Tuesday 4 December 2018

क्रमिक विकास के प्रमाण


क्रमिक विकास का सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जिसके बारे में न केवल इसके विरोधियों में बल्कि समर्थकों में भी जानकारी का बेहद आभाव है। लोग इसको लेकर इस कदर भ्रांतियों का शिकार हैं कि अधिकांश लोगों के लिए इस सिद्धांत का अर्थ केवल बंदर से इंसान बनने से है। इसीलिए वे मासूमियत से बार-बार पूछते रहते हैं कि अब बंदर से इंसान क्यों नहीं बन रहा? काश यदि वे इसका विधिवत अध्ययन करते तो समझ पाते कि इस सिद्धांत का सम्बन्ध केवल इंसान और बंदरों से नहीं है बल्कि पूरे जीव जगत से है। और चूँकि यह सिद्धांत इतना विस्तृत है यह भी एक कारण है कि लोगों में इसके बारे में सही जानकारी का आभाव है। क्योंकि इसके सभी पहलुओं को किसी एक लेख यहाँ तक की एक किताब में भी नहीं समेटा जा सकता। फिर हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों में भी इसके बारे में बेहद संक्षित्प्त जानकारी ही उपलब्ध है और भारतीय भाषाओँ में इससे सम्बंधित स्तरीय पुस्तकों का भी आभाव है।
धार्मिक समूह लोगों के अज्ञान का फायदा उठाकर क्रमिक विकास को महज एक सिद्धांत कहकर ख़ारिज करने का प्रयास करते हैं क्योंकि यह न केवल उनके सर्वशक्तिमान ईश्वर के अस्तित्व और उसकी बुद्धिमानी पर प्रश्नचिन्ह लगाता है बल्कि मनुष्य के ईश्वर द्वारा निर्मित सर्वश्रेष्ठ कृति होने के दावे को भी झूठ सिद्ध करता है। वे कहते हैं कि क्रमिक विकास के सम्बन्ध में विज्ञान के पास कोई प्रमाण नहीं है और यह पूरा सिधांत महज एक तुक्के पर आधारित है। जबकि हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। क्रमिक विकास के सबूत हमारे चारों ओर बिखरे हुए हैं। यहाँ तक कि हमारे तमाम शारीरिक अंग स्वयं इसका एक जीता-जागता सबूत है। क्रमिक विकास के पक्ष में विज्ञान के पास सबूतों का कोई आभाव नहीं है बस जरुरत है हमें उन सबूतों को समझने की। आज इस लेख में आपको कुछ ऐसे ही सबूतों से परिचित कराने प्रयास है। लेकिन इससे पहले कि मैं उन सबूतों के बारे में चर्चा शुरू करूँ आपको एक छोटी सी कहानी सुनानी जरुरी है ताकि आप उन सबूतों को ठीक से समझ सकें।
कहानी कुछ इस तरह है कि एक एयरक्राफ्ट इंजिनियर रोजाना अपनी कार से शहर के दुसरे कोने में स्थित अपने ऑफिस का सफर करता था। इस दौरान उसका सामना अक्सर ही भारी ट्रेफिक जाम से होता था। जाम में इंच इंच सरकता वह सोचा करता था कि काश उसके पास उसका व्यक्तिगत एयरक्राफ्ट होता तो वह बिना जाम में फंसे अपने घर से सीधा ऑफिस पहुँच जाया करता। एक दिन उसके मन में विचार आया कि क्यों न वह अपनी कार को ही एयरक्राफ्ट में बदल दे। वह ऐसा कर सकता था क्योंकि उसके पास इससे सम्बन्धित सभी जरुरी तकनीकी योग्यता थी। लेकिन एक अड़चन थी। उसके पास एक ही कार थी जिसे वह एयरक्राफ्ट में तब्दील होने तक गेराज में नहीं छोड़ सकता था। तो उसने तय किया कि वह अपनी कार का इस्तेमाल करना जारी रखेगा साथ ही अपनी कार में रोजाना ऑफिस टाइम से फ्री होकर छोटे छोटे बदलाव करेगा और इस तरह एक दिन वह उसे पूरी तरह एक एयरक्राफ्ट में तब्दील कर देगा। तो उसने ऐसा ही किया और कार के पुर्जों में तमाम जुगाड़ों, सुधारों, बदलावों की एक बेहद लम्बी प्रक्रिया के बाद आख़िरकार अपने रिटायरमेंट के एक दिन पहले उसने अपनी कार को एयरक्राफ्ट में बदल ही दिया।
