अधिपत्य स्थापित करने की भावना अन्य धर्मों की अपेक्षा कितनी कम है। भारत में स्वतंत्रता की चेतना भी अंग्रेजों के आगमन के बाद अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण पैदा हुए वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का परिणाम थी। भारत के जनमानस को वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से विमुख कर धार्मिक कट्टरता की ओर मोड़ देने के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। क्योंकि कट्टरता की इस प्रतिस्पर्धा में कट्टर इस्लाम का जीतना तय है। किसी भी समाज में बढती धार्मिक कट्टरता और घटता वैज्ञानिक द्रष्टिकोण कट्टर इस्लाम के लिए शुभ संकेत है। क्योंकि यह उसको वह अनुकूल वातावरण प्रदान करता है जहाँ वह अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर अपना वर्चस्व आसानी से स्थापित कर सकता है। एक युक्ति से समझाने की कोशिश करता हूँ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मगरमच्छ पानी के भीतर एक शक्तिशाली और अपराजेय शिकारी है। आपको यदि तैरना भी ठीक से न आता हो और आप पानी में घुसकर मगरमच्छ से लड़ने की योजना बना रहे हैं तो आप आत्महत्या की तैयारी ही कर रहे हैं। पानी में मगरमच्छ को पराजित करना असंभव है। क्योंकि उसके शरीर का एक एक अंग पानी में शिकार करने के लिए ही विकसित हुआ है। पानी के भीतर वह अपने से कई गुना बड़े जानवरों को भी चित कर सकता है। इसलिए मगरमच्छ को पराजित करने के लिए पानी में घुसना बेवकूफी है। बेहतर है कि उसे पानी से निकलने पर मजबूर कीजिये और फिर जमीन पर उसे मात दीजिये। ठीक इसी तरह यदि इस्लामिक कट्टरपंथ को मात देनी है तो स्वयं कट्टरता में मत उतरिये, क्योंकि वहां आप उसे मात नहीं दे पायेंगे बल्कि उसकी राह ही आसान करेंगे। दुनिया में कट्टरपंथ का तालाब जितना बढेगा इस्लामिक कट्टरपंथ के मगरमच्छ को फलने फूलने का उतना ही अवसर मिलेगा। हमें इस तालाब के दायरे को बढाने में सहयोग नहीं देना चाहिए, बल्कि समाज में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का ज्यादा से ज्यादा प्रसार करना चाहिए। ताकि कट्टरपंथ का ये तालाब सिकुड़े और मगरमच्छ को आसानी से मारा जा सके।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसलिए यदि आप धार्मिक कट्टरता के वशीभूत होकर मुसलमानों के खिलाफ दिन रात जहर उगल रहे हैं, उनके प्रति अपनी नफरत का इजहार कर रहे हैं, उनको पीटकर या उनकी हत्या करके इस्लामिक कट्टरपंथ को पराजित करने का गर्व पाल रहे हैं तो इस मुगालते से जितना जल्द हो सके बाहर आईये। ऐसा करके आप इस्लामिक कट्टरपंथ को और ज्यादा फलने फूलने का अवसर ही प्रदान कर रहे हैं। आपकी ये हरकतें इस्लामिक कट्टरपंथियों के लिए उनके कुत्सित मंसूबों को पूरा करने की राह ही आसान कर रही हैं। ऐसा करके आप बिल्कुल वही कर रहे हैं जैसा वे चाहते हैं। वे तो चाहते ही हैं कि भारतीय समाज में हिन्दू और मुस्लिमों की बीच वैमनस्य बढ़े। ताकि वे बदले की भावना से भरे ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी विचारधारा की ओर आकर्षित कर सकें। जब कोई पहलू खान पीट पीटकर मार दिया जाता है या फिर कोई शम्भू किसी अफराजुल शेख की निर्ममता से हत्या कर देता है और फिर उसके समर्थन में तमाम हिन्दू संगठन सड़कों पर उतर पड़ते हैं। उसको आर्थिक सहायता पहुँचाने के लिए बाकायदा कैम्पेन चलाये जाते हैं तो ये बहुत खतरनाक स्थिति है। क्योंकि उससे पैदा हुए क्रोध, भय और असुरक्षा के कारण कट्टरपंथियों के लिए कुछ और मुसलमानों को गंगा जमुनी तहजीब से विमुख कर कट्टरता की ओर मोड़ देना बहुत आसान हो जाता है। आतंकवादियों को ऐसी ही घटनाओं का हवाला देकर जेहाद के लिए तैयार किया जाता है। इस तरह आप अपने घर में ही दुश्मन पैदा कर लेते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आपको याद रखना चाहिए आपकी लड़ाई इस्लामिक कट्टरपंथ से है मुसलमानों से नहीं। यदि आप इन दोनों में फर्क नहीं कर पा रहे हैं और दोनों को एक ही तराजू में तोल रहे हैं तो आप भारी भूल कर रहे हैं। इस भूल की भरपाई आपको भविष्य में भीषण गृहयुद्ध के रूप में करनी पड़ सकती है। जिसमें न केवल जानो माल की भारी क्षति होगी बल्कि देश का विकास बुरी तरह प्रभावित होगा और देश कई दशक पीछे चला जायेगा। हो सकता है इस कारण से देश को एक और विभाजन झेलना पड़ जाए। क्योंकि मुस्लिम समुदाय संख्या के लिहाज से देश का दुसरे नम्बर का समुदाय है। जब आप मुस्लिम समुदाय की बात करते हैं तो आप 18 करोड़ लोगों की बात कर रहे हैं। यदि आप सोचते हैं कि वे सभी इस देश को छोड़कर कहीं और चले जायें या फिर वे सभी घरवापसी करके हिन्दू बन जायें तो ये असंभव बात है। दोनों समुदाय आपस में समन्वय से रहें ऐसा ही कोई मार्ग निकालना होगा। यही देश हित में है। धार्मिक और राजनितिक ताकतें अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए आपको लगातार जिस राह पर चलने के लिए उकसा रही हैं वह राह सिर्फ और सिर्फ बर्बादी की ओर जाती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस्लामिक कट्टरपंथ से निपटने के लिए आपको हिन्दू कट्टरपंथ की शरण में जाने, मुसलमानों के प्रति घ्रणा पालने और उनसे दो दो हाथ करने की जरुरत नहीं है। इससे निपटने का एक ही तरीका है कि समाज में ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का प्रसार किया जाए, समाज को धार्मिक कूपमंडूकता से मुक्त कर स्वतंत्र सोच को विकसित होने का अवसर प्रदान किया जाये। क्योंकि यही वे चीजें हैं जिससे इस्लामिक कट्टरपंथियों को सबसे ज्यादा तकलीफ होती है। क्योंकि यही इनकी सत्ता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। इनका बस चले तो दुनिया से सारा ज्ञान विज्ञान नष्ट करके इसे वापस मध्य युग में पहुंचा दें। आज दुनिया में बढती आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के कारण इनके पेटों में मरोड़ें उठती हैं। क्योंकि आधुनिक शिक्षा और मोबाइल इन्टरनेट के कारण ज्ञान तक बढती पहुँच के कारण बहुत से मुस्लिम कट्टरता को त्याग रहे हैं। आज मुस्लिमों में बढती नास्तिकता इनकी चिंता का मुख्य केंद्रबिंदु है। इसलिए ये हमेशा आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हैं। निर्मम हत्याओं के लिए कुख्यात आतंकवादी संगठन बोको हराम की आधारशिला आधुनिक शिक्षा के विरोध पर रखी है। बोको हराम का अर्थ ही है पश्चिमी शिक्षा हराम है। आज के दौर में यदि कोई चीज इनको सबसे ज्यादा खौफजदा कर रही है तो वह यही है जिसको रोकने के लिए ये अपनी ओर से भरसक प्रयास कर रहे हैं। इसलिए यदि आप वास्तव में इस्लामिक कट्टरपंथ को परास्त करने के लिए गंभीर हैं तो हमें उन सभी मोर्चों पर काम करना होगा जिससे समाज में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण बढ़े।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सबसे पहला काम तो शिक्षा के मोर्चे पर करने की जरूरत है। हमें सरकार पर दवाब बनाना चाहिए कि वह देश में सभी को गुणवत्ता युक्त शिक्षा उपलब्ध कराना सुनिश्चित करे। शिक्षा के पाठ्यक्रमों में व्यापक बदलाव हो ताकि समाज में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण को बढाया जा सके। साथ ही हमें एकजुट होकर सरकार से मांग करनी चाहिए कि वह बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने वाले सभी धार्मिक शिक्षण संस्थानों ‘फिर चाहे वे मदरसे हों या आश्रम’ पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगाये। बच्चे किसी धर्म विशेष की बपौती नहीं हैं, बच्चे राष्ट्र की संपत्ति और देश का भविष्य हैं। इसलिए आधुनिक गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर सभी बच्चों का हक है जो उनको हर हाल में मिलनी ही चाहिए। धार्मिक शिक्षा लेने न लेने का निर्णय वे बालिग होने पर कर सकते हैं।</div>
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दूसरा काम जिसके लिए जोर शोर से प्रयास किया जाना चाहिए वह है देश में सभी धार्मिक कानूनों को समाप्त करके एक समान नागरिक संहिता की स्थापना। धार्मिक कानूनों के कारण समाज में धर्म के ठेकेदारों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हो गए हैं जिसकी आड़ में वे न केवल समाज का शोषण करते हैं बल्कि लोगों को डरा धमकाकर धार्मिक नियमों को मानने के लिए बाध्य करते हैं। नागरिक कानूनों में धर्म का बिल्कुल भी दखल नहीं होना चाहिए। देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।</div>
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तीसरा काम सार्वजानिक रूप से किये जाने वाले किसी भी तरह के धार्मिक प्रचार पर रोक। किसी को भी सार्वजानिक रूप से धार्मिक प्रचार अथवा वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के विरुद्ध किसी भी बात का प्रचार करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। सार्वजानिक सभाओं के अतरिक्त संचार के सभी साधनों जैसे रेडियो, टीवी, अख़बार, पत्रिकाएं, मोबाइल इत्यादि पर ऐसा कोई भी प्रचार करना अवैध होना चाहिए। यदि किसी को धार्मिक प्रचार करना है तो वह सिर्फ व्यक्तिगत संपर्क के माध्यम से ही किया जा सके ऐसा कोई नियम बनना चाहिए।</div>
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इसके अतरिक्त सभी लोग जो वैज्ञानिक द्रष्टिकोण रखते हैं समाज में इसका ज्यादा से ज्यादा प्रसार करें और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के विरुद्ध होने वाले सभी कार्यों की कड़ी आलोचना करें तथा ऐसा करने वालों को हत्सोत्साहित करने का हर संभव प्रयास करें। इसके साथ ही समाज में दोनों समुदायों के बीच मेलजोल का प्रयास भी करना होगा। इसके लिए त्योहारों को मिलजुल कर मनाने की परम्परा के साथ साथ अंतरजातीय विवाहों को बढ़ावा देना भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ये कुछ सुझाव हैं जो मेरी समझ में आते हैं जिनसे हम न केवल इस्लामिक कट्टरपंथ से बेहतर ढंग से निपट सकते हैं बल्कि अपने समाज को भी एक बेहतर प्रगतिशील समाज बना सकते हैं। इनके अतरिक्त भी और बहुत से सुझाव ऐसे हो सकते हैं जो अपनाये जा सकते हैं। यदि आपके पास भी कोई ऐसा सुझाव या विचार है तो आप कमेंट में सुझा सकते हैं।</div>
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यदि आप अति धार्मिक हैं तो हो सकता है ये सुझाव आपको समझ न आयें। लेकिन इस मामले में आप चाहें तो पश्चिम से सीख सकते हैं। उन्होंने इस्लामिक कट्टरपंथ से निपटने के लिए वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का दामन नहीं छोड़ा, न ही धार्मिक कट्टरता को अपनाया। और आज वही हैं जो न केवल इसका मुकम्मल इलाज कर रहे हैं बल्कि अपनी सूझ बूझ से इसको अपने फायदे के लिए इस्तेमाल भी कर रहे हैं।</div>
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Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-78770884583812167072018-09-18T16:39:00.000+05:302018-09-18T16:39:19.045+05:30बुद्धत्व vs चूतियत्व <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
मानव जीवन के दो ऐसे छोर हैं जहां पहुंचकर व्यक्ति सभी दुखों से मुक्त होकर परम शांति, परम आनंद को उपलब्ध हो सकता है। एक छोर है "बुद्धत्व" और दूसरा "चूतियत्व"</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बुद्धत्व वह छोर है जहां व्यक्ति को सारा जीवन प्रपंच समझ आ जाये। उसकी समझ इतनी विकसित हो जाए कि वह जीवन की समस्याओं से आन्तरिक तौर पर प्रभावित हुए बिना उनके युक्तिपूर्ण हल को खोजकर उनके निवारण समेत अपने समस्त जीवन कर्तव्यों में निष्काम भाव से लगा रहे। वहीं चूतियत्व वह छोर है जहां व्यक्ति सभी जीवन प्रपंचों और समस्याओं से यू<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;">ँ बेखबर होकर मस्त हो जाए जैसे मानो वो हों ही न।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
सरल शब्दों में कहें तो बुद्धत्व जहाँ समझदानी का चरम विकास है वहीं चूतियत्व समझदानी की नसबंदी। यह भारत की पुन्य भूमि का प्रताप ही है कि यहाँ पैदा हुए महापुरुषों ने जीवन के दोनों छोरों पर झंडे गाड़े हैं। बुद्धत्व के छोर पर पहुँचने वाले भले ही गिनती के हों लेकिन चूतियत्व के मामले में तो हम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं। शायद यहाँ की आबो हवा में ही कुछ ऐसे दिव्य तत्व हैं कि यहाँ की लगभग आधे से अधिक जनसँख्या बिना किसी विशेष प्रयास के सहज ही चूतियत्व को उपलब्ध है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मतलब आधी से अधिक जनसँख्या ऐसी खुमारी में जी रही है जो ठन्डे पानी की बाल्टियाँ उड़ेलने से भी नहीं जाती। वे वास्तविक समस्याओं को नजरंदाज कर ऐसी उठापटक में व्यस्त रहते हैं जिससे उनके और उनकी आगामी पीढ़ियों के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव आने की आशा नहीं है। उनको जगाने के सभी प्रयास निष्फल हो चुके हैं। जैसे कोई शराबी नाली में पड़ा लोट रहा हो और जिसका मुहँ श्वान चाट रहे हों, लेकिन वह इस सब से बेखबर अपने स्वप्नलोक में अप्सराओं का चुम्बन कर रहा हो। हालाँकि शराबी का नशा उतरने के बाद उसे होश आ जाता है और वह जो हुआ उस पर लज्जित भी होता है। लेकिन चूतियत्व को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में यह क्षण कभी नहीं आता। क्योंकि उसका तो पूरा जीवन ही खुमारी में बीत जाता है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बाहर से सैलानी जब भारत भ्रमण पर आते हैं तो वह बात जो उन्हें सबसे ज्यादा आश्चर्य से भर देती है वह ये कि ऐसी नारकीय स्थितियों में गुजर बसर करने के बाद भी ये लोग इतने खुश कैसे हैं? वे लोग इसे भारतीय संस्कृति में निहित योग और अध्यात्म का प्रभाव मानते हैं। विदेशी सैलानी ऐसा समझते हैं कि योग और अध्यात्म के प्रभाव से यहाँ के लोग करीब करीब बुद्धत्व को उपलब्ध हो चुके हैं। यही कारण है कि ये लोग इतनी चरम स्थितियों में रहने के बावजूद इतने प्रसन्न हैं। और ऐसा समझ वे बेचारे भी किसी गुरु की खोज में निकल जाते हैं। ऋषिकेश, हरिद्वार, काशी और न जाने कहाँ कहाँ भटकते फिरते हैं। जबकि वे नहीं जानते कि जन्हें वे बुद्धत्व को उपलब्ध समझ रहे हैं वे असल में चूतियत्वधारी हैं।</div>
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Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-70033757016886124122018-09-18T16:35:00.000+05:302018-09-18T16:35:22.460+05:30भारत में पाँव पसारता अन्धविश्वास और बाबावाद <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