हो सकता है आप इस कहानी को पढ़ते समय उस इंजिनियर को सनकी समझ रहे हों। आप ऐसा सोच सकते हैं। आप ही नहीं कोई भी समझदार व्यक्ति यही सोचेगा कि उसे इतनी उलझाऊ, जटिल और जुगाड़बाजी वाली प्रक्रिया को अपनाने की जरुरत क्या थी? क्या वह एक बिल्कुल ही नया एयरक्राफ्ट डिजाईन नहीं कर सकता था? जो कि इसकी अपेक्षा न केवल बेहद आसान होता बल्कि कई मामलों में इस जुगाड़ से बहुत बेहतर भी। कोई भी बुद्धिमान रचनाकार जिसके सामने कोई विशेष मजबूरी नहीं है ऐसी जटिल जुगाड़बाजी को अंजाम देने के बजाये चीजों को नए सिरे से बनाना पसंद करेगा। पर यदि आप वास्तव में यह मानते हैं कि धरती का प्रत्येक जीव एक बुद्धिमान रचयिता की बुद्धिमत्तापूर्ण रचना है तो वास्तव में वह रचयिता भी कुछ ऐसा ही सनकी है। उसकी तथाकथित रचनाएं भी अपने भीतर तमाम विसंगतियों को समेटे चीख चीखकर अपने अतीत की गवाही दे रही हैं। जैसे इंजिनियर का एयरक्राफ्ट पूर्व में अपने कार होने की कहानी कह रहा है।
कार के पुर्जों में बदलाव करके बनाये एयरक्राफ्ट और एक ऐसे एयरक्राफ्ट में जिसे शुरुआत से ही उड़ने के लिए डिजाईन किया गया हो में अंतर बता पाना एक आम आदमी के लिए भले मुश्किल हो लेकिन एक इंजिनियर के लिए कतई मुश्किल नहीं है। नए सिरे से केवल उड़ने के उद्देश्य से डिजाईन किये गए एयरक्राफ्ट में हर पुर्जा बिलकुल नए ढंग से तैयार किया गया होगा, हर चीज बिल्कुल ठीक जगह फिट होगी जिसमें कहीं किसी तरह के समझौते अथवा जुगाड़बाजी की कोई गुंजाईश नहीं देखने को मिलेगी और सबसे बड़ी बात उसमें ऐसा कोई भी ऐसा व्यर्थ का पुर्जा नहीं होगा जिसका कोई उपयोग ही न हो। लेकिन जीवों के शरीर के अध्ययन से हमें पता चलता है कि यहाँ जुगाड़बाजी, समझौतों, पश्च-सुधारों और ऐतिहासिक अवशेषों कि भरमार है जो एक बुद्धिमान रचयिता की बुद्धिमानी अथवा उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। जीवों के शरीर में मौजूद क्रमिक सुधारों का इतिहास यह सिद्ध करता है कि सभी मौजूदा जीव किसी बुद्धिमान रचयिता कि रचनाएं नहीं बल्कि एक पूर्णतः भौतिक रूप से संचालित सुधारों कि एक चरणबद्ध प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये हैं, जीवों में सुधारों और अनुकूलन की इस प्रक्रिया को ही क्रमिक विकास(evolution) कहते हैं।
पीढ़ी दर पीढ़ी सुधारों कि यह प्रक्रिया किस तरह जीवों को पूरी तरह बदल देती है लेकिन बावजूद इसके वे अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पाते, व्हेल इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। व्हेल समेत अन्य तमाम समुद्री स्तनपायी जीवों जैसे डाल्फिन, समुद्री गाय इत्यादि में गलफड़े नहीं पाए जाते। अर्थात ये सभी जीव मछलियों कि तरह पानी में श्वसन नहीं कर सकते। इसलिए इनको सांस लेने के लिए बार-बार ऊपर आना पड़ता है। कोई बुद्धिमान रचयिता ऐसी गलती कैसे कर सकता है? आखिर उसने पूरा जीवन समुद्र में बिताने वाले जीव को गलफड़े जैसे महत्वपूर्ण अंग से वंचित क्यों रखा?

असल में व्हेल एक ऐसा जलचर जीव है जो देखने में तो किसी विशालकाय मछली जैसी लगती है पर वास्तव में इसके पूर्वज स्तनपायी थलचर थे जिन्होंने आज से लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व खुद को समुद्री जीवन के अनुकूल ढालना शुरू कर दिया था जिसके जीवश्मिक सबूत हमें प्राप्त हुए हैं। यही नहीं इसके शारीरिक अंग भी इसकी गवाही देते हैं। व्हेल का कंकाल एक टिपिकल स्तनपायी कंकाल है जिसकी हड्डियाँ अन्य किसी स्तनपायी जीव जैसी ही भारी हैं। साथ ही इसमें अगले पैरों के साथ पिछले पैरों के अवशेष भी मौजूद हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति यह पूछ सकता है कि आखिर ये अवशेषी हड्डियाँ यहाँ क्यों हैं जब इनका कोई उपयोग ही नहीं तो? एक बुद्धिमान रचयिता ने इन्हें क्यों बनाया?
इसके साथ ही व्हेल और डॉल्फिन का पानी में गति करने का तरीका भी मछलियों से बिल्कुल भिन्न है। मछलियाँ पानी में आगे बढ़ने के लिए अपनी पूंछ को दायें-बाएं हिलाती हैं जबकि व्हेल और डॉल्फिन अपनी पूंछ को ऊपर-नीचे हिलाती हैं। व्हेल और डॉल्फिन का यह तरीका उनके थलचर अतीत की गवाही देता है। थलचर चौपाये दौड़ने के लिए अपनी रीढ़ कि हड्डी को एक स्प्रिंग कि तरह इस्तेमाल करते हैं जो लगातार ऊपर नीचे गति करती रहती है। तो इस तरह व्हेल एक समुद्री जीव होते हुए भी अपने थलचर अतीत से पीछा नहीं छुड़ा सकती। ठीक वैसे ही जैसे उस इंजिनियर का एयरक्राफ्ट उड़ने के बावजूद कार के इंजन से पीछा नहीं छुड़ा सकता।
इसके साथ ही जीवों के शरीर में बहुत सारी डिजाईन सम्बन्धी खामियां भी पायी जाती हैं जो किसी बुद्धिमान रचनाकार के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। जैसे वेगस नाड़ी। लैटिन भाषा में वेगस का अर्थ है घुमक्कड़, जिसको यह चरित्रार्थ भी करती है।
यह नाड़ी उन कुछ नाड़ियों में से है जिसका उदय मस्तिष्क से होता जिसकी कई शाखाएं हैं जिनमें से दो शाखाएं ह्रदय में जाती हैं और दो अन्य शाखायें लेरेंक्स(गले का वह अंदरूनी हिस्सा जो ध्वनि पैदा करता है) में जाता है। जिसमें से एक शाखा तो सीधे लेरेंक्स में चली जाती है लेकिन दूसरी शाखा आश्चर्यजनक रूप से सीने तक जाकर ह्रदय की एक धमनी का चक्कर लगाकर वापस ऊपर गले में लेरेंक्स तक पहुँचती है जबकि इसके इस तरह बेतुके ढंग से बनाये जाने का कोई उपयुक्त कारण नहीं है। यहाँ तक की लम्बी गर्दन वाले जीवों जैसे जिराफ में तो यह मस्तिष्क से सीने में ह्रदय तक और वापस लेरेंक्स तक कई मीटर लम्बा चक्कर लगाती है जो किसी भद्दे मजाक से कम नहीं है। आखिर कोई बुद्धिमान निर्माता ऐसी भयंकर भूल कैसे कर सकता है?