यदि किसी समाज का आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत बौद्धिक विकास न हो तो वह समाज अंधविश्वासों में और भी गहरे धंसता चला जाता है। फिर उस समाज में लोगों के अंधविश्वास का फायदा उठाकर अपना घर भरने वाले परजीवियों का साम्राज्य विकसित होने लगता है। भारत के मामले में यही हुआ है। 90 के दशक में उदारीकरण के बाद मध्यम वर्ग के लोगों के जीवन स्तर में तेजी से सुधार हुआ। इससे पहले जहाँ टीवी, फ्रिज और स्कूटर जैसे सुख साधन कुछ खास लोगों की पहुंच में ही हुआ करते थे, फिर ये आम लोगों की पहुंच में भी आने लगे। जब लोगों की आमदनी बढ़ी तो उसके साथ ही बाजार भी तरह तरह के उत्पादों से पट गया। फिर स्वयं को एक दुसरे से श्रेष्ठ और साधन संपन्न दिखाने की होड़ शुरू हुयी।</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioPL6ieOi_cMt3urcoUxBUyRNXil5v8MNYG8UZk8PlTTg-YULNNsGkGqd_6gz1B2od8OJhC71s-D7m4zo2d_DNIOo4y_qTmrPyl6-u7_x_9zp20JtOdST0zHDakRqn___SqDU4RmRkQXRL/s1600/24_08_2017-babas.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="650" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioPL6ieOi_cMt3urcoUxBUyRNXil5v8MNYG8UZk8PlTTg-YULNNsGkGqd_6gz1B2od8OJhC71s-D7m4zo2d_DNIOo4y_qTmrPyl6-u7_x_9zp20JtOdST0zHDakRqn___SqDU4RmRkQXRL/s320/24_08_2017-babas.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस होड़ ने मध्यम वर्ग की शांत जिन्दगी में खलबली मचा दी। एक दौड़ शुरू हो गई जिसमें सबको आगे निकलना था। महत्वकांक्षाओं से संचालित इस दौड़ ने लोगों के मन में भय, असुरक्षा और लालच को जन्म दिया। लालच से भरे डरे हुए लोग परजीवियों के लिए एक आसान शिकार थे। और इस शिकार के लिए उन्हें कोई विशेष प्रयास की आवश्यक्ता भी नहीं थी। उन्हें तो बस अपना मुहँ खोलकर बैठ जाना था, क्योंकि शिकार तो खुद ब खुद चलकर उनके पास आ रहा था।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस दौरान लोगों द्वारा धार्मिक कार्यों में किया जाने वाला खर्च अचानक ही बहुत बढ़ गया। पहले जहाँ धार्मिक आयोजन के नाम पर बस सत्यनारायण की कथा हुआ करती थी अब माता के जागरण जैसे भव्य आयोजन होने लगे। ऐसे आयोजनों ने लोगों को अपनी संपन्नता और धार्मिकता के प्रदर्शन का अवसर तो मुहैया कराया ही इनके साथ साथ दैवीय कृपा प्राप्त कर लेने का आश्वासन भी दिया। देखते ही देखते देश भर में जागरण पार्टियों की बाढ़ आ गई। इसके साथ ही धार्मिक पर्यटन और मंदिरों की आय में भी भारी वृद्धि हुयी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इससे पहले जहाँ लोग जीवन में एक बार तीर्थ यात्रा संपन कर लेने को उपलब्धि मानते थे वहीँ अब पिकनिक की तरह तीर्थ यात्राएं होने लगीं। यहाँ तक की बद्रीनाथ केदारनाथ और अमरनाथ जैसे दुर्गम तीर्थ स्थलों पर भी लोग हर वर्ष हाजिरी देने जाने लगे। जो थोड़े कम साहसी थे उन्होंने अपने आस पास ही किसी धर्मस्थल को चुन लिया जहाँ वे नियमित अन्तराल पर हाजिरी लगाने जाने लगे। जैसे मथुरा वृन्दावन में हर सप्ताहांत पर आस पास की जगहों से लोग पहुँच जाते हैं। इनमें सबसे ज्यादा संख्या दिल्ली एनसीआर के संपन्न लोगों की होती है। इनमें से कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो हर सप्ताह दिल्ली से बिना नागा हाजिरी देने पहुँच जाते हैं। विशेष अवसरों पर तो यहाँ इतनी भीड़ जुटती है कि व्यवस्था चरमरा जाती है। तीर्थयात्रियों की बढती भीड़ को भुनाने के लिए पिछले कुछ वर्षों के दौरान यहाँ कई भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसके साथ ही कथावाचकों और प्रवचनकर्ताओं का धंधा भी चल निकला। कथावाचकों के पंडालों में भीड़ उमड़ने लगी। आसाराम तथा उस जैसे कई अन्य कथावाचकों ने इस अवसर का जमकर लाभ उठाया और स्वयं को एक ब्रांड की तरह धर्म और अध्यात्म के बाजार में स्थापित कर लिया। उनके अनुयायियों की भारी भीड़ ने उनको शोहरत और राजनीतिक ताकत के साथ साथ ढेर सारा धन भी दिया। इस धन का उपयोग उन्होंने अपने प्रचार के लिए किया और इसके जरिये प्रचार के सबसे सशक्त माध्यम टीवी तक अपनी पहुँच बना ली। अब इनके प्रोग्राम टीवी पर प्रसारित होने लगे। लगभग सभी मुख्य चैनलों पर सुबह का स्लॉट इनके लिए बुक हो गया। टीवी पर आना इनके लिए बहुत फायदे का सौदा साबित हुआ। टीवी के जरिये इन्होने घर घर तक अपनी पहुँच बना ली और इनके अनुयायियों की संख्या और साथ ही लाभ में भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ोतरी हुई। इसने मिडिया जगत में कुछ लोगों के कान भी खड़े कर दिए। वे भी इस धर्म और अध्यात्म की बहती गंगा में लाभ की संभावनाएं तलाशने लगे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मुंबई में एक प्रोडक्शन हाउस चला रहे भूतपूर्व पत्रकार माधव कान्त मिश्रा ने इस सम्भावना को सबसे पहले पहचाना और सन 2000 में उन्होंने आस्था नामक चैनल को लांच कर दिया। इस चैनल ने जनता तक अपनी पहुँच बनाने के लिए बेताब बहुत से गुरुओं और कथावाचकों के लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए। शुरू में इस चैनल पर प्रसारित होने वाली सामग्री के लिए कोई कीमत नहीं वसूली जाती थी। लेकिन बढती मांग ने इसको ज्यादा दिन फ्री नहीं रहने दिया। क्योंकि ऐसे बाबाओं और गुरुओं की कोई कमी नहीं थी जो खुद को टीवी पर दिखाने के लिए अच्छी खासी कीमत देने को तैयार थे। इस बढती मांग को भुनाने के लिए धडाधड धार्मिक चैनल लांच होने लगे। इन चैनलों में अधिकांश का स्वामित्व किसी न किसी धर्मगुरु के पास ही था। इस तरह इन चैनलों के जरिये ये दोहरा लाभ कमाने लगे। आस्था चैनल के स्वामित्व को भी बाद में बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण ने खरीद लिया। बाबा रामदेव को योगगुरु से एक सफल व्यवसायी के रूप में स्थापित करने में इस चैनल का बहुत बड़ा हाथ है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
टीवी के जरिये होने वाले प्रचार की सबसे बड़ी खासियत यह है कि आप सीधे ही लक्षित उपभोक्ताओं तक पहुँच बना सकते हैं। आज के दौर में टीवी देखने में ज्यादा समय व्यतीत करने वाले अधिकांश लोग औसत बुद्धि के ही होते हैं। उनमें भी जो लोग धार्मिक चैनलों को देखते हैं वे तो बुद्धि में औसत से भी नीचे होते हैं। ऐसे लोगों को आसानी से बुद्धू बनाया जा सकता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इन चैनलों ने किसी तरह जजमानी करके गुजारा कर रहे ज्योतिषाचार्यों को भी संभावनाओं का मार्ग दिखाया। जीवन की दौड़ में आगे निकलने को लालायित और जीवन की अनिश्चितताओं से डरे हुए लोग अपना भविष्य जान लेने को आतुर थे। वो वह हर संभव तरकीब आजमा लेना चाहते थे जिससे वे किसी तरह सम्रद्धि हासिल कर सकें और जीवन की अनिश्चितताओं को लेकर संतुष्ट हो सकें। ऐसे लोगों का दोहन करने के लिए ज्योत्षी, वास्तुशास्त्री, हस्तरेखा विशेषज्ञ, तांत्रिक, टैरो कार्ड रीडर जैसे परजीवी तैयार बैठे थे। टीवी ने इनको अपने प्रचार का मंच उपलब्ध करा ही दिया था। कुछ ही समय में धार्मिक चैनलों पर ज्योतिष के प्रोग्रामों की लाइन लग गई। फुटपाथ पर बिकने वाली ज्योतिष की चार किताबें पढकर अपनी वाकपटुता और लोगों के ठगने के टैलेंट में निपुण लोग टीवी पर ख़रीदे हुए स्लॉट के जरिये प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य बन गए।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
टीवी के जरिये ज्योतिष का इतना अंधाधुंध प्रचार हुआ कि लोग हर छोटी बड़ी बात के लिए ज्योत्षियों के पास भागने लगे। नयी कार निकालने से लेकर बच्चे के जन्म का मुहूर्त भी ज्योतिष के आधार पर निर्धारित किया जाने लगा। लोग अपने घर का नक्शा बनवाने के लिए आर्किटेक्ट के बजाये वास्तुशास्त्रियों को महत्व देने लगे और जिनके घर बन चुके थे वे अपने घर को वास्तु के अनुसार तोड़फोड़ कर ठीक कराने लगे। अब लगभग सभी लोगों के हाथों में जेमस्टोन और गले में तरह तरह के लॉकेट दिखाई देने लगे। ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए लोग ज्योत्षियों की सलाह पर महंगे महंगे पूजा-पाठ, मन्त्र जाप और हवन इत्यादि करवाने लगे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ये चैनल ठगों के लिए इतना उपयोगी माध्यम साबित हुए की कल तक अख़बारों के क्लासिफाइड, बसों, ट्रेनों और सार्वजानिक शौचालयों में पर्चे चिपकाकर अपना प्रचार करने वाले बाबा बंगाली भी टीवी पर अपनी दुकान खोलकर बैठ गए। फिर समोसे को लाल हरी चटनी से खाने पर भी कृपा आने लगी। बस स्टैंड के पीछे, पीपल के पेड़ के नीचे मर्दाना कमजोरी का इलाज करने वाले हकीम जी भी टीवी पर पहुँच गए। मोटापा, डायबिटीज, कैन्सर, माइग्रेन, अस्थमा जैसी बिमारियों के लिए प्राकृतिक चिकित्सा के नाम पर तरह तरह के उत्पाद बेचे जाने लगे। जिन लोगों ने कभी कॉलेज का मुहँ भी नहीं देखा वे भी टीवी पर डॉ साहब, वैध जी, हकीम जी के नाम से प्रसिद्ध हो गए।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
बरहाल ये दौर अभी भी जारी है और निकट भविष्य में भी इसमें किसी बड़े बदलाव के आसार फ़िलहाल दिखाई नहीं दे रहे हैं। अन्धविश्वास का जहर आज भी लगातार विभिन्न माध्यमों से समाज में फैलाया जा रहा है। भारत में तेजी से पैर पसारते बाबावाद के पीछे यही प्रचार जिम्मेदार है जिसका पैसा आता तो अमीरों की जेब से है, लेकिन इससे सबसे ज्यादा नुकसान निम्न वर्ग के लोगों का हुआ है। क्योंकि रईस लोगों ने तो केवल अपना थोड़ा सा धन खोया, लेकिन वे गरीब लोग जो किसी तरह कठिनाईयों में अपना जीवनयापन कर रहे हैं अपना सब कुछ लुटा बैठे। जिन बाबाओं और गुरुओं को वे ईश्वर के समकक्ष मान कर अपने उद्धार की आशा कर रहे थे उन्होंने न केवल उन्हें मानसिक और आर्थिक रूप से ठगा बल्कि उनकी बहन बेटियों की इज्जत भी तार-तार कर डाली।</div>
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Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-78208861294323605272018-09-18T16:28:00.000+05:302018-09-18T16:28:23.284+05:30पीपल और प्रचलित भ्रांतियां <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
हिन्दू आस्था में पीपल के पेड़ को पूजनीय माने जाने पर कुछ लोग तर्क देते हैं कि पीपल ही एकमात्र ऐसा पेड़ है जो रात में भी ऑक्सीजन देता है। क्या वास्तव में ऐसा है?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
सबसे पहले तो पेड़-पौधों द्वारा ऑक्सीजन के उत्सर्जन की प्रक्रिया को समझना होगा। जैसा की आप जानते हैं कि पेड़ पौधे फोटोसिंथेसिस क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं जिसमें वे सूर्य की रोशनी में co2 का प्रयोग कर भोजन तैयार करते हैं। इस क्रिया में ऑक्सिजन मुक्त होती है और उर्जा ग्लूकोस के रूप में संचित हो जाती है। इसके साथ ही जब<span class="text_exposed_show" style="display: inline; font-family: inherit;"> पेड़-पौधे इस संचित उर्जा का उपयोग अपनी जैविक क्रियाओं के लिए करते हैं तो इसमें CO2 मुक्त होती है। इस क्रिया को respiration कहा जाता है। अतः पौधे अपनी जैविक क्रियाओं के द्वारा ऑक्सीजन और CO2 दोनों मुक्त करते हैं।</span></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px;">
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px;">
अधिकांश पेड़-पौधों में हर समय गैसों का आदान प्रदान चलता रहता है। दिन में चूँकि फोटोसिन्थेसिस क्रिया होती है इसलिए दिन के समय ऑक्सीजन का उत्सर्जन प्रमुखता से होता है। रात्रि में फोटोसिन्थेसिस क्रिया न होने के कारण CO2 का उत्सर्जन अधिक होता है। ये फोटोसिन्थेसिस की आम क्रिया है जो अधिकतर पेड़-पौधों में सम्पन्न होती है। वैज्ञनिक भाषा में इसे C3 और C4 टाइप फोटोसिन्थेसिस कहा जाता है, जिसमें C3 अधिक कॉमन है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
लेकिन इन दो प्रकार की फोटोसिन्थेसिस क्रियाओं के अलावा एक तीसरे प्रकार की फोटोसिन्थेसिस क्रिया भी होती है जो कुछ मरुस्थलीय, परजीवी और परोपजीवी पौधों में सम्पन्न होती है, जिसे CAM (Crassulacean acid metabolism) कहते हैं।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
C3 और C4 जहाँ केवल दिन के दौरान सम्पन्न होती है वहीँ CAM में दिन के साथ साथ रात का भी उपयोग होता है। CAM क्रिया में पौधे भोजन बनाने का अंतिम चरण रात को सम्पन्न करते हैं। इसमें वे दिन में अपने रंध्र छिद्रों को बंद रखते हैं और केवल रात को ही उन्हें खोलते हैं इससे उन्हें सूर्य की गर्मी द्वारा जल वाष्पोत्सर्जीत होने से बचाने में मदद मिलती है। रंध्र छिद्र रात को खोलने के कारण गैसों का आदान प्रदान भी रात्रि के दौरान ही होता है। तो CAM का उपयोग करने वाले पौधे रात को भी ऑक्सीजन मुक्त कर सकते हैं।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पीपल चूंकि एक परोपजीवी, अधिपादप है जो किसी दूसरे पेड़ पर उगता है। इसलिए ये भी CAM क्रिया का प्रयोग करता है। लेकिन केवल तब तक जब तक यह अधिपादप रहता है। जब यह एक बार स्वयं को मिट्टी में स्थापित कर लेता है तो ये क्रिया बन्द हो जाती है और ये भी आम पेड़-पौधों की तरह C3 क्रिया पर आ जाता है।</div>
<div style="font-family: inherit; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
तो इससे तीन बातें साफ़ होती हैं।<br />1. पीपल रात को ऑक्सीजन देने वाला एकमात्र पौधा नहीं है।<br />2. पीपल केवल तब तक रात को ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है जब तक यह अधिपादप रहता है।<br />3. रात को ऑक्सीजन उत्सर्जित करने वाले पौधे ज्यादा ऑक्सीजन का उत्पादन नहीं करते बल्कि वे जो ऑक्सीजन दिन में उत्सर्जित होनी थी उसी को रात को उत्सर्जित करते हैं।</div>
</div>
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Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-2335304952901501832018-09-18T16:18:00.000+05:302018-09-18T16:18:33.661+05:30गांजा दर्शन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
दुनिया में विभिन्न तरह की दर्शन परंपराएं रही हैं। एक गुरुजी थे जो एक प्राचीन दर्शन परंपरा के वाहक थे। उनकी दर्शन परम्परा के अनुसार हिमालय पर्वत पर एक स्थान पर स्थित अंधेरी गुफाओं में एक रहस्यमय काली बिल्ली रहती है। जो उस बिल्ली के दर्शन पा ले वह भव बंधनों से मुक्त होकर सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है। उन गुरुजी के सैकड़ों अनुयायी थे जो गुरुजी के निर्देशन में रात दिन उन अंधेरी गुफाओं में काली बिल्ली को खोजते रहते थे। लेकिन दुर्भाग्य से आज तक न तो गुरूजी को और न ही उनके किसी अनुयायी को उस काली बिल्ली के दर्शन हुए थे। लेकिन फिर भी उनका अटूट विश्वास था कि वह काली बिल्ली वहीं है और कभी न कभी वे उसे खोज ही लेंगे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उनके इस अटूट विश्वास का कारण थे वे प्राचीन ग्रंथ जिसमें कुछ प्राचीन ऋषियों ने अपने अनुभवों का संकलन किया था। जिसमें उन्होंने उस काली बिल्ली के साक्षात्कार का दावा किया था। हालाँकि आज तक किसी के द्वारा उस बिल्ली के साक्षात्कार किये जाने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं था लेकिन फिर भी उनकी उस प्राचीन ग्रन्थ और उन प्राचीन ऋषियों पर अटूट आस्था थी। उस काली बिल्ली को न खोज पाने का दोष वे अपनी अक्षमता को ही देते थे। यही नहीं उन्होंने अपनी दार्शनिक मान्यताओं के पक्ष में बड़े बड़े तर्कसंग्रह भी लिख रखे थे जिसमें उन्होंने तर्कों के द्वारा ये सिद्ध किया था कि उस काली बिल्ली का अस्तित्व है और वह उन अँधेरी गुफाओं में ही रहती है। उनके तर्क गजब के थे। वे किसी को भी अपने तर्कों से निरुत्तर करने की क्षमता रखते थे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक बार एक खोजी पत्रकार जो स्वभाव से संदेहवादी था उन गुरूजी के आश्रम उनकी दर्शन परम्परा को जानने के उद्देश से पहुंचा। जो पहली चीज जो उसने वहां नोटिस की वह ये कि उनके सभी अनुयायी आज भी उन सदियों पुराने तरीकों से ही बिल्ली की खोज कर रहे थे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने गुरूजी से पुछा, “गुरूजी कृपया मुझे ये बताइए जब आज वैज्ञानिक प्रगति के कारण तमाम ऐसे साधन उपलब्ध हैं जो आपकी खोज में सहायक हो सकते हैं तो आप लोग उनका उपयोग क्यों नहीं करते? आज भी आप इन अँधेरी गुफाओं को हाथों से टटोलकर बिल्ली की खोज कर रहे हैं जबकि आज हमारे पास सर्चलाइट, रात्रि में देखने में सक्षम नाईटविजन कैमरे और तापमान के बदलाव को पकड़ने वाले थर्मल कैमरे समेत तमाम साधन मौजूद हैं जो घुप्प अँधेरे में एक पतंगे की हलचल को भी पकड़ने में सक्षम हैं तो बिल्ली तो चुटकियों में पकड़ में आ जाएगी। आखिर क्या कारण है इन आधुनिक वैज्ञानिक साधनों का उपयोग न करने का?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गुरूजी: हम इन साधनों को आजमा चुके हैं, ये बेकार हैं और हमारे किसी काम के नहीं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पत्रकार: आजमा चुके हैं मतलब? कब? कैसे?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गुरूजी: अभी कुछ समय पहले एक वैज्ञानिक दल सभी उपकरणों के साथ आया था। वे कई दिनों तक अपने उपकरणों के द्वारा उस बिल्ली को खोजते रहे लेकिन उनको कोई बिल्ली नहीं मिली।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पत्रकार: यदि आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण उस बिल्ली को नहीं खोज सके तो निश्चित ही वहां कोई बिल्ली नहीं है। यदि होती तो वह निश्चित ही पकड़ में आ जाती।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गुरूजी: वह बिल्ली कोई साधारण बिल्ली नहीं है जिसको इन उपकरणों से खोजा जा सके। विज्ञान अभी बच्चा है। उसको अभी बहुत कुछ सीखना है। ये भावनाओं की बात है, अनुभूति की बात है विज्ञान इसको नहीं समझ सकता।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पत्रकार: लेकिन आपके पास उस बिल्ली के होने का कोई प्रमाण भी तो मौजूद नहीं है। न ही आज तक किसी वैज्ञानिक खोज में उसके होने की पुष्टि हुयी फिर आप दावे के साथ कैसे कह सकते हैं कि वहां कोई बिल्ली है?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गुरूजी: क्या किसी के पास बिल्ली न होने का प्रमाण है? वैज्ञानिक खोजों की बात मत करना वो अपूर्ण हैं उनको हम नहीं मानते।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पत्रकार: लेकिन वहां बिल्ली होने का दावा तो आप ही कर रहे हैं तो ये आपकी ही जिम्मेदारी है कि आप उसके होने का प्रमाण दें।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गुरूजी: हमारे पास प्रमाण है। हमारे शास्त्र ही उसके होने का प्रमाण हैं। जिन ऋषियों ने उसका साक्षात्कार किया उनके अनुभव इन शास्त्रों में संकलित हैं और वो हमारे लिए सब प्रमाणों से बढ़कर हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पत्रकार: ये शास्त्र सदियों पुराने हैं जब की खोज के साधन सीमित थे, इस दुनिया के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम थी और विज्ञान अपनी शैशवावस्था में था। आज जब हमारे पास आधुनिक खोजों के रूप में ज्ञान का विशाल भंडार मौजूद है तो हमें अपनी ख़ोज में उनका उपयोग करना चाहिए। इसके द्वारा हम बेहतर निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं। सम्भव है कि उन ऋषियों ने भूलवश अँधेरे में किसी चट्टान को ही काली बिल्ली समझ लिया हो। या फिर हो सकता है जब उन ऋषियों ने जब उसका साक्षात्कार किया हो तब वहां कोई बिल्ली रही हो, जो अब वहां नहीं है। हालाँकि सदियों पहले सीमित साधनों के जरिये उन्होंने इन गुफाओं को खोजा यह भी अपने आप में एक उपलब्धि है, लेकिन इन निष्कर्षों को अंतिम नहीं माना जा सकता। और फिर भला किसी के व्यक्तिगत अनुभवों को प्रमाण कैसे माना जा सकता है?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गुरूजी(आवाज में तल्खी के साथ): देखो! तुम अब अपनी सीमा लाँघ रहे हो। हमारे शास्त्रों और ऋषियों पर ऊँगली उठाते हो! चार किताबें क्या पढ़ लीं अपनी परम्पराओं पर ही उँगलियाँ उठाने लगे। अपनी ही जड़ों को खोदते तुम्हें शर्म नहीं आती। तुम जैसे मैकाले पुत्रों की वजह से भारत की आज ये दुर्दशा है।<br />(गुरूजी ने पास में बैठे अपने चेले को हाथ के इशारे से चिलम तैयार करने को कहा)<br />चलो अब निकलो यहाँ से हमारे ध्यान का समय हो रहा है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
और वह पत्रकार उन गुरूजी की कूपमंडूकता से व्यथित होकर वहां से उठकर चल दिया। उसके जाते ही गुरूजी ने उच्च गुणवत्ता युक्त गांजे से तैयार की गई चिलम से एक कश खींचा और अपने मुहं और नथुनों से धीरे धीरे धुआं छोड़ते हुए अधखुली आँखों से दर्शन की गहराईयों में उतरने लगे।</div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-15424905702497061372018-09-18T16:10:00.000+05:302018-09-18T16:10:11.366+05:30आत्मा और म्रत्यु<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भारतीय समाज में और कुछ अन्य समाजों में भी ऐसी आम मान्यता है कि म्रत्यु उस अवस्था का नाम है जब आत्मा(रूह) शरीर को त्याग देती है। भारतीय समाज में ऐसा मानने की बड़ी वजह भारतीय दर्शन है जिसका कहना है की इस पंचभूत(भौतिक तत्वों) से निर्मित शरीर में एक आत्मा का वास है। जीवित प्राणियों में चेतना का कारण यह अभौतिक आत्मा ही है जो सभी जीवों में जीवनपर्यंत वास करती है। ये आत्मा नित्य और अविनाशी है जो कभी भी नष्ट नहीं होती, ये पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण करती है।</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieaAIdcYO7QeNisQtjhndYno02xRoXZwe7MfRW_92PYgrQN-d4lC11AGow9iDNS-LaP0XKqesSzKUtqPSw2oC0c0QznX-XSb3pJ0dFjLigg1C8bRdTY3mplFPDfbykZ2Gujd9WsO2E3nQJ/s1600/The-Journey-Of-Souls-101.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="357" data-original-width="700" height="163" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieaAIdcYO7QeNisQtjhndYno02xRoXZwe7MfRW_92PYgrQN-d4lC11AGow9iDNS-LaP0XKqesSzKUtqPSw2oC0c0QznX-XSb3pJ0dFjLigg1C8bRdTY3mplFPDfbykZ2Gujd9WsO2E3nQJ/s320/The-Journey-Of-Souls-101.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गीता पूरी तरह इसी दर्शन पर ही आधारित है। गीता के अनुसार.....</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।<br />तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (१३)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भावार्थ : जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। (१३)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।<br />तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२२)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भावार्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नये शरीरों को धारण करता है। (२२)</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
गीता की ही तरह अन्य ग्रंथों में भी जीवात्मा सम्बन्धी दर्शन मौजूद है। ये दर्शन हमारे समाज में इस कदर रच बस गया है कि कुछ एक को छोड़कर लगभग सभी इसको निर्विवाद रूप से सत्य मानते हैं। यहाँ तक की आत्माओं की शांति के लिए विभिन्न प्रकार के पूजा पाठ और कर्मकांड भी हमारे समाज में प्रचलित हैं। लेकिन आज तक आत्मा जैसी किसी चीज के अस्तित्व का एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका है। हालाँकि जब भी आत्मा के अस्तित्व पर सवाल उठाये जाते हैं लोग अक्सर सुनी सुनाई कुछ घटनाओं का जिक्र जरूर करते हैं। जिसमे दो घटनाएँ प्रमुख हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पहली घटना किसी ऐसे प्रयोग से सम्बंधित है जिसमे किसी वैज्ञानिक ने म्रत्यु की ओर अग्रसर एक व्यक्ति को एक शीशे के एयरटाइट चैम्बर में बंद कर दिया और जब उस व्यक्ति की म्रत्यु हुयी तो उसकी आत्मा के निकलने के कारण शीशे में दरार पड़ गयी। लगभग हम सभी ने अपने बड़ों से इस घटना के बारे में जरूर सुना होगा। मैंने भी बहुत से लोगों से इसके बारे में सुना था। लेकिन मेरे बहुत खोजने पर भी इस तरह के किसी प्रयोग के कभी आयोजित होने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
दूसरा प्रयोग थोडा मजेदार है और यह वास्तविक भी है। इसको 21 ग्राम एक्सपेरिमेंट के नाम से जाना जाता है। जिसको एक अमरीकी डॉक्टर डंकन मैकडोगल द्वारा सन 1907 में संपन्न किया गया था। जिसको उन्होंने अपनी धारणा ‘जिसका आधार था कि आत्मा में कुछ वजन होना चाहिए’ को टेस्ट करने के लिए संपन्न किया था। जिसमें उन्होंने 6 ऑब्जेक्ट पर प्रयोग किया और पाया कि एक ऑब्जेक्ट का वजन म्रत्यु के बाद 21.3 ग्राम कम हो गया था। हालाँकि डॉ डंकन स्वंय इस प्रयोग के निष्कर्षों को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थे। उनका कहना था कि इस प्रयोग को बहुत सारे ऑब्जेक्ट पर प्रयोग करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। साथ ही वैज्ञानिक बिरादरी ने भी इस प्रयोग के तरीकों पर सवाल उठाये थे और इसको एक अवैज्ञानिक प्रयोग करार दिया था। लेकिन न केवल मीडिया ने इस प्रयोग को बहुत तूल दिया बल्कि धार्मिक संस्थाओं ने भी इसको हाथों हाथ लिया और इसका खूब प्रचार किया गया कि वैज्ञानिकों ने आत्मा का भार माप लिया है। इस प्रचार का ही परिणाम है कि लोग आज भी इस पर विश्वास करते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसके साथ ही कुछ लोग पुनर्जन्म की कुछ घटनाओं को भी आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण की तरह प्रस्तुत करते हैं। हालांकि इस बारे में भी मिथ्या प्रचार बहुत अधिक है। भारत में तर्कशील संगठनों ने जितनी भी पुनर्जन्म की घटना की जाँच की सभी को फर्जी पाया। अभी तक एक भी पुनर्जन्म की घटना की वैज्ञानिक रूप से पुष्टि नहीं की जा सकी है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मेडिकल साइंस ने शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंगों और अवयवों की कार्यविधि की खोज की है लेकिन आज तक उनको आत्मा जैसी किसी चीज के होने का कोई प्रमाण नहीं मिल सका। विज्ञान के अनुसार म्रत्यु उस अवस्था का नाम है जब एक जीवित प्राणी की वो महत्वपूर्ण जैविक क्रियाएं बंद हो जाती हैं जो की उसे जीवित बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। एक प्राणी में ऐसा कई कारण से हो सकता है, जैसे बीमारी, बुढ़ापा या फिर किसी बाहरी वस्तु द्वारा किसी महत्वपूर्ण अंग को पहुंचा आघात, जिसके कारण श्वसन अथवा रक्तसंचरण तंत्र किसी तरह बाधित हो जाता है और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जैसा की आप जानते हैं कि हमारा शरीर खरबों विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बना है। जिसमें हर कोशिका को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन और महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है जिसको शरीर के कुछ अंग मिलकर अंजाम देते हैं। जिसमें ऑक्सीजन सोखने का काम फेफड़ों का है और पोषक तत्वों को सोखने का काम पाचनतंत्र का है, जिसको ह्रदय और लाखों किलोमीटर लम्बी धमनियों और शिराओं से मिलकर बना रक्तसंचरण तंत्र हमारे शरीर की हर कोशिका तक पहुंचाने का कार्य करता है। जिसके आभाव में कुछ समय में ही विभिन्न अंगों की कोशिकाएं काम करना बंद कर सकती हैं। इन अंगों में सबसे महत्वपूर्ण है मस्तिष्क जिसको निरंतर ऑक्सीजन युक्त रक्त की निर्बाध सप्लाई की जरूरत पड़ती है। जिसके किसी भी कारण से बाधित होने पर मात्र 7 सेकिंड के भीतर ही मस्तिष्क की कोशिकाएं नष्ट होनी शुरू हो जाती हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
चूँकि मस्तिष्क न केवल हमारी चेतना और बोध का कारण है बल्कि इस शरीर का नियंत्रक भी है इसलिए इसको पहुंची क्षति चेतना को सदा के लिए समाप्त कर देती है जिसको फिर पुनः नहीं पाया जा सकता। वैज्ञानिक भाषा में इसी को ब्रेन डेथ कहते हैं। चूँकि हमारे मस्तिष्क का एक हिस्सा श्वसन तंत्र को भी संचालित करता है इसलिए इसको क्षति पहुँचते है सांस लेने की स्वाभाविक प्रक्रिया रुक जाती है। पर्याप्त ऑक्सीजन न मिलने के कारण कुछ ही सेकिंड में ह्रदय भी काम करना बंद कर देता है, जिसके कारण पूरे शरीर में रक्तसंचरण ठप हो जाता है और शरीर की कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं। हालाँकि आज चिकित्सा विज्ञान में हुयी प्रगति के कारण हमने ऐसे यंत्रों को विकसित कर लिया है जिनकी सहायता से स्वाभाविक रूप सांस लेने में असमर्थ एक व्यक्ति को यंत्रों की सहायता से कृत्रिम सांस दी जा सकती है और मस्तिष्क के काम न करने की स्थिति में भी उस व्यक्ति के ह्रदय को कार्यरत रखा जा सकता है। इन यंत्रों को लाइफ सपोर्ट सिस्टम कहते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर चल रहे किसी व्यक्ति की मस्तिष्कीय गतिविधियों पर चिकित्सकों द्वारा नजर रखी जाती है और उनके पहली जैसी स्थिति में पहुँचने का इन्तजार किया जाता है। लेकिन मस्तिष्कीय गतिविधि शून्य होने पर व्यक्ति को ब्रेन डेड घोषित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में सपोर्ट सिस्टम के कारण व्यक्ति का ह्रदय तो काम कर रहा होता है लेकिन मस्तिष्क नष्ट होने के कारण अब वह पुनः कभी चेतन अवस्था में नहीं लौट सकता।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इससे यह तो सिद्ध होता है कि जीवों में चेतना का कारण मस्तिष्क ही है कोई आत्मा नहीं। मस्तिष्क के अरबों खरबों न्यूरॉन मिलकर इन्द्रियों द्वारा प्राप्त संकेतों का विश्लेषण करते हैं और उससे प्राप्त अनुभवों को याददाश्त के खजाने में संरक्षित करते जाते हैं। हम हर क्षण अपने आस पास जो अनुभव करते हैं उसके अनुभव हमारे मस्तिष्क पर अंकित होते चले जाते हैं जिससे कदम दर कदम हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता जाता है। हालाँकि जेनेटिक कारणों से भी हर व्यक्ति के पास कुछ जन्मजात योग्यताएं होती हैं वे भी उसके व्यक्तित्व को निर्मित करने में मदद करती हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसी तरह शरीर के हर अंग की कार्यविधि के बारे में वैज्ञानिकों ने पता लगाया है और उनकी सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर जाकर व्याख्या भी की है, लेकिन किसी भी अंग की कार्यप्रणाली में आत्मा जैसी किसी चीज का कोई रोल सामने नहीं आया। पहले लोगों की मान्यता थी की आत्मा ह्रदय में वास करती है। इसीलिए जब वैज्ञानिक ह्रदय प्रत्यारोपण(Heart Transplant) पर प्रयोग कर रहे थे तो कहा जाता था कि ये असंभव है। ऐसा कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन वैज्ञानिकों ने इसको संभव कर दिखाया और आज दुनिया भर में हर वर्ष हजारों ह्रदय सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किये जाते हैं जिसमें से अकेले अमेरिका में ही लगभग 5 हजार ह्रदय हर वर्ष प्रत्यारोपित होते हैं। इसी तरह शरीर के अन्य अंगों को भी सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया जा रहा है। यहाँ तक की वैज्ञानिक अब एक कदम और बढ़कर सर के प्रत्यारोपण(Head Transplant) पर भी विचार कर रहे हैं। जी हाँ आपने सही सुना “सर” “Head”। और यदि सब कुछ ठीक रहा तो हम जल्द ही इस अद्भुत सर्जरी के साक्षी होने वाले हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इटली के एक तंत्रिका विज्ञानी(neuroscientist) डॉ सेर्गियो कैनावेरो ने 2018 में एक मानव सर प्रत्यारोपण को अंजाम देने की घोषणा की है। उनको इसके लिए एक वालंटियर भी मिल गया है जो कि एक चीन में है। उसकी पहचान गुप्त रखी गयी है। इस ऑपरेशन को वे एक अन्य चाइनीज तंत्रिका विज्ञानी के साथ मिलकर चीन में ही अंजाम देंगे। जिसमें उस व्यक्ति के सर को एक ब्रेन डेड डोनर की बॉडी पर प्रत्यारोपित कर दिया जायेगा। डॉ कैनावेरो इस सर्जरी की सफलता को लेकर बहुत आश्वस्त हैं। उनका कहना है कि इस सर्जरी को अंजाम देने के बाद एक माह तक मरीज को चिकित्सीय कोमा की स्थिति में रखा जाएगा। जिसके बाद वह सामान्य रूप से होश में आ जायेगा और शरीर के सभी अंगों को हिला डुला सकेगा। हालांकि नए धड़ पर इच्छानुसार नियंत्रण स्थापित करना अभी संभव नहीं होगा क्योंकि मस्तिष्क को नए धड़ के साथ सामंजस्य बिठाने में समय लगेगा। लेकिन निरंतर अभ्यास के बाद वह एक वर्ष के भीतर ही सामान्य रूप से चल फिर सकेगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वैसे इस सर्जरी को सर प्रत्यारोपण के बजाये धड़ प्रत्यारोपण कहना अधिक ठीक रहेगा। क्योंकि वास्तव में हमारी पहचान, याददाश्त और व्यक्तित्व का सम्बन्ध हमारे सर में स्थित मस्तिष्क से है। सर में स्थित मस्तिष्क ही वास्तव में शरीर का नियंत्रणकर्ता और स्वामी है, जिसको पुराने धड़ के स्थान पर एक नया धड़ दिया जा रहा है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जो लोग इस सर्जरी की सफलता को लेकर सशंकित हैं उनको बता दूँ कि इस तरह की सर्जरी को पूर्व में जानवरों पर अंजाम दिया जा चुका है जिसमें वैज्ञानिकों को काफी हद तक सफलता भी मिली है। 