इसका सीधा सा जवाब है क्रमिक सुधारों का सिलसिला ही ऐसी डिजाईन सम्बन्धी खामियों को पैदा कर सकता है जिसमें पिछली गलतियों को संतुलित करने का प्रयास होता है लेकिन उनको पूरी तरह सुधारने की कोई गुंजाईश नहीं होती। क्रमिक विकास केवल कामचलाऊ सुधारों को पैदा करता है।
क्रमिक विकास हमें बताता है कि गरदन वाले जीव बहुत बाद में अस्तित्व में आये। बिना गर्दन वाले जीवों जैसे मछलियों में लेरेंक्स नहीं होता, उनमें वेगस नाड़ी ह्रदय के साथ गलफड़ों के कुछ हिस्सों को नियंत्रित करती है। मछलियों में ह्रदय और गलफड़े आस पास ही होते हैं। लेकिन जैसे जैसे थलचरों और फिर गर्दन वाले जीवों का विकास हुआ जिनमें लेरेंक्स पाया जाता था ने मूल डिजाईन को बहुत हद तक बदल दिया। ह्रदय सीने में चला गया और लेरेंक्स उससे बहुत दूर गले में जा पहुंचा। लेकिन बावजूद इसके यह नाड़ी आज भी अपने मूल मार्ग का ही अनुसरण करती है, जिसके कारण यह आज भी मस्तिष्क से ह्रदय की धमनी का चक्कर लगाकर लेरेंक्स में पहुँचती है।
आँख जीवों की एक बेहद महत्वपूर्ण इंद्री है। लेकिन मानव समेत तमाम थलचरों की आँखें भी डिजाईन सम्बन्धी खामियों से मुक्त नहीं है। आँख की कार्यविधि मोटे तौर पर बिल्कुल किसी कैमरे जैसी ही है जिसमें एक उत्तल लेंस होता है जो सामने से आती रौशनी को एकत्रित कर पीछे पर्दे पर उसकी एक छवि बनाता है जिसे फोटोग्राफिक फिल्म अथवा सेंसर द्वारा कैद कर लिया जाता है जिससे बाद में वही छवि पैदा की जा सकती है। आपको अपनी आँखों की कार्यकुशलता पर गर्व हो सकता है लेकिन कोई भी कैमरा निर्माता अपने कैमरों में आपकी आँखों में मौजूद डिजाईन सम्बन्धी भूल नहीं कर सकता। सपने में भी नहीं।
आपकी आँखों का रेटिना जहाँ छवि बनती है में प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं का एक समूह है, जो प्रकाश को ग्रहण कर उस सुचना को तंत्रिकाओं के एक जाल के जरिये मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन समस्या यह है कि ये उल्टा है। यानी इसका प्रकाशसंवेदी हिस्सा भीतर की तरफ है और तंत्रिकाओं का जाल बाहर की ओर। प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं तक प्रकाश रेटिना की पिछली दिवार से टकराकर पहुँचता है, जहाँ तक पहुँचने के लिए इसको तंत्रिकाओं के जाल से होकर गुजरना पड़ता है और यहाँ तक की इसके मध्य में एक ब्लाइंड स्पॉट भी मौजूद है जिससे प्रकाश पार नहीं हो पाता। यहाँ सभी तंत्रिकाएं आकर एकत्रित होती हैं और किसी सिंकहोल की तरह रेटिना की दीवार से बाहर निकल कर मस्तिष्क तक जाती हैं। लेकिन इतनी बाधाओं और बीच में एक ब्लाइंड स्पॉट के मौजूद होने के बावजूद हमें देखने में कोई समस्या क्यों नहीं होती? कारण है आपका मस्तिष्क, जो एक कुशल ऑनलाइन फोटोएडिटर की तरह कार्य करता है और खाली हिस्सों को भी छद्म जानकारीयों से भर देता है। आप जो कुछ भी आँखों से देखते हैं उसका कुछ हिस्सा मस्तिष्क द्वारा निर्मित है।