1965 में एक अमरीकी डॉक्टर रोबर्ट जे. वाइट ने प्रयोगों की एक श्रंखला को अंजाम दिया जिसमें उन्होंने एक कुत्ते के सर को एक अन्य कुत्ते के शरीर पर स्थापित कर उसकी मुख्य धमनियों को उसके कुत्ते की धमनियों से जोड़ दिया गया। इन प्रयोगों में स्थापित किये हुए सर को 6 घंटे से लेकर 2 दिन तक जीवित रखने में सफलता मिली। एक अन्य प्रयोग में एक बन्दर के सर को पूरी तरह से एक दुसरे बन्दर के धड़ पर स्थापित किया गया। स्थापित किया हुआ सर पूरी तरह से होशोहवास में था। वह न केवल देख और सुन सकता था बल्कि उसके मोटर फंक्शन भी सही तरह काम कर रहे थे, अर्थात वह चबाने और निगलने में भी सक्षम था। लेकिन चूँकि उसके सर को धड़ के तंत्रिका तंत्र से नहीं जोड़ा गया था इसलिए वह धड़ के अंगों को हिलाने में सक्षम नहीं था। लेकिन अभी हाल में ही हुए कुछ प्रयोगों में चूहों के सर को प्रत्यारोपित धड़ के तंत्रिका तंत्र से जोड़ने में सफलता मिली है। जिसके कारण वे चूहे प्रत्यारोपित धड़ को हिलाने डुलाने में सक्षम थे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
भले ही शुरुआती कुछ प्रयोगों में वैज्ञानिकों को वांछित सफलता न मिले लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले कुछ वर्षों में इस तरह की सर्जरी को सफलतापूर्वक अंजाम दिया जा सकेगा। ये सर्जरी इस बात को तो बखूबी सिद्ध कर ही देगी कि यदि कोई आत्मा है तो वह कम से कम धड़ में तो नहीं है। अब बचता है सर! तो क्या आत्मा केवल सर में ही वास करती है? या फिर कोई आत्मा-वात्मा नहीं ये मात्र मस्तिष्क से उत्पन्न चेतना ही है?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
यदि पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार किया जाए तो इसको समझना इतना भी कठिन नहीं है। जिस चेतना को हम आत्मा समझते हैं वह वास्तव में मस्तिष्क से ही उत्पन्न होंती है। मस्तिष्क से भिन्न उसके अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। चेतना अभौतिक है लेकिन उसका कारण भौतिक मस्तिष्क ही है कोई आत्मा नहीं। बिल्कुल वैसे ही जैसे कंप्यूटर पर रन होने वाले प्रोग्राम का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता लेकिन उसके अभौतिक अस्तिव का कारण भौतिक कंप्यूटर ही है। कंप्यूटर से भिन्न उसका कोई अस्तित्व नहीं। बस फर्क इतना है कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग को एक प्रोग्रामर अंजाम देता है, लेकिन यहां इसी कार्य को प्रकृति करती है। हमारा मस्तिष्क भी अरबों वर्ष की प्रोग्रामिंग का ही परिणाम है, जो प्रकृति में प्रथम जीव के साथ प्रारम्भ हुई थी और जो तमाम कालखंडों में उत्तरोत्तर विकसित होते हुए वर्तमान में इस स्वरूप में हमें प्राप्त हुआ है। हमारी जीवन यात्रा के दौरान ये हर रोज नए अनुभवों को सहेजता जाता है। हमारा व्यक्तित्व, हमारे अनुभव, हमारी स्मृतियां और हमारी चेतना सभी मस्तिष्क के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाती हैं, जो बचता है तो बस वह डीएनए का अंश जो हम अपने बच्चों को दे जाते हैं।</div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-16918872024572387212017-08-12T13:49:00.000+05:302017-08-12T13:49:36.536+05:30मानव की विकास यात्रा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgD9Ajnuo2WI9cWMQfIKmogWSLUwMicRiNqVKMClDmE9CXX9vijojtfUbzInqCRBJ6tuVDSKUWw4WgrgPqSv6m4pq2IEvMSiOCKd_yuZZ3OBMgBVLA57Ml71cNfSsWFS_izsCaGq-PNPtTB/s1600/ba178ec5b3dca4f4afde4baa0446dcf7--evolution-science-human-evolution.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="558" data-original-width="736" height="301" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgD9Ajnuo2WI9cWMQfIKmogWSLUwMicRiNqVKMClDmE9CXX9vijojtfUbzInqCRBJ6tuVDSKUWw4WgrgPqSv6m4pq2IEvMSiOCKd_yuZZ3OBMgBVLA57Ml71cNfSsWFS_izsCaGq-PNPtTB/s400/ba178ec5b3dca4f4afde4baa0446dcf7--evolution-science-human-evolution.jpg" width="400" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">प्राचीन काल से ही
मनुष्य के मन में मानव उत्पत्ति के सम्बन्ध में गहन जिज्ञासा रही है। उस समय में
चूँकि विज्ञान इतना विकसित नहीं था की साक्ष्यों की खोज बीन कर कुछ निष्कर्ष निकाल
सके, तो उस समय के विचारकों ने मानव उत्पत्ति के सम्बन्ध में तरह तरह की कल्पनाएँ
कीं। लगभग सभी ने मानव को ईश्वर द्वारा विशेष रूप से निर्मित सर्वश्रेष्ठ कृति की
तरह प्रस्तुत किया। जिसका प्रमाण हमें प्राचीन धर्मग्रंथों में मिलता है। जैसे बाइबिल,
कुरान, तौरात में प्रथम मानव आदम व हव्वा को माना गया है, जिनको ईश्वर ने विशेष
रूप से निर्मित किया। वहीँ मनुस्मृति में प्रथम मानव मनु एवं शतरूपा को माना गया
है। डार्विन ने जब पहली बार क्रमिक विकास का सिद्धांत प्रस्तुत किया तो सबसे बड़ा
आधात इन प्राचीन मान्यताओं को ही पहुंचा। क्योंकि प्राचीन काल से लोग इन धार्मिक मान्यताओं
को सत्य मानते आये थे, और उनके लिए ये स्वीकार करना बड़ा कठिन था कि मानव कोई ईश्वर
द्वारा निर्मित विशेष कृति नहीं है बल्कि उसका विकास वानरों की एक प्राचीन शाखा से
हुआ है। आज भी जबकि जीव विज्ञानियों ने जैव विकास और मानव उत्पत्ति के सम्बन्ध में
तमाम साक्ष्य खोज लिए हैं </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-GB; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">फिर भी </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो कि अपनी धार्मिक मान्यताओं की
खातिर वैज्ञानिक खोजों और उपलब्ध तमाम साक्ष्यों को तरह-तरह के कुतर्कों से नकारते
रहते हैं। जबकि अपनी धार्मिक मान्यताओं के पक्ष में वे एक भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं
कर पाते। तो आइये आज आपको मानव विकास की संक्षिप्त यात्रा पर ले चलते हैं। </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">प्रथम जीव से लेकर
मानव तक जैव विकास का लम्बा इतिहास रहा है</span>,<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">
जिसमें जीवों के वंश- वृक्ष में मानव सबसे उपरी टहनी पे लगा सर्व श्रेष्ठ फल है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> मानव के उद्विकास का अध्धयन विभिन्न शैल स्तरों
से प्राप्त अस्थियों, जबड़ों, खोपड़ियों और दांतों के जीवाश्मों को सूत्रबद्ध करके
किया गया है जिसकी रुपरेखा निम्न है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">1. मानव के
प्राम्भिक पूर्वज -- इन्हे गज श्रुज़ कहा गया है जिनकी उत्पत्ति 10 करोड़ वर्ष
पूर्व क्रिटेशियस कल्प में हुई</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> ये प्रथम स्तनधारी थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">अर्थात</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">ये</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">दुनिया</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">में</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">मौजूद</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">मानव</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">समेत</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">सभी</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">स्तनधारी</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">प्राणियों</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">के</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">वंशज</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">थे।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">2. मानव के
प्रोसिमियन पूर्वज-- ये दो प्रकार के थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">1. वृक्षाश्रयी
श्रुज --- आज से 6 करोड़ वर्ष पूर्व पैलीयोसिन कल्प में इन की उत्पत्ति हुई ये
वृक्षों </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-GB; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">पर</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> रहा करते थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">2. लीमर्स, लोरिस व
टारसीयर्स-- वृक्षाश्रयी का उद्विकास 3 शाखाओं में बंट गया जिसमें टारसीयर्स
सर्वाधिक विकसित प्रकार के थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> ये काफी हद तक छोटे बन्दर से मिलते हुए
थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">3. मानव के
एन्थ्रोपोइड पूर्वज -- इसमें 3 वंश शामिल हैं ...बन्दर वंश , कपि वंश व मानव वंश </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">1. बन्दर वंश --आज
से लगभग 4 करोड़ वर्ष पूर्व इओसीन युग के अंतिम चरण में दो भिन्न दिशाओं में
उत्त्पत्ति हुई जिन्हें नई दुनिया (दक्षिणी व मध्य अमेरिका ) के बन्दर व पुरानी
दुनिया( अफ्रीका व एशिया ) के आदि बन्दर कहा गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">
इनमे से आदिबन्दर के लक्षण कपि व मानव के लक्षणों से मेल खाते हैं, अत: इन्हें
मानव की उदविकासीय शाखा के पूर्वज कहा गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">
इनका नाम ओलिगोपिथेकस कहा गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इसके जीवाश्म ओलिगोसीन युग की चट्टानों
में प्राप्त हुए है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">2. कपि वंश --
ओलिगोपिथेकस के जीवाश्म से पता चलता है कि कपि व मानव की वंश शाखा 3 करोड़ वर्ष
पूर्व बंदरों की वंश शाखा से पृथक हुई और 2.5 करोड़ पुराने प्राप्त दो जीवाश्म
प्रोप्लिओपिथेकस व एईजीपटोपिथेकस </span>'<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">जिनके लक्षण कपि व
मानव से अधिक मिलते हुए थे</span>'<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> को आदिकपी कहा गया</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> माओसीन युग की 2 करोड़ तथा प्लिओसीन युग की 50 लाख वर्ष पूर्व की
चट्टानों में ड्रायोपिथेकस व शिवेपिथेकस आदिकपियों के जीवाश्म भारत की शिवालिक पर्वत
श्रेणी में प्राप्त हुए हैं जिनके हाथों, करोटि व मस्तिष्क के लक्षण बंदरों जैसे
एवं चेहरे, जबड़ों व दांतों के लक्षण कपियों जैसे थे</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> 1.2 करोड़ वर्ष
पूर्व शिवेपिथेकस से मानव वंश का विकास हुआ</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">3. मानव
वंश----मायोसीन युग के अंतिम चरण में उष्ण कटिबंधीय वनों का व्यापक विनाश हुआ और
इनके स्थान पे घास के मैदानों का विकास हुआ जिससे आदि कपियों को स्थलीय जीवन
अपनाना पड़ा व सर्वाहरी जीवन के अनुकूलन के उन्हें तेज़ दौड़ना व शिकार करना
आवश्यक हो गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए आदि कपियों
को सीधे खड़े होकर द्विपद चारी गमन अपनाना पड़ा और यही लक्षण आदि कपियों से आदि
मानव पूर्वज के उदय का मूल आधार बना</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">आदि मानव पूर्वजों
के प्राप्त जीवाश्म .. </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">1. रामापिथेकस व
कीनियापिथेकस -- भारत की शिवालिक एवं अफ्रीका व चीन की चट्टानों में 1.2 से 1.4
करोड़ वर्ष पुराने ये जीवाश्म प्राप्त हुए हैं जिनमे मानव की भांति अर्धचंद्राकार
दन्त रेखा, छोटे जबड़े व चेहरा अधिक सीधा एवं खड़ा हुआ है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">इन्हे
मानव वंश का प्रथम पूर्वज कहा गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">2. आस्ट्रेलोपिथेकस
-- दक्षिणी अफ्रीका में तवांग के निकट 32 से 36 लाख वर्ष पूर्व के जीवाश्म प्राप्त
हुए जिनका दन्त विन्यास, शारीरिक कद तथा भiर वर्तमान मानव से काफी मिलता जुलता हुआ
है ! रेमंड डार्ट ने इन्हे पहला आदि मानव कहा</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इन
जीवाश्मों के साथ के साथ छड़ियों, पत्थरों व हड्डियों के ढेर भी प्राप्त हुए हैं
जिस से प्रमाणित होता है कि ये इन वस्तुओं का हथियार के रूप में उपयोग करता था
इसलिए इन्हे हथियार संग्राहक कहा गया है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">3. पैरैन्थ्रोपस व
ज़िन्ज़िन्थ्रोपस ---- अफ्रीका के जावा की चट्टानों में 18 लाख वर्ष पूर्व के
जीवाश्म प्राप्त हुए</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">ये</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">पूर्वज भारी भरकम शरीर वाले थे जैसे की आज के
गोरिल्ला हैं</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">4.लूसी
---इथियोपिया की चट्टानों में अमेरिका के डी. जोहन्सन को 30 लाख वर्ष पुराना आदि
मानव का एक पूरा कंकाल प्राप्त हुआ है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> चूँकि ये एक मादा
का जीवाश्म था इसलिए इसे लूसी नाम दिया गया किन्तु अब इसे आस्ट्रेलोपिथेकस
एफैरेंसिस नाम दिया गया है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">इसके अधिकांश लक्षण आधुनिक मानव से मिलते
जुलते हैं</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbhmYazCcuwKggWZ6xT_OQvdP8cc2S54mcgm4_aNGs4Xo6g4QxvQfJdhPEafP6LwLjYGvY7JjpIYjqip1zr88f8T1F7YyA-TgW5nhci3YSXlnJRHOKYZ-PPNDiposDVppQVABWdICKI159/s1600/Human+Evolution+Taxonomy+Chart++%25284%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="760" data-original-width="1040" height="292" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbhmYazCcuwKggWZ6xT_OQvdP8cc2S54mcgm4_aNGs4Xo6g4QxvQfJdhPEafP6LwLjYGvY7JjpIYjqip1zr88f8T1F7YyA-TgW5nhci3YSXlnJRHOKYZ-PPNDiposDVppQVABWdICKI159/s400/Human+Evolution+Taxonomy+Chart++%25284%2529.jpg" width="400" /></a></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">5. प्रागैतिहासिक
मानव --- आस्ट्रेलोपिथेकस एफैरेंसिस से आधुनिक मानव जाति के वंशानुक्रम में मानव
की अनेक जातियां विकसित हुई जो कुछ समय रहकर विलुप्त होती गई</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इन्हें इसीलिए प्रागैतिहासिक मानव जातियां कहते
हैं जो कि निम्न हैं -- </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">1.होमो हेबिलस --
इस मानव जाति कि उत्त्पत्ति 16 से 18 लाख वर्ष पूर्व प्लीस्टोसीन युग के आरम्भ में
हुई</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इसके जीवाश्म पूर्वी अफ्रीका के ओल्डूवाई गर्ज़
कि चट्टनो में मिले हैं</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इसके शरीर का कद 1.2</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">से 1.4</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">मीटर था और </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">भा</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">र
40 से 50 किग्रा</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">इसकी कपाल गुहा का आयतन 700 CC था</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> यह
सर्वाहरी था व दोनों पैरों पे सीधा चलता था</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> यह मानव पत्थरों व
हड्डियों को तराश कर हथियार बनाया करता था इसलिए इसे हथियार निर्माता कहा गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">2. होमो
हीडलबर्गेंसिस -- आज से 10 लाख वर्ष पूर्व के ये मानव जीवाश्म जर्मनी के हीडलबर्ग
स्थान के निकट मिले हैं</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इनके जबड़े काफी बड़े थे किन्तु दांत
आधुनिक मानव के समान थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">ये माना जाता है कि यह शाखा कुछ समय
विकसित रहकर विलुप्त हो गई</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">3. होमो इरेक्टस
इरेक्टस----यूजीन डुबाय को अफ्रीका के मध्य जावा में प्लीस्टोसीन युग की 17 लाख
वर्ष पुरानी चट्टानों में इस मानव के जीवाश्म मिले</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">इसे
सीधा खड़े हो कर चलने वाला कपि मानव या जावा मानव भी कहा गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इसका कद 170 सेमी लम्बा व भर 70 किग्रा था</span>,<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> ललाट नीचा व ढलवां था, कपाल गुहा का आयतन 700 से
1110 CC तक था , ये सर्वहारी थे, ये गुफाओं में रहते थे, भोजन बनाने व शिकार को
घेर कर मारने के लिए इनके द्वारा आग के उपयोग के प्रमाण मिलते हैं</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">4. होमो इरेक्टस
पेकिंसिस -- चीन के पेकिंग के पास मिले ये जीवाश्म लगभग छह लाख साल पुराने हैं</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इसके लक्षण जावा मानव के समान थे किन्तु इसका कद
उनसे छोटा था लेकिन कपाल गुहा का आयतन 850 से 1300 CC था</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">ये
स्फटिक से बनाये नुकीले हथियार काम में लिया करते थे व समूह बना कर गुफाओ में रहते
थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">5. होमो इरेक्टस
मोरीटेनिकस( टर्नीफायर मानव ) ---अफ्रीका के टर्नी फायर स्थान से मिले जीवाश्म जो
काफी हद तक जावा मानव से मिलते है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">6. होमो सेपियंस (
आधुनिक मानव ) --- इस मानव की विभिन्न प्रजातियों का स्वतंत्र विकास हुआ अथवा इसके
सदस्य विकसित होकर संसार भर में फ़ैल गये</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">
इसकी प्रजातियाँ निम्न है ---------- </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">1.</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">होमो सेपियंस निएनडरथेलसिस (निएनडरथल मानव )--- यह प्रजाति 1.5 लाख वर्ष
पूर्व अफ्रीका में विकसित होकर यूरोप व एशिया में फैली और लगभग 35000 वर्ष पूर्व
विलुप्त हो गई</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इसके प्रथम जीवाश्म जर्मनी की निएनडर
घाटी में मिले और बाद में विभिन्न देशों में पाए गये</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">
इसकी कपाल गुहा का आयतन 1350 से 1700 cc था, मस्तिष्क में वाणी के केंद्र विकसित
हो गये थे, इनमे श्रम विभाजन के आधार पर सामाजिक जीवन धर्म व संस्कृति की स्थापना
की, ये समूहों में शिकार करते थे, चकमक पत्थरों से हथियार बनाते थे, जानवरों की
खाल के वस्त्र पहनते थे, रहने के लिए झोपडिया बनाते थे व मुर्दों को विधिवत दफनाते
थे</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">2.</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">होमो सेपियंस फोसिलिस ( क्रो- मेग्नोन मानव )----लगभग एक लाख वर्ष के सफल
अस्तित्व के बाद निएनडरथल मानव का विलोप होने लगा व एक नई मानव प्रजाति का विकास
आरम्भ हुआ जिसे होमो सेपियंस फोसिलिस नाम दिया गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">
इसके जीवाश्म फ़्रांस में क्रो मैगनन की चट्टानों से प्राप्त हुए इसलिए इसे क्रो-मेग्नोन
मानव भी कहा गया</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इस मानव का कद 180 सेमी था, सीधी भंगिमा,
ललाट चौड़ा, नाक संकरी, जबड़े मजबूत, ठोड़ी विकसित व कपाल गुहा का आयतन 1600 cc था</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> ये तेज़ चल व दौड़ सकते थे, परिवार बनाकर रहते थे, अधिक सभ्य एवं
बुद्धिमान थे, सुन्दर हथियार ही नही वरन सुन्दर आभूषण भी बनाते थे, पत्थरों पे गोद
कर कला कृतिया बनाया करते थे,</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">पशुपालन में कुत्ते पाला करते थे व
मुर्दों को नियमित धर्म क्रियाओ के साथ गाढ़ते थे</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">3. होमो सेपियंस
सेपियंस ( वर्तमान मानव )----- क्रो- मेग्नोन मानव के बाद के विकसित मानव में
सांस्कृतिक विकास का प्रभुत्व बढ़ा और अपनी बुद्धि का उपयोग कर पशु पालन, भाषा तथा
लिखने पढने की क्षमता का विकास किया, जलवायु परिवर्तनों के अनुरूप वस्त्र, बर्तन,
घर आदि का उपयोग किया व कृषि और सभ्यता का विकास किया</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इसे होमो सेपियंस
सेपियंस कहा गया इनका विकास आज से 10-11 हजार वर्ष पूर्व एशिया के कैस्पियन सागर
के निकट हुआ एवं फिर इसका तीन दिशाओं में देशांतरण हुआ जंहा विविध परिस्थियों के
अनुसार इनमे कुछ शारीरिक व व्यावहारिक विभेदीकरण हुए</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> अब इन्हे तीन
प्रमुख भौगोलिक प्रजातीय कहा जाता है जो कि निम्न है ----- </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">1.कोकेसोइड ---
पश्चिमी दिशा में भूमध्य सागर के किनारे किनारे फैलकर ये यूरोप, दक्षिणी पश्चिमी
एशिया, भारतीय उप महाद्वीप, अरेबिया तथा उत्तरी अफ्रीका की वर्तमान गौरी प्रजाति
में विकसित हुए</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> आज संसार की लगभग एक तिहाई जनसँख्या
कोकेसयाड्स की ही है</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">इनका रंग गौरा, नाक पतली उठी हुई, माथा ऊँचा, ठोड़ी सुविकसित, होठ पतले व
बाल चपटे या लहरदार होते हैं</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">2. नीग्रोइड ---
दक्षिणी दिशा में जाने वाले सदस्य भारतीय सागर के दोनों और फैलकर अफ्रीका एवं
मिलैनेशिया की काली नीग्रो प्रजाति में विकसित हुए</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> आज संसार की 16 से
20 % जनसँख्या नीग्रोइड्स की है</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इनका रंग गहरा काला, बाल घुंघराले काले,
माथा गोल उभरा हुआ, नाक चौड़ी व चपटी, ठोड़ी ढलवां तथा होठ मोटे व बाहर की ओर
निकले हुए होते हैं</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">3.
मोंगोलोइड----उत्तर व पूरब दिशाओ की ओर जाने वाले सदस्य साइबेरिया, चीन, तिब्बत,
में बस कर मोंगोलोइड प्रजाति में विकसित हुए</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> संसार की लगभग आधी
जनसँख्या इसी प्रजाति की है</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> इनका रंग गोरा पीला, बाल सीधे, आँखे छोटी
व तिरछी, चेहरा चपता, कद छोटा,</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;"> </span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">व सिर चोडा होता है</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> होमो सेपियंस
सेपियंस के उत्त्पत्ति काल को पाषाण काल कहते हैं, फिर इस ने कांस्य काल में
प्रवेश किया </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri;">और</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;"> अब लौह काल चल रहा है</span><span lang="AR-SA" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ansi-language: EN-IN; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-hansi-font-family: Calibri;">।</span><span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif;"> </span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "Arial Unicode MS", sans-serif;"><br /></span></div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-52402021639408414342017-07-13T15:54:00.000+05:302017-07-13T15:54:23.127+05:30कल्पनाओं की श्रेष्ठता की लड़ाई <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
दुनिया में छोटे बड़े लगभग 4200 भिन्न भिन्न धर्म/संप्रदाय हैं। जिनमे ईसाई, इस्लाम, हिन्दू, बौद्ध इत्यादि कुछ प्रमुख धर्म हैं। इन प्रमुख धर्मों में भी कई तरह के मत प्रचलन में हैं जो की समय के साथ अस्तित्व में आये हैं। इनमें सभी की अपनी अपनी मान्यताएं, आस्थाएं और धार्मिक रीती रिवाज हैं। सभी अपने मत को एकमात्र सत्य और अन्य सभी मतों को गलत बताते हैं। इन सभी मतों में आपसी विवादों का एक लम्बा इतिहास रह चुका है जिसमे कि कई हिंसक संघर्ष भी शामिल हैं। इस्लाम ‘जो सभी धर्मों से अपेक्षाकृत नया है’ भी मुहम्मद साहब के इंतकाल के बाद ही दो मतों में विभाजित हो गया और उसके बाद इसमें भी समय के साथ कई भिन्न भिन्न मत प्रचलन में आ चुके हैं। जाहिर सी बात है इनमें से सभी मत अपने मत को ही सही और बाकी सभी मतों को गलत बताते हैं। इन मतों के बीच आपस में ही इतिहास में कई खूनी जंग हो चुकी हैं और वर्तमान में भी ये जंग जारी है। इन मतों में से कुछ की विचारधारा अन्य मतों और धर्मों के लिए बेहद आक्रामक है, जिसकी चरम परिणिति इस्लामिक आतंकवाद के रूप में सामने आती है। इसके लिए वैसे काफी हद तक वैश्विक राजनीती भी जिम्मेदार है। कई देश अपरोक्ष रूप से इस विचारधारा को संरक्षण और पोषण देते हैं और इनकी आक्रामक विचारधारा को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। लेकिन आतंकवाद से इतर भी इन मतों की विचारधारा सहस्तित्व को न केवल मुश्किल बनाती है बल्कि अपने अनुयायी को उस मुकाम तक पहुंचा देती है जहाँ से उसको हिंसक संघर्ष के लिए बहकाना बहुत आसान हो जाता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
हालांकि सभी धर्म और मत अपने ही एकमात्र सत्य होने का दावा करते हैं लेकिन दुनिया में इतने सारे धर्मों और मतों की उपस्थिति और इनके आपसी विवादों से एक बात तो साफ़ हो जाती है कि इनमें से कोई भी धर्म और मत सत्य पर आधारित नहीं है। क्योंकि इनमें से यदि कोई भी धर्म वास्तव में सत्य पर आधारित होता तो वह कभी भी मतों में विभक्त नहीं होता बल्कि अन्य धर्म भी धीरे धीरे उसमें विलीन हो जाते। सत्य के सामने होते हुए भला असत्य कहाँ टिकता....? लेकिन दुनिया में समय समय पर न केवल अनेक धर्म अस्तित्व में आये बल्कि वो धर्म भी विभिन्न मतों में विभक्त होते चले गए और सैकड़ों साल के विवाद के बाद भी आज तक उनमें सत्य असत्य का निर्णय नहीं हो पाया। सत्य की उपस्थिति में असत्य कैसे समाप्त हो जाता है एक उदाहरण से समझें: नासा के अपोलो मिशन से पहले तक लोगों में चंद्रमा को लेकर तरह तरह की मान्यताएं प्रचलन में थीं। इनमें से कुछ का मानना था कि चन्द्रमा पर भी पृथ्वी की तरह जीवन मौजूद है। चूँकि तब तक चंद्रमा पर कोई गया नहीं था इसलिए इन मान्यताओं को चुनौती भी नहीं दी जा सकती थी। लेकिन अपोलो मिशन ने ये प्रमाणित कर दिया था कि चंद्रमा एकदम निर्जन स्थान है। उसके बाद ये सारी मान्यताएं स्वतः समाप्त हो गयीं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इस सब से ये बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि विभिन्न धर्मों, इनके मतों और इनके मतभेदों का कोई वास्तविक आधार नहीं है बल्कि ये सभी केवल और केवल मानव की कल्पनाओं की उपज हैं। मतभेद यदि किन्हीं वास्तविक चीजों आधारित पर हों तो उनको सुलझाया जा सकता है। लेकिन काल्पनिक चीजों को लेकर पाले हुए मतभेदों का निपटारा अनंत काल तक नहीं हो सकता। दो लोग जिनके पास अपनी धार्मिक मान्यताओं की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार न हो अनंत काल तक बहस करने के बाद भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते। और जब बातों से मामला न सुलझे तो फिर एक ही रास्ता बचता है कि किसके डंडे में कितना जोर है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
जब तक लोग आस्थाओं, मान्यताओं और सत्य के फर्क को नहीं समझेंगे तब तक लोग अपने मत को एकमात्र सत्य साबित करने के लिए यूं ही धरती को रक्तरंजित करते रहेंगे।</div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-48762435632383873902017-06-18T12:19:00.000+05:302017-06-18T12:19:26.322+05:30सरल मार्ग vs कठिन मार्ग <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsSp8zrZgu9Ydzowh2JDgMjjc3bFo64NnvNCsFalZbAO2JLU-MDp4FIi4H74skaEWd-6NQOzH9wvNdQ3tNvj81jfJQEkkTORkvXkhyphenhyphenWyaQ8F15w9nun1wPoJ1i3YLDeiIPaYM95W4asNx8/s1600/FB_IMG_1477858640986.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="640" data-original-width="640" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsSp8zrZgu9Ydzowh2JDgMjjc3bFo64NnvNCsFalZbAO2JLU-MDp4FIi4H74skaEWd-6NQOzH9wvNdQ3tNvj81jfJQEkkTORkvXkhyphenhyphenWyaQ8F15w9nun1wPoJ1i3YLDeiIPaYM95W4asNx8/s320/FB_IMG_1477858640986.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; margin-bottom: 2.25pt; mso-background-themecolor: background1;">
<span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;"> ईश्वर/पैगम्बर/अवतारों पर आस्था रखने की एक वजह यह भी है कि अधिकतर लोग अपनी
बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करना चाहते</span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;">, <span lang="HI">वो केवल अनुसरण