आँखों के इस तरह निर्मित होने की वजह भी इसके क्रमिक विकास में छुपी है। आँख तमाम सुधारों से होती हुयी आज अपने वर्तमान स्वरुप में पहुंची है। प्रारंभ में जीवों में कुछ प्रकाशसंवेदी अंग विकसित होने शुरू हुए। इन अंगों से आँखों की तरह स्पष्ट नहीं देखा जा सकता था ये मात्र रौशनी और अँधेरे के फर्क को महसूस करने में मदद करते थे। विकासक्रम के किसी मोड़ पर कुछ जीवों में ये प्रकाशसंवेदी अंग उलटकर भीतर की ओर विकसित होने लगे। चूँकि उस समय तक लेंस का विकास नहीं हुआ था अतः इससे जीवों की प्रकाश को अनुभूत करने की क्षमता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा और लिहाजा आगे भी यह इसी प्रकार विकसित होता रहा और इसके बहुत बाद में जाकर जब एक लेंसयुक्त आँख विकसित हुयी तब भी यह डिजाईन वैसा का वैसा ही रहा। डिजाईन के लिहाज से ऑक्टोपस की आँख किसी भी थलचर जीव की आँख से बेहतर है।
ठीक इसी तरह स्तनपायी जीवों में पुरुष जननांग भी डिजाईन की खामी से जूझ रहे हैं। पुरुष जननांगों से शुक्राणुओं को शिश्न तक पहुँचाने वाली नलिका सीधे शिश्न में न जाकर मूत्राशय की नलिकाओं का चक्कर लगाकर शिश्न तक पहुँचती है। केवल स्तनपायी जीवों में ही पुरुष जननांग बाहर की ओर पाए जाते हैं। बाकी सभी जीवों में ये पेट के भीतर स्थित होते हैं। विकासक्रम ने ही इनको यहाँ पहुँचाया है। जिसका कारण है स्तनपायी जीवों के शरीर का तापमान जो शुक्राणुओं के विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। लेकिन पुरुष जननांगों के बाहर आ जाने के बावजूद शुक्राणुवाहिका आज भी अपने मूल मार्ग का अनुसरण कर रही है। चूँकि इससे इसकी कार्यप्रणाली में कोई विशेष बाधा पैदा नहीं हुयी इसलिए यह डिजाईन आज भी इसी तरह चला जा रहा है।


लेकिन भले ही इससे अधिकांश जीवों को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुयी हो लेकिन फिर भी कुछ जीवों के लिए यह कई बार बहुत समस्या पैदा कर देती है। यहाँ तक कि उन्हें अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ सकता है। मनुष्य भी उन जीवों में से एक है। पुरुष जननांग मानव भ्रूण के प्रारंभिक काल में पेट में ही विकसित होते हैं और भ्रूण के विकास के आखरी दिनों में पेट से अपने नियत स्थान का सफ़र शुरू करते हैं। कई बार बच्चे के जन्म के बाद उसका एक अथवा दोनों जननांग अपनी जगह पर नहीं पहुँच पाते जिसको कई बार ऑपरेशन से बाहर लाना पड़ता है।
इससे सम्बंधित समस्याओं का अंत यहीं नहीं होता। जननांगों के इस सफ़र के कारण बनी इन्गुइनल कैनाल की दीवारें भी समय के साथ कमजोर पड़ जाती हैं और बहुत से मामलों में ये इन्गुइनल हर्निया का कारण बनती हैं जो अधेड़ मर्दों की एक प्रमुख बीमारी है। डिजाईन की इस खामी की वजह से प्रति वर्ष लाखों लोग इस रोग से पीड़ित होते हैं। वर्तमान में इसका मेडिकल उपचार सुलभ होने के कारण आज इस रोग की भयावहता का पता नहीं चलता। जरा सोचिये पुराने समय में जब इसका कोई इलाज उपलब्ध नहीं था कितने मर्दों ने इसके कारण तड़पते हुए असमय अपनी जान गंवाई होगी। यह भयानक भूल एक बुद्धिमान निर्माता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।