करना चाहते हैं। शायद वो अपनी बौद्धिक क्षमताओं पर पर्याप्त विश्वास नहीं करते। क्योंकि
अपनी सीमित बुद्धि के कारण वो बहुत से विषयों और घटनाओं को समझने में खुद को
असमर्थ पाते हैं। वैसे कई बार विषय इतना कठिन भी नहीं होता लेकिन या तो उनकी समझने
में रूचि ही नहीं होती या फिर समझने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करना चाहते। वो
हमेशा सरल मार्ग खोजते हैं। वो ये मान लेते हैं कि उनमें घटनाओं और विषयों को
समझने की पर्याप्त समझ ही नहीं है, इसलिए व्यर्थ में दिमाग को कष्ट देने से बेहतर
है कि किसी दिव्य व्यक्तित्व का अनुसरण किया जाए जिसकी बौद्धिक क्षमताओं पर कोई
प्रश्न न उठा सके</span>, <span lang="HI">जिसकी हर बात को निर्विवाद रूप से सच माना
जा सके और जिस पर आंख मूंदकर भरोसा किया जा सके। इसके लिए ईश्वर अथवा ईश्वर के
दूतों और अवतारों से बेहतर क्या हो सकता है। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; margin-bottom: 2.25pt; mso-background-themecolor: background1;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; margin-bottom: 2.25pt; mso-background-themecolor: background1;">
<span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;"> प्राचीन समय से ही चतुर लोग इस बात को बखूबी समझते थे</span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;">, <span lang="HI">इसीलिए उन्होंने अपनी बातों को मनवाने के
लिए ईश्वर का खूब प्रयोग किया। यदि किसी बात को ईश्वर का वचन कहकर प्रचारित किया
जाए तो लोगों को न केवल उसको मानने के लिए आसानी से राजी किया जा सकता है बल्कि उस
पर उठने वाली सभी आपत्तियों को स्वतः ही ख़ारिज किया जा सकता है। फिर भले ही वो बात
कितनी ही गलत प्रतीत हो पर चूँकि उसे ईश्वर ने कहा है तो उस पर कोई प्रश्न उठाया
ही नहीं जा सकता। फिर इसके साथ ही स्वर्ग का लालच और नर्क का भय भी जोड़ दिया जाता
है ताकि उसका पालन सुनिश्चित किया जा सके। फिर भी यदि कोई अड़ियल उसको मानने से
इनकार करे तो उसपर ईश्वर की अवेहलना और ईशनिंदा का आरोप लगाकर प्रताड़ित करने का
विकल्प भी रहता था। </span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; margin-bottom: 2.25pt; mso-background-themecolor: background1;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; margin-bottom: 2.25pt; mso-background-themecolor: background1;">
<span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;"> प्राचीन भारत के राजवंश खुद को किसी न किसी देवता का वंशज बताते थे ताकि जनता
में उनके प्रति विश्वास बना रहे और उनकी कही हर बात क़ानून बन जाए। इसी प्रकार मनुस्मृति,
कुरान, बाइबिल इत्यादि की रचना के पीछे भी यही उद्देश्य था कि ईश्वर रचित संविधान
का हवाला देकर लोगों को संगठित कर एक क़ानून के तले लाया जा सके। </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; margin-bottom: 2.25pt; mso-background-themecolor: background1;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; margin-bottom: 2.25pt; mso-background-themecolor: background1;">
<span lang="HI" style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;"> आश्चर्य है आज 21वीं सदी में भी विज्ञान के इतने विकास के बाद भी दुनिया की एक
बड़ी जनसंख्या चतुर लोगों द्वारा रचे इस जाल में फंसी हुयी है और वो खुद को इस भ्रम
जाल से मुक्त करने में असमर्थ पाती है तो इसकी एक ही वजह है कि अधिकांश लोग खुद की
कोई सोच नहीं रखते, न ही वो अपनी बुद्धि को कष्ट देना चाहते हैं, न ही उनकी रूचि
खुद के प्रयास से कुछ खोजने या जानने में है। वो हमेशा सरल मार्ग खोजते हैं और
अनुसरण करने से सरल भला क्या हो सकता है। </span><span style="font-family: "Nirmala UI Semilight", sans-serif;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; mso-background-themecolor: background1;">
<br /></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: 115%; mso-background-themecolor: background1;">
<br /></div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-21404794461749259352017-05-14T15:07:00.000+05:302017-05-14T15:07:38.676+05:30आस्था और अन्धविश्वास <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कई बार अन्धविश्वास और धार्मिक पाखण्ड के ऊपर
चर्चा के दौरान कुछ ऐसे लोग टकराते हैं जो ये कहते हैं कि अंधविश्वास और पाखण्ड के
तो वह भी प्रबल विरोधी हैं लेकिन ईश्वर में उनकी अटूट आस्था है और वे पूजा पद्धतियों
और धार्मिक क्रिया कलापों को अन्धविश्वास से अलग आस्था का हिस्सा मानते हैं। उनके
अनुसार आस्था रखना अन्धविश्वास नहीं है। </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">क्या वास्तव में अन्धविश्वास और आस्था दो भिन्न
चीजें हैं? </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अन्धविश्वास का शाब्दिक अर्थ तो बिलकुल स्पष्ट
है। अन्धविश्वास अर्थात अँधा विश्वास यानी बिना देखे, बिना जाने, बिना समझे, बिना
किसी प्रमाण, बिना किसी अनुभव किसी पर विश्वास करना। </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">और आस्था??</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">आस्था भी तो यही है बस फर्क इतना है कि आस्थाएं
धर्म पर आधारित हैं जिनके स्रोत धर्मग्रन्थ हैं जिनके ईश्वर रचित होने का दावा
आस्तिकों द्वारा किया जाता है। हालाँकि ईश्वर के होने और न होने के सम्बन्ध में
अभी तक प्रमाण के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता और न ही धार्मिक किताबों के ईश्वरीय
होने का कोई प्रमाण हमारे पास है। यदि ऐसा होता तो ये महज आस्थाएं नहीं बल्कि
स्थापित सत्य कहलाते। हालाँकि सभी आस्थावान अपनी आस्था की सत्यता के सम्बन्ध में
तरह तरह के दावे करते रहते हैं ताकि अपनी आस्था को सत्य साबित किया जा सके। लेकिन
उनकी हर संभव कोशिश के बाद भी आस्था आस्था ही रहती है वो कभी सत्य नहीं हो सकती।
क्योंकि आस्था का अस्तित्व तभी तक है जब तक उसके सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं
मिल जाता। जैसे ही कोई ठोस प्रमाण मिलेगा वह आस्था आस्था न रहकर एक स्थापित सत्य हो
जायेगी। अर्थात आस्था एक प्रमाणहीन विश्वास है जिसकी सत्यता निश्चित नहीं है। वो
सत्य हो भी सकता है और नहीं भी। </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक उदाहरण से समझें –</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">गैलिलियो की खोज से पूर्व अधिकांश लोगों की
आस्था थी कि धरती ब्रह्माण्ड का केंद्र है। लेकिन जब गैलिलियो ने ये साबित किया कि
धरती मात्र सूर्य की परिक्रमा करने वाला एक ग्रह है तो लोगों की पुरानी आस्था
असत्य हो गयी और जो गैलिलियो ने कहा वह स्थापित सत्य हो गया, क्योंकि गैलिलियो ने
जो कहा था वह प्रमाण के आधार पर कहा था, जबकि आस्थावानों के पास उनकी आस्था के
सम्बन्ध में कोई प्रमाण नहीं था। आज किसी को भी ये आस्था रखने की जरूरत नहीं है कि
धरती सूर्य की परिक्रमा करती है क्योंकि हम जानते हैं ये स्थापित सत्य है। </span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इसी तरह पुराने समय में जिन लोगों की आस्था थी कि
धरती चपटी है उनकी आस्था धरती के गोल सिद्ध होते ही असत्य हो गयी और आज जब हम कहते
हैं की धरती गोल है तो ये कोई आस्था नहीं बल्कि स्थापित सत्य है। इसी तरह तमाम ऐसी
आस्थायें और मान्यताएं हैं जिनका विज्ञान द्वारा समय समय पर खंडन होता रहा उनकी
जगह स्थापित सत्यों ने ले ली है।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-language: HI; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">यदि इस नजरिये से देखा जाए तो आस्था और अन्धविश्वास
में कोई फर्क नहीं है। फर्क है तो बस इतना की आस्था की सामजिक स्वीकार्यता धर्म से
जुड़े होने के कारण अन्धविश्वास की तुलना में ज्यादा है। यदि किसी अन्धविश्वास को
धर्म से जोड़कर उसे आस्था का नाम दे दिया जाए तो उसे आसानी से सामाजिक स्वीकार्यता
मिल जाती है। यही कारण है आस्था के नाम पर तमाम अंधविश्वासों को न केवल सामजिक संरक्षण
प्राप्त है बल्कि वो खूब फल-फूल रहे हैं। जो लोग खुद को शिक्षित और तर्कशील बताते
हुए अन्धविश्वासों का विरोध करते हैं और समाज में व्याप्त अन्धविश्वास का दोष
अशिक्षा और लोगों की मूढ़ता को देते हैं उनके दिमाग की बत्ती आस्था के नाम पर गुल
हो जाती है और यही लोग आस्था के नाम पर दुनिया भर के ऊटपटांग काम ख़ुशी ख़ुशी करते
देखे जा सकते हैं। फिर चाहे मूर्ति के सामने बैठ कर घंटी टनटनाना हो, शिवलिंग पर
दूध चढ़ाना या नमाज के नाम पर की जाने वाली उठ्ठक बैठक ये अन्धविश्वास से भला किस
तरह भिन्न हैं? धार्मिक कृत्य अन्धविश्वास ही तो हैं। मंदिर को देखकर सर झुकाना और
बिल्ली के रास्ता काटने पर रुक जाना दोनों में भला क्या फर्क है? दोनों का आधार एक
विश्वास ही तो है कि कोई अद्रश्य शक्ति है जो इस पर प्रतिक्रिया देती है जबकि उसके
अस्तित्व का कोई प्रमाण मौजूद नहीं। </span><o:p></o:p></div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-62830078699791378282017-05-09T12:29:00.000+05:302017-05-09T12:30:09.928+05:30अंधे योद्धा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
दो योद्धा आपस में लड़ रहे थे, दोनों के हाथों में तलवारें, चेहरे पर क्रोध, बस एक दुसरे को मार डालने पर आमादा थे। दोनों का शरीर कई जगह से क्षत-विक्षत हो गया था जिससे खून रिस रहा था, पर दोनों में से कोई भी पीछे हटने को राजी न था।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
लेकिन ये क्या??.... दोनों की आँखों पर पट्टी बंधी थी। वो दोनों बीच-बीच में उस पट्टी को सँभालते जाते थे, जरा ढीली पड़ती तो उसको पुनः कस लेते। मानो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वो पट्टी थी, जिसको की हर हाल में आँखों पर बंधे रहना जरूरी था।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक व्यक्ति बैठा हुआ उन्हें आपस में लड़ते देख रहा था। जब बहुत देर हो गयी उन्हें लड़ते हुए तो उससे रहा ना गया। अगर इन्हें रोका न गया तो ये एक दुसरे को समाप्त ही कर डालेंगे ऐसा सोचकर वो उन्हें समझाने के लिए उठा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"भाई क्यों लड़ रहे हो?<br />
"तुम कौन हो? - पहले योद्धा ने पुछा।<br />
"तुम किस तरफ से हो? - दुसरे योद्धा ने पुछा।<br />
"मैं किसी तरफ से नहीं हूँ, बस आप दोनों को लड़ते मुझसे देखा नहीं गया तो समझाने चला आया।<br />
"लेकिन तुम्हारी बोल-चाल से तो लगता है कि तुम हमारे लोगों में से हो -पहले योद्धा ने कहा।<br />
"मैं था पर अब नहीं - उस व्यक्ति ने कहा।<br />
"जरा पास तो आओ - पहले योद्धा ने कहा।<br />
योद्धा ने अपना हाथ उस व्यक्ति के चेहरे पर फिराया। "तुम्हारी पट्टी कहाँ है?.... ओह! मैं समझ गया तुम कौन हो। तुम वही हो ना जिसने हमारे पुरखों के ज्ञान, परंपरा, दार्शनिक मान्यता और बलिदान के फलस्वरूप मिली इस बहुमूल्य धरोहर को उतार फेंका....और रणभूमि को छोड़कर भाग निकला।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"भगोड़े.....कायर कहीं के - वो चीखा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
उस योद्धा की मुट्ठी क्रोध से भिंच गयीं थीं।<br />
"चले जाओ यहाँ से इससे पहले की मैं तुम्हें जान से मार डालूं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"अरे भाई इतना क्रोध क्यों करते हो? तुम दोनों जरा अपनी हालात तो देखो। सदियां बीत गयीं तुम लोगों को लड़ते हुए, लाशों के ढेर लगा चुके हो, अब बस भी करो।... और बात भी बड़ी मामूली सी है जिसके लिए तुम एक दुसरे के लहू के प्यासे हुये पड़े हो।......कि बस हमारी मान्यता सही है यही लड़ाई है ना तुम्हारी??</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"तो ये मामूली बात है??.....इसकी हिम्मत कैसे हुई हमारी महान परंपरा और मान्यता को गलत कहने की।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"अरे भाई परंपराएं बीतते समय के साथ अपनी उपयोगिता खो देती हैं। इसलिए जरूरी है कि एक समय के बाद इनकी समीक्षा कर ली जाए ताकि जो उपयोगी है वो बचा रहे और व्यर्थ है उसके बोझ से मुक्ति मिले। और जहाँ तक मान्यताओं की बात है, तो ये तो सब कल्पनाएं ही हैं सत्य नहीं हैं। मान्यता का अर्थ ही ये है कि जो मान लिया गया है। तो जो माना गया वो तो कल्पना ही हुयी सत्य नहीं, जो जाना गया वही सत्य है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
और तुम आपस में लड़े जा रहे हो की मेरी कल्पना सही और तुम्हारी कल्पना गलत। ये तो बच्चों वाली बात है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"तो क्या जो हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है वो भी कल्पना है? वो तो निश्चित ही सत्य है, - पहले योद्धा ने दृणता से कहा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"पहले ये समझो की सत्य क्या है। सत्य वो है जो हमारे अनुभवगत हो, जो किसी और ने अनुभव किया वो उसके लिए सत्य हुआ हमारे लिए नहीं। इसलिए पहले जो ग्रंथों में पहले उसे अनुभव करो उसकी सत्यता जांचों तब लड़ो तो फिर भी ठीक है, तुम दोनों तो बिना सत्यता जांचे ही उसे सच साबित करने की कोशिश कर रहे हो। यही कारण है कि तुम इस हालत में आ पहुंचे हो।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"तुम हमें बुद्धू समझते हो क्या? हमने अपने ग्रंथों की सत्यता जांच ली है। हमारे ग्रंथों में लिखा एक-एक शब्द निर्विवाद रूप से सत्य है। - दोनों योद्धा एक ही स्वर में बोले।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"कैसे जांच ली??... सत्य की जांच के लिए जो उपकरण चाहिए उसका तो तुमने उपयोग ही नहीं किया।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"कौन सा उपकरण??</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"ये जो मोटी-मोटी पट्टियां तुम दोनों ने अपनी आँखों पर बाँध रखी हैं बिना इनको खोले तुमने कैसे सत्यता परख ली?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"खबरदार!! जो इन पट्टियों के बारे में एक शब्द भी कहा....तुम्हारी गर्दन धड़ से अलग कर दी जायेगी। - पहला योद्धा तलवार लहराते हुए बोला।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"ये पट्टियां हमारे पुरखों की विरासत हैं। जब से हमने होश संभाला है इनको सहेज के रखा है और जब तक इस शरीर में प्राण हैं सहेज के रखेंगे। हम तुम्हारी तरह नहीं हैं जो अपने पुरखों की विरासत को त्याग दें। .....मैं तुम्हारी चाल खूब समझता हूँ, तुम हमको भी अपने जैसा बनाना चाहते हो। जाओ जाओ किसी और का बेफकूफ बनाना, मैं तुम्हारी बातों में आने वाला नहीं हूँ। - दुसरे योद्धा ने लगभग दुत्कारते हुए कहा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अब वह व्यक्ति पहले योद्धा की ओर मुड़ा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"देखो भाई ये तो मेरी बात मानेगा नहीं, कम से कम तुम तो समझो।....मैं तो तुम लोगों में से ही हूँ। एक समय था जब मैं भी तुम्हारी तरह था, मैं भी तुम लोगों के साथ ही लड़ा करता था। लेकिन मैंने सत्य को जाना और मैं चाहता हूँ तुम भी जानो, पर इन पट्टियों को खोले बिना तुम सत्य नहीं जान पाओगे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"तुमने कोई सत्य-वत्य नहीं जाना, कायर हो तुम जो रण छोड़कर भाग गए और मुझे भी कायर बनाना चाहते हो। तुम्हारे जैसे बहुतों को सूली पर लटकाया है, कड़ाहों में जलाया है और तिल-तिल करके मारा है.. चले जाओ यहाँ से वर्ना तुम्हारा भी वही हश्र होगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"मैं जानता हूँ। लेकिन फिर भी तुमसे आग्रह कर रहा हूँ कोई तो वजह होगी? मैं तुम्हारे ही हित की बात कर रहा हूँ अगर तुम समझो तो.....अच्छा सुनो, जरा साइड में आओ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"हाँ कहो</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"क्या तुम जानते हो ये जो तुमने पट्टी बंधी हुई है ये तुम्हारे युद्धकौशल में बाधक है?? मैंने देखा है तुम कई बार अपने लक्ष्य से चूक जाते हो। यदि ये पट्टी हटा दो तो तुम्हारा हर वार सटीक होगा और शत्रु का कोई भी वार तुम्हें छू भी ना पायेगा। तुम चुटकियों में अपने शत्रु को पराजित कर सकते हो।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"तुम बड़े चालबाज आदमी मालूम पड़ते हो, लगता है आज आत्महत्या करने के उद्देश्य से घर से निकले हो। बस अब अगर एक और बात तुमने इन पट्टियों के खिलाफ कही तो तुम्हारा सर धड़ से अलग कर दूंगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"ठीक है मुझे मारना है...मार लेना। मैं यहीं खड़ा हूँ.....अगर मेरी बात झूठी निकले तो मैं मरने को तैयार हूँ। लेकिन मुझे मारने से पहले एक बार इन पट्टियों को खोल दो।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
योद्धा सोच में पड़ गया....कैसा अजीब आदमी है जो मरने से भी नहीं डर रहा। कहीं जो ये कह रहा है सच तो नहीं?? अगर जो ये कह रहा है सच हुआ तो कम से कम इस शत्रु से तो छुटकारा मिलेगा। और अगर झूठ बोला तो इस भगोड़े को मारने का पुण्य मिलेगा। यानी दोनों ओर से फायदा ही फायदा है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
ये सोचकर उस योद्धा ने पट्टी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया। वो धीरे-धीरे एक एक पट्टी को खोलकर रखने लगा। अब उसकी आँखों को प्रकाश की अनुभूति होने लगी थी। प्रकाश उसके लिए बिलकुल अपरिचित चीज थी। अब उसका कौतूहल बढ़ने लगा..अब उसके हाथ तेजी से चल रहे थे। और फिर वो अंतिम पट्टी भी खोल दी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
पलकों से छन कर आने वाला लाल प्रकाश उसको महसूस हो रहा था।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
"आँखें खोलो - उस व्यक्ति ने कहा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
योद्धा की पलकों में हरकत हुई और उसने अपनी आँखे धीरे से खोल दीं। तीव्र प्रकाश से उसकी आँखें चौंधिया गयीं। फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हुआ और उसे आस-पास की सभी वस्तुएं नज़र आने लगीं। जो व्यक्ति उसको समझा रहा था वो सामने खड़ा था। कुछ दूर पर वो शत्रु भी जिससे वो लड़ रहा था लहूलुहान खड़ा था। उसके शरीर में कई घाव थे जिनसे खून टप-टप टपके जा रहा था। फिर उसने खुद को देखा, उसका खुद का हाल भी कुछ वैसा ही था। अपने भीतर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ की इतना जीवन मैंने किस मूर्खता में गँवा दिया। जिन परंपराओं और मान्यताओं की मैंने अपनी जान पर खेल कर हिफाजत की जिनकी श्रेष्ठता और सत्यता साबित करने के लिए लड़ा, उन्होंने ही मुझे सत्य से दूर कर दिया। मैंने अपना आधा जीवन एक अंधे की भांति गुजार दिया। भला हो इस आदमी का जिसने अपनी जान की परवाह न करके मुझे इस अँधेरे से निकाला। ये सोचकर कृतज्ञता से उसकी आँखें भर आईं। किन शब्दों से इसका शुक्रिया अदा करूँ, ऐसा सोच ही रहा था कि वह व्यक्ति बोल पड़ा, "सोचते क्या हो? वो खड़ा तुम्हारा शत्रु......जाओ मार डालो उसे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
योद्धा ने एक नजर अपने शत्रु पर डाली जो हमले की आशंका से चौकन्ना हो गया था और हमला होने के भय से हवा में तलवार भांज रहा था। फिर उसने एक नजर अपनी तलवार पर डाली......अब तो बड़ा आसान था, अब वो चाहे तो एक ही झटके में उसे समाप्त कर सकता था। लेकिन पहले जिस क्रोध, घृणा और बदले की भावना के वशीभूत हो वो अपने शत्रु से लड़ रहा था अब उसका नामोनिशान भी न था, बल्कि शत्रु की हालत देख हृदय में करुणा उमड़ रही थी।<br />
अरे बेचारा....अबोध है...नहीं जानता क्या कर रहा है, किस मूर्खता में पड़ा है। अगर होश होता तो ऐसा थोड़े करता।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
एक ही क्षण में सब कुछ बदल गया था। ....और फिर तलवार हाथ से छूट कर गिर पड़ी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अब उसे जीसस की वो कथा याद आ रही थी जिसमे उनको सूली पर चढ़ाया जा रहा था और वो बार-बार सूली पर चढाने वालों के लिए प्रार्थना कर रहे थे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
'हे पिता, इनको माफ़ कर देना ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
उसने ये कथा कई बार सुनी थी लेकिन हमेशा सोचता था कि कोई इतना करुणावान कैसे हो सकता है जो अपने कातिलों के लिए भी दुआ करे। अब वो उसी करुणा को अपने भीतर महसूस कर रहा था।</div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-48933781715153602402017-05-08T19:57:00.001+05:302017-05-08T21:43:03.600+05:30कहीं आपके मस्तिष्क को हैक तो नहीं किया गया?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कंप्यूटर हैकिंग से तो आप सभी परिचित होंगे। कंप्यूटर हैकिंग असल में किसी कंप्यूटर प्रणाली में की जाने वाली घुसपैठ जैसी होती है जिसमे हैकर उस कंप्यूटर पर पूर्ण या आंशिक नियंत्रण स्थापित कर लेता है। ऐसा कर के वो न केवल कंप्यूटर के सामान्य कार्य काज में बाधा उत्पन्न कर सकता है बल्कि उसको अपने निर्देशानुसार चलने के लिए बाध्य कर सकता है। कंप्यूटर प्रणालियों में इस प्रकार के खतरों से निपटने के लिए सुरक्षा इंतजाम किये जाते हैं जिनको हम फ़ायरवॉल के नाम से जानते हैं। फ़ायरवॉल कंप्यूटर प्रणाली तक किसी भी तरह की अवैधानिक पहुँच की पहचान करता है जिससे उस कंप्यूटर को खतरा हो सकता है। जैसे ही कोई ऐसा कोई प्रयास पकड़ में आता है वो तुरंत एडमिन को सचेत कर देता है ताकि उसको रोका जा सके।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXuKxPGAYu_dwxl7bWDGOTOvqW2Qn1L9ph9PXN0c7ZIT2TyZSq61bOCE0o42B_VaAjb3lpVrXDWbl8vErPqakKNfelUhXjSPCd6LukrapuCmYcMXuExFsMo3cmhKH8OHGk77jQ6MVZRnnS/s1600/FB_IMG_1434302782352.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="392" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXuKxPGAYu_dwxl7bWDGOTOvqW2Qn1L9ph9PXN0c7ZIT2TyZSq61bOCE0o42B_VaAjb3lpVrXDWbl8vErPqakKNfelUhXjSPCd6LukrapuCmYcMXuExFsMo3cmhKH8OHGk77jQ6MVZRnnS/s400/FB_IMG_1434302782352.jpg" width="400" /></a></div>
हमारे मष्तिष्क की कार्य रचना भी कुछ कुछ कंप्यूटर से मिलती जुलती है, और कंप्यूटर की तरह इसको भी जीवन भर हैकिंग के खतरों से दो चार होना पड़ता है। इसके प्रयास हमारे पैदा होते ही शुरू हो जाते हैं। हमारे समाज में मौजूद तमाम विचारधाराएँ और संगठित धर्म हमारे मस्तिष्क को हैक करने के लिए हर समय तैयार ही बैठे हैं और ये हमारे समाज और संस्कृति में इस कदर घुले मिले हैं कि इनके कुत्सित प्रयासों की पहचान कर पाना बड़ा मुश्किल है। हालांकि इस तरह के खतरों से निपटने के लिए प्रकृति ने हमें भी एक सुरक्षा तंत्र दिया है, जिसको हम शक या संदेह के नाम से जानते हैं। यही वो सुरक्षा प्रणाली है जो विचारों के संक्रमण से हमारी रक्षा करती है और सुनिश्चित करती है की उस विचार को स्वीकारा जाए अथवा नहीं। जब भी हमारी जानकारी में कोई असामान्य बात आती है तो हमारे मन में उसको लेकर संदेह पैदा होता है। जो हमें उस जानकारी की सत्यता को लेकर सोचने को मजबूर कर देता है ताकि हम उस जानकारी पर अच्छे से सोच विचारकर निर्णय लें की वह स्वीकारने योग्य है अथवा नहीं। यदि हमें वह बात भरोसे के लायक नहीं लगती तो हम उसको नकार देते हैं, इस प्रकार हमारा मस्तिष्क उससे संक्रमित होने से बच जाता है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
लेकिन संदेह के साथ एक समस्या है कि यह समय के साथ ही विकसित होता है। अर्थात जब हम बाल्य अवस्था में होते हैं तो संदेह का सुरक्षा घेरा इतना मजबूत नहीं होता। यही कारण है कि बच्चे परीकथाओं पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं। अर्थात बाल्यावस्था में यदि कोई चाहे तो आसानी से इसको बेधकर हमारे मस्तिष्क पर नियंत्रण स्थापित कर सकता है। यही कारण है बाल्यावस्था में जो संस्कार, आस्था और विश्वास मन में जड़ें जमा लेते हैं उनसे मुक्त होना बड़ा कठिन होता है। विचारों के संक्रमण की पहली डोज हमें कहीं बाहर से नहीं बल्कि अपने घर से ही मिलती है। चूँकि हमारे परिवारी जन भी किसी न किसी संगठित धर्म की विचारधारा के संक्रमण से प्रभावित होते हैं तो वही संक्रमण वो चाहे अनचाहे हमारे भी भीतर प्रविष्ट करा देते हैं। एक आध को छोड़ लगभग सभी मामलों में एक बालक व्यस्क होने तक किसी न किसी संगठित धर्म की विचारधारा के चपेट में आ ही जाता है और फिर जीवन भर इससे मुक्त नहीं हो पाता। आइये अब समझते हैं ये काम कैसे करती है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
यदि हमें किसी के मष्तिष्क को हैक करना है और उसे अपने नियंत्रण में लेना है तो सबसे पहले हमें उसकी सुरक्षा प्रणाली निष्क्रिय करना होगा अर्थात ये जो संदेह की फ़ायरवॉल है इसको किसी तरह निष्क्रिय करना होगा। लेकिन ऐसा कोई तरीका हमारे पास नहीं है जिससे कि इस फ़ायरवॉल को हमेशा के लिए निष्क्रिय किया जा सके पर कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे इस फ़ायरवॉल में सेंध लगाई जा सकती है ताकि विचारों को बिना फ़ायरवॉल के संपर्क में आये सीधे मस्तिष्क में प्रविष्ट कराया जा सके, और इन्हीं तरीकों में से एक सबसे बेहतरीन तरीका है धार्मिक आस्था।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
धार्मिक आस्था इस फ़ायरवॉल में सेंध लगाने का सबसे पुराना और सबसे कारगर तरीका है, जिसका प्रयोग हजारों सालों से सफलतापूर्वक किया जा रहा है और ये आज भी उतना ही कारगर है। आस्था का अर्थ ही है अनदेखे, बिना परखे, बिना जाने, बिना तर्क के किसी में विश्वास करना। हालाँकि हमारे मस्तिष्क का मूल स्वाभाव यही है कि ये कभी भी अनदेखे में विश्वास नहीं करना चाहता। जब भी हम ऐसा करते हैं हमारा मष्तिष्क संदेह खड़ा करके हमें सचेत करता है। ऐसे में धर्म के नाम पर भय और लालच का एक घेरा खड़ा कर मस्तिष्क की इस प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली में सेंध लगायी जाती है, धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं में संदेह करने को ही पाप घोषित कर दिया जाता है और संदेह करने वाले को म्रत्यु के पश्चात नर्क में भयानक यातनाओं को भुगतने की धमकी देकर डराया जाता है और संदेह न करने पर तरह तरह के प्रलोभनों के सब्जबाग सजाये जाते हैं जिसमे म्रत्यु के पश्चात स्वर्ग में मिलने वाली तमाम कल्पनातीत सुख सुविधायें शामिल हैं। धर्म में संदेह न करने को बहुत महिमामंडित किया जाता है और इसको ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए अनिवार्य योग्यता की तरह प्रचारित किया जाता है। लोगों को धर्म की विचारधारा से जुडी हर बात पर आसानी से राजी किया जा सके इसलिए पूरी विचारधारा को ही ईश्वरीय या दिव्य घोषित कर दिया जाता है। सभी संगठित धर्म अपने धर्मग्रंथों को मानवरचित नहीं बल्कि ईश्वर रचित बताते हैं ताकि संदेह और तर्क का कोई स्थान ही न बचे। इसके साथ ही अपने पैत्रिक धर्म से जुड़ा श्रेष्ठता का भाव भी संदेह करने से रोकता है। फिर भी यदि संदेह बाकी रहे तो धार्मिक संस्थायायें लगातार भ्रामक प्रचारों के माध्यम से संदेहों का खंडन करती रहती हैं। अगर आप किसी भी संगठित धर्म की मूल भावना पर गौर करेंगे तो आप पायेंगे की इसका सारा प्रयास आपको संदेह और तर्क से विमुख रखने पर है। क्योंकि आपके मस्तिष्क पर नियंत्रण आपको संदेह और तर्क से विमुख रखकर ही संभव है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसलिए कोई भी धर्म जो आपको संदेह करने से रोकता है तर्क से विमुख करता है वो आपको गुलाम बनाने के साधन के अतरिक्त कुछ भी नहीं है। शक करना, संदेह करना, तर्क करना कोई रोग नहीं है बल्कि आपको रोग से दूर रखने का साधन है। यहाँ मुझे जुनैद मुनकिर साहब की लिखी एक कविता याद आती है जो मुझे अत्यंत प्रिय है।<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; font-family: helvetica, arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: left;">
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;">शक जुर्म नहीं, शक पाप नहीं, शक ही तो इक पैमाना है ,</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">विश्वास में तुम लुटते हो सदा, विश्वास में कब तक जाना है।</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">शक लाज़िम है भगवान ओ, ख़ुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">औतार ओ पयम्बर पर शक हो, जो ज़्यादः तर अफ़साने1हैं।</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">शक हो सूफ़ी सन्यासी पर, जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़२ हैं दुआ बन बैठे हैं।</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">जो पिए हैं ख़ून की गंगा जल, जो माले ग़नीमत3 खाए हैं।</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब४ तो नहीं ?</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब५ तो नहीं ?</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">शक के परदे हट जाएँ तो, 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,</span></i></div>
<div style="text-align: left;">
<i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><i><span style="color: blue; font-size: medium;">क़ौमों को नई तालीम मिले, जेहनों को नई तासीर६ मिले।</span></i></div>
</div>
<div style="background-color: white; font-family: helvetica, arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px; text-align: left;">
<h2 style="text-align: left;">
<span style="font-size: x-small;"><i><span style="color: blue; font-size: medium;"><br /></span></i><span style="font-size: xx-small;"><b>१-कहानी २- मिथ्य ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति ४-विजई ५ -अप्भोगी ६-सत्य</b></span></span></h2>
</div>
</div>
Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4240647627870482796.post-43662303996977588112017-05-08T14:48:00.001+05:302017-05-08T21:34:54.497+05:30कुरान में विज्ञान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px;">
<span style="font-size: 14px;"></span></div>
<h2 style="text-align: left;">
</h2>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWG4jCGm0_6SCfygw7AmQZ6gEA_K1FtQgXPWV5Sz6fDAS1K0utq3MZ45__roO4SpeM-OZnIzaEmrOHqc6-WpJ2r0HibF6hDbTfJg3A3oi-yFwtqsIZkVuuUeUApztFuqgmIrDEK_tnNcUN/s1600/muslim-scienbce.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="333" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjWG4jCGm0_6SCfygw7AmQZ6gEA_K1FtQgXPWV5Sz6fDAS1K0utq3MZ45__roO4SpeM-OZnIzaEmrOHqc6-WpJ2r0HibF6hDbTfJg3A3oi-yFwtqsIZkVuuUeUApztFuqgmIrDEK_tnNcUN/s400/muslim-scienbce.jpg" width="400" /></a> कुरान को खुदा की किताब और मुहम्मद साहब को अंतिम पैगम्बर मानने वाले अति आस्तिक मुस्लिमों के चेहरे की रंगत तब देखते ही बनती है जब कोई गोरा (western guy) इस्लाम की तारीफ़ करता है। और अगर कहीं वो कुरान या हदीस की किसी बात को विज्ञान की किसी खोज से जोड़ दे तब तो सुभानअल्लाह।<br />
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आपने ऐसी पोस्ट अक्सर फेसबुक पर देखीं होंगी जिसमे ये दावा किया जाता है की विज्ञान की अमुक खोज के बारे में कुरान में पहले से दिया हुआ है। अक्सर इस्लाम में दावा करने वाले मौलवी और ओलेमा इसका दावा करते देखे जाते हैं की विज्ञान ने जिस चीज को अब खोजा उसके बारे में कुरान ने 1400 साल पहले बता दिया था। जैसे: बिग बैंग थ्योरी, सूर्य का घूर्णन, जीवन का उद्भव, गर्भ में बच्चे का बनना, चन्द्रमा का सूर्य की रोशनी से प्रकाशित होना और भी जाने क्या-क्या।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
मशहूर इस्लामिक वक्ता और अब तड़ीपार मियां जाकिर नाइक अक्सर अपने वक्तव्यों में बढ़ चढ़कर इसका जिक्र करते पाए जाते हैं और इस्लाम को सबसे साइंटिफिक धर्म बताते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इससे पहले कि हम कुरान के वैज्ञानिक दावों की पड़ताल करें, ये जान लीजिये की ये वैज्ञानिक दावे किसने, कब और कैसे खोजे।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कुरान के अधिकांश वैज्ञानिक दावे उस समय प्रकाश में आये जब 1976 में एक फ्रांसिसी मेडिकल सर्जन <b>डॉ. मोराईस बुकाय</b> द्वारा लिखी एक किताब <b>“The Quran and Science”</b> प्रकशित हुई जिसमे कुरान की आयातों में छुपी विज्ञान की बहुत सी खोजों का जिक्र किया गया था। और जैसा की होना ही विज्ञान के बढ़ते क़दमों से इस्लाम के भविष्य को लेकर चिंतित मोलवियों ने इस किताब को हाथों हाथ लिया। जल्दी ही ये किताब उनके वक्तव्यों में किये जाने वाले वैज्ञानिक दावों का मुख्य स्रोत बनने के साथ-साथ नए मोलवियों को प्रशिक्षण के दौरान पढाई जाने वाली किताबों में से एक जरूरी किताब बन गयी। चूँकि ये किताब किसी गोरे ने लिखी थी जो की मुस्लिम भी नहीं था इसलिए आम जनता को समझाना भी बड़ा आसन हो गया। क्योंकि एक आम अवधारणा है ‘जो पता नहीं कैसे बनी’ कि कोई गोरा किसी बात का दावा करे तो हम उस दावे पर सहज विश्वास कर लेते हैं। इसलिए मुल्लाओं ने इस किताब को बहुत सराहा। सभी इस्लामी देशों ने इस किताब का अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद करवाया।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
हालाँकि डॉ. बुकाय के ये दावे कितने वैज्ञानिक हैं इसका पता किताब को पढने के बाद चल जाता है। अगर आप जरा सी भी वैज्ञानिक अथवा तर्कपूर्ण समझ भी रखते हैं तो किताब में डॉ. बुकैल्ल के दावों का घुमावदार तर्क और कुरान में से अपने मतलब की लाइनों का चयन सहज ही पकड़ सकते हैं। मगर दुर्भाग्य ये है की विश्व की अधिकांश जनसँख्या पर्याप्त सामान्य समझ भी नहीं रखती वैज्ञानिक समझ तो दूर की बात है। इसीलिए जाकिर नाइक और उसके जैसे अन्य मोलवियों का काम आसान हो जाता है। लेकिन एक बात और है जो की शक पैदा करती है की फ्रांस में रहने वाले एक मेडिकल सर्जन को कुरान में विज्ञान ढूंढने की क्या जरूरत पड़ गयी थी??....तो आइये जरा इसकी पड़ताल करते हैं।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
असल में डॉ. बुकाय सऊदी अरब के तत्कालीन <b>सम्राट किंग फैज़ल</b> के फैमिली फिजिशियन भी थे। डॉ. बुकाय किंग फैज़ल की अकूत संपत्ति और शानो शौकत से बहुत प्रभावित थे, और जाहिर है किंग फैज़ल उनके सबसे ख़ास कस्टमर्स में से एक थे, और कस्टमर भी ऐसा जिसे की कोई खोना नहीं चाहेगा। तो डॉ. बुकाय ने किंग फैज़ल से नजदीकियां बढानी शुरू कीं, बातचीत का सिलसिला बढ़ा तो किंग फैज़ल ने डॉक्टर साहब का परिचय इस्लाम और कुरान से कराया। यहीं से डॉ. बुकाय के दिमाग में किंग फैज़ल का खासमखास बनने और साथ ही पेट्रो डॉलर कमाने का एक दोहरा प्लान दिमाग में कौंध गया, और डॉ. बुकाय ने तुरंत ही अरबी भाषा सीखनी शुरू कर दी। डॉ. बुकैल्ल अच्छी तरह जानते थे की अरब के मालदार शेखों कोई बात अन्दर तक गुदगुदा सकती थी तो वो ये की एक गोरा काफ़िर कुरान की तारीफ करे। उन्होंने यही किया, क्योंकि ये जिन्दगी भर एक डॉक्टर की जॉब करके गुजार देने से कहीं बेहतर था, क्योंकि इसमें ढेर सारा पैसा कमाने का मौका तो था ही साथ ही अरब के रईस शेखों की हमदर्दी और पूरे मुस्लिम जगत की दुआएं भी शामिल थी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
अगर आप डॉ. बुकाय की किताब पढ़ें तो इसमें डॉक्टर साहब ने इस्लाम की तारीफों के पुल बाँध दिए हैं जैसे की डॉक्टर साहब को पूरा विश्वास हो कि दुनिया में यही एकमात्र सच्चा और वैज्ञानिक धर्म है। तो जब कोई किसी धर्म से इतना प्रभावित हो जो जाहिर सी बात है वो उसे अपना लेगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
तो क्या डॉ. बुकाय ने इस्लाम अपनाया??</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
नहीं............डॉ. साहब इतने मूर्ख नहीं थे। वो अच्छी तरह जानते थे की अगर वो इस्लाम अपना लें तो और बहुत सारा माल बटोर सकते हैं पर ज्यादा लालच ठीक नहीं, चूँकि उन्होंने कुरान पढ़ा था, तो वो जानते थे की इस्लाम में केवल दाखिल होने का रास्ता है निकलने का नहीं। इस्लाम छोड़ने की सजा मौत है। इसलिए उन्होंने बस अपना उल्लू सीधा किया माल बटोरा और सीधे घर की रास्ता पकड़ी।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
इसी तरह एक और डॉक्टर थे <b>“डॉ. कैथ मूरे”</b> जो की टोरंटो यूनिवर्सिटी में एनाटोमी एंड सेल बायोलॉजी विभाग के प्रेसिडेंट थे। जब उन्हें सऊदी अरब से किंग अब्दुल अज़ीज़ यूनिवर्सिटी से एक बड़े पद पर काम करने के ऑफर आई तो उनके नथुनों ने पेट्रो डॉलर की भीनी सुगंध को महसूस किया, और कुछ दिन बाद ही वो किंग अब्दुल अजीज यूनिवर्सिटी की एम्ब्र्योलोजी कमिटी में काम कर रहे थे। उनको यूनिवर्सिटी में जो काम दिया गया वो भी बड़ा मजेदार था, उनको कुरान और सुन्नाह में से उन पंक्तियों की खोज करनी थी जो मानव जन्म, शरीर-रचना और विकास से सम्बंधित हों। लेकिन यहाँ एक बात जो समझ नहीं आती वो ये की अरब के लोगों को इस काम के लिए एक विदेशी काफ़िर की क्या जरूरत पड़ गई, जबकि उनके अपने देश में उनके बहुत से मुस्लिम भाई इस क्षेत्र में अच्छे विशेषज्ञ होने के साथ-साथ कुरान और अरबी भाषा के अच्छे जानकार भी थे? क्या उनको अपने मुस्लिम भाइयों की प्रतिभा पर शक था?</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
जो लोग अरब देशों में काम करते हैं वो ये जानते होंगे की वहां एक किस्म का रंग-भेद चलता है जो कि गोरे लोगों को काले लोगों से बेहतर मानता है। गोरे लोगों का वेतन और सुविधाएँ काले लोगों की अपेक्षा सामान्यत: ज्यादा होती हैं, और उनकी कही हुई बात को भी ज्यादा तहरीज दी जाती है। एक काले व्यक्ति द्वारा ‘फिर चाहे वो कितना ही काबिल हो’ दिया गया बयान इतना महत्त्व नहीं रखता, जबकि कोई सामान्य योग्यता का गोरा व्यक्ति यदि कोई बात कहता है तो वो उनके लिए बहुत मायने रखती है। गोरे लोग इस बात को बखूबी समझते हैं और इसका जमकर फायदा उठाते हैं। अब जरा देखिये डॉ. मूरे ने अपने अन्नदाताओं को कैसे खुश किया। काहिरा में हुई कांफ्रेस में उन्होंने एक रिसर्च पेपर पढ़ा जिसमे उन्होंने कहा,</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<b>“ये मेरे लिए बड़ी ख़ुशी की बात है की मुझे कुरान में मनुष्य के जन्म और विकास सम्बंधित जानकारी तलाशने का मौका मिला। और अब ये मुझको बिल्कुल साफ़ हो गया है की ये जानकारी मुहम्मद साहब के पास केवल ईश्वर से ही आ सकती है क्योंकि जो जानकारी मुझे कुरान में मिली वो बीती हुयी कुछ एक शताब्दियों के दौरान ही खोजी गयी है। इससे मुझे ये प्रमाणित हो गया है की मुहम्मद ईश्वर के भेजे हुए दूत थे।“</b></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
वाह!! कमाल कर दिया! एक काफ़िर के मुहँ से मुल्लाओं को खुश करने के लिए इससे बेहतर और क्या बयान हो सकता था। लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है की उसने पूरे रिसर्च पेपर में कहीं ये नहीं कहा की कुरान में जो बातें लिखी हैं वो वैज्ञानिक हैं। उसने जो भी कहा वो अपनी व्यक्तिगत अनुभूति पर कहा जबकि वैज्ञानिक आंकड़े व्यक्तिगत अनुभूति पर नहीं बल्कि सार्वभौमिक अनुभूति पर आधारित होते हैं। तो उसने केवल वो कहा जो कि मुल्ला सुनना चाहते थे। और कमाल की बात ये रही की इतनी गहरी अनुभूति होने पर भी उसने इस्लाम नहीं अपनाया, उसने बस अपने पैसे लिए और रास्ते भर मुल्लाओं की मूर्खता पर हँसता हुआ अपने घर गया। पश्चिम में एक कहावत है कि हर मिनट में एक बुद्धू पैदा होता है। जब तक इस्लाम मुल्लाओं के चंगुल में है इस धरती पर ऐसे बुद्धू भारी तादात में पैदा होते रहेंगे जिनको की पश्चिम के लोगों द्वारा लूटा जाता रहेगा।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
आप यदि ऐसे गोरों की लिस्ट बनायें जिन्होंने कभी भी इस्लाम की तारीफ़ में कुछ कहा है तो आप पायेंगे की उन्होंने कभी न कभी या तो अरब में काम किया है या उनको अरबों द्वारा एक भारी-भरकम बजट के साथ इस्लाम पर रिसर्च करने के लिए नियुक्त किया गया होता है। इस तरह का रिसर्च सऊदी अरब में आम है जिसमे की विदेशियों को ‘विशेष तौर पर गोरों को’ एक भारीभरकम बजट के साथ कुरान, हदीस तथा इस्लामिक मान्यताओं और परम्पराओं पर रिसर्च करने के लिए नियुक्त किया जाता है, जिसका उद्देश्य केवल इनकी वैज्ञानिकता और प्रमाणिकता को सिद्ध करना होता है। अब इस तरह की रिसर्चों में कितनी निष्पक्षता बरती जाती होगी ये तो आप समझ ही सकते हैं। इस तरह की रिसर्चों का परिणाम पहले से ही तय होता है और पूरी रिसर्च ये ध्यान में रख के करी जाती है की रिसर्च से पूर्व जो परिणाम तय किये हैं वही आयें। कमाल की बात ये है की इन रिसर्च आंकड़ों की विरले ही कभी कोई जांच किसी थर्ड पार्टी से करायी जाती है और करायी भी जाती है तो ये जांच भी कितनी निष्पक्ष होती होगी ये कहा नहीं जा सकता। बाद में किसी भव्य आयोजन के द्वारा रिसर्च के परिणामों की घोषणा की जाती है और फिर सऊदी अरब के विश्व भर में तैयार किये गए मुल्ला नेटवर्क द्वारा इसको जन-जन तक पहुंचा दिया जाता है।</div>
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कभी-कभी ऐसा भी होता है जब इसी तरह की रिसर्च पश्चिम की किसी गुमनाम यूनिवर्सिटी द्वारा की जाती है, ऐसी ही एक रिसर्च जो मैंने पढ़ी थी जो की जर्मनी की किसी यूनिवर्सिटी में की गयी थी जिसका उद्देश था की पशुओं को मांस के लिए क़त्ल करने का कौन सा तरीका बेहतर है “हलाल या स्टनिंग”। किस तरीके से पशु को कम दर्द महसूस होता है। पशु को होने वाले दर्द को मापने के लिए उन्होंने ECG मशीन का प्रयोग किया था। अब ये तो बताने की जरूरत नहीं है की रिसर्च का परिणाम क्या रहा होगा। अगर कोई निष्पक्ष रिसर्चर इस रिसर्च को पढ़े तो वो इसे रद्दी की टोकरी में फेंकने में देर नहीं लगाएगा। क्योंकि इसमें रिसर्च के सभी मानकों का उल्लंघन किया गया है। रिसर्च का लक्ष्य स्पष्ट समझ आता है कि इसको हलाल तरीके को बेहतर साबित करने के उद्देश से ही अंजाम दिया गया है ताकि इस पारंपरिक इस्लामिक तरीके पर वैज्ञानिकता का ठप्पा लगाया जा सके।</div>
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पश्चिमी रिसर्चर बड़े चालाक होते हैं वो जानते हैं की मुल्लाओं को क्या परिणाम चाहिए, इसलिए वो रिसर्च को उल्टा करके शुरू करते हैं। पहले ये तय किया जाता है की इस रिसर्च से हमें क्या परिणाम चाहिए, फिर पूरी रिसर्च का आयोजन इस तरह से किया जाता है की अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो जायें। इस तरह के रिसर्च आयोजन आर्थिक बदहाली से जूझ रही पश्चिम की नयी यूनिवर्सिटीयों के लिए जीवन दान का काम करते हैं। नए मुल्लाओं को लगता है की इस तरह की रिसर्च करवा के उन्होंने कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हांसिल कर ली है, मानो उन्होंने तेल के पैसे के दम पर विज्ञान को खरीद लिया है। जबकि हकीकत ये है की इस तरह के रिसर्च आयोजनों से केवल चालक पश्चिमी रिसर्चरों का ही भला होता है जबकि विश्व भर में फैले मुस्लिमों की एक बड़ी संख्या भ्रम का शिकार होती है, जिसका परिणाम उनको और उनकी आने वाली पीढ़ी को भुगतना ही पड़ेगा।</div>
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पश्चिम बड़ा चालक है और उसकी चालाकियों को केवल बुद्दिमानी से ही मात दी जा सकती है। लेकिन मुल्लाओं की बुद्धि पर तो कुरान का पर्दा पड़ा है। उनकी दृष्टि सीमित हो गयी है वो कुरान से आगे कुछ और देखने में असमर्थ है। जहाँ पश्चिम पुरानी धार्मिक मान्यताओं को दरकिनार कर विज्ञान के मार्ग पर चल पड़ा है वहीँ मुल्ला लोग कुरआन की आयतों में विज्ञान खोज रहे हैं ताकि अपने धर्म के सर्वश्रेष्ठ होने के अहंकार को संतुष्ट कर सकें और दुनिया भर के मुसलमानों को ये तसल्ली दे सकें की वो सही राह पर हैं।</div>
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अन्य धर्मों में भी गाहे-बगाहे ऐसी बातें सुनने को मिलती रहती हैं जहाँ की लोग आज की विज्ञान की खोजों का सम्बन्ध अपने धर्मग्रंथों की मिथकीय कहानियों से जोड़ते हैं। जैसे की हिन्दू पुष्पक विमान का संधर्भ देकर पहला विमान हिंदुओं द्वारा बनाया जाना बताते हैं, गणेश जी का सर काटकर हाथी का सर लगाने को सफल सर्जरी बताते हैं। महाभारत के युद्ध में आण्विक हथियारों का प्रयोग और भी जाने क्या-क्या। हो सकता है भविष्य में इनको भी गोरों से रिसर्च करवा कर प्रमाणित करवाने की कोशिश हो बाकी गौ मूत्र, गोबर और हवन इत्यादि पर तो स्वदेशी रिसर्चर रिसर्च कर ही रहे हैं।</div>
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जैसे-जैसे विज्ञान का प्रभाव दुनिया में बढ़ रहा है पुरानी मान्यताएं, परम्पराएं और धर्मग्रंथों में लिखी बातें और मिथकीय कहानियां न केवल संदेह के घेरे में आ रही हैं बल्कि अपनी प्रसंगिकता भी खोती जा रही हैं और प्रबुद्ध समाज द्वारा इनको संदेह से देखा जा रहा है। लेकिन धर्म के ठेकेदारों को ये बिल्कुल भी गंवारा नहीं की कोई भी उनके सदियों पुराने स्थापित धर्म पर जरा भी संदेह करे और अपने धर्म को सही, सच्चा और वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। उनकी ये कोशिश सिर्फ धर्म रुपी बाड़े को मजबूती देने की है ताकि कोई इस बाड़े की सीमा को तोड़ कर आजाद ना होने पाए। पश्चिम उनकी इस हालत को बखूबी समझता है और इसका जमकर फायदा उठा रहा है।</div>
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Arpit Dwivedihttp://www.blogger.com/profile/07990048822829172174noreply@blogger.com2