इसके साथ ही अवशेषी अंग भी क्रमिक विकास का एक बढ़िया प्रमाण हैं जो एक बुद्धिमान निर्माता पर सवाल खड़े करते हैं। लगभग सभी जीवों में कुछ अंग अथवा उनके अवशेष ऐसे पाए जाते हैं जिनका उस जीव के लिए कोई उपयोग नहीं होता। ये अंग उस जीव के इतिहास की निशानियाँ हैं जिन्हें वह आज भी ढो रहा है। इन अंगों का उपयोग उस जीव के लिए विकासक्रम के किसी दौर में रहा होगा, लेकिन बदलते परिवेश और व्यवहार के कारण आज इनका उस जीव के लिए कोई उपयोग नहीं। जैसे एक बहुत अच्छा उदाहरण उन पक्षियों का जो उड़ने की योग्यता खो चुके हैं, जैसे शुतुरमुर्ग, एमु, पेंगुइन, कीवी इत्यादि।
इन सभी जीवों में पंख अथवा उनके अवशेष मौजूद हैं लेकिन ये उड़ने की योग्यता खो चुके हैं। आखिर कोई बुद्धिमान निर्माता किसी जीव को ऐसे अंग क्यों देगा जिनका उसके लिए कोई उपयोग नहीं? इसका जवाब भी हमें क्रमिक विकास में ही मिलता है। बदलते परिवेश ने इन पक्षियों के लिए उड़ने की जरुरत को ख़त्म कर दिया लिहाजा इनके पंखों का विकास रुक गया। जैसे न्यूज़ीलैण्ड में पाये जाने वाले कीवी पक्षी के पूर्वज वे समुद्री पक्षी थे जो भूगर्भीय गतिविधियों के कारण समुद्र से बाहर आई इस भूमि पर उड़कर पहुंचे थे। इस नयी भूमि पर न केवल भरपूर भोजन उपलब्ध था बल्कि उनके लिए कोई प्रतिस्पर्धा और शिकारी भी मौजूद नहीं था। ऐसे माहौल में वे बिना उड़े पूरा दिन जमीन पर कीड़े खाते हुए व्यतीत करते रह सकते थे।
ऐसा ही एक उदहारण गहरे समुद्र और अँधेरी गुफाओं में पाए जाने वाले जीवों के सम्बन्ध में दिया जा सकता है जो अपनी देखने की क्षमता खो चुके हैं परन्तु आज भी उनकी आँखों के अवशेष मौजूद हैं। आखिर किसी अंग की जरुरत ख़त्म होने पर उसका विकास किस प्रकार रुक जाता है?
असल में कोई अंग अथवा व्यवहार जब तक जीव के सर्वाइवल के लिए आवश्यक है प्राकृतिक चुनाव उसे संरक्षित रखता है। जैसे यदि जेनेटिक म्युटेशन के कारण कोई ऐसा कबूतर पैदा होता है जो कि उड़ने में सक्षम नहीं है तो वह सर्वाइव नहीं कर सकेगा और न ही अपनी संतति बढ़ा सकेगा। लिहाजा इस म्युटेशन को बढ़ने का मौका नहीं मिलेगा। लेकिन किसी नए परिवेश में जहाँ उड़ना सर्वाइवल के लिए जरुरी न हो ऐसे में वह म्युटेशन फैलेगा। और समय समय पर ऐसे म्युटेशनस की वजह से वह अंग अथवा क्षमता प्रभावित होगी।
हम अपनी बात करें तो हमारे शरीर में भी बहुत सारे ऐसे अंग मौजूद हैं। जैसे अपेंडिक्स। अपेंडिक्स वास्तव में हमारी आंत का एक अवशेषी हिस्सा है जो अतीत में किसी समय कच्ची वनस्पति पचाने के काम आता था। लेकिन समय के साथ बदलते खान-पान ने इसकी उपयोगिता को समाप्त कर दिया। आज यह एक अवशेषी अंग के रूप में हमारी आंत के सिरे पर मौजूद है और इसमें होने वाले इन्फेक्शन के कारण बहुत से लोगों को भयंकर पेट दर्द का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही अक्कल दाढ़, पूँछ कि हड्डी, साइनस, टॉन्सिल्स, कान को हिलाने वाली मांसपेशी, इरेक्टेर पिली(रोंगटे खड़े करने वाला तंत्र), आँखों के कोने पर पर पायी जाने वाली झिल्ली और 6 माह के बच्चों में पाया जाने वाला ग्रास्प रिफ्लेक्स( जिसके कारण बच्चा आपकी अंगुली को कसकर पकड़ लेता है वास्तव में अतीत में इसी रिफ्लेक्स के कारण बच्चा अपनी माँ को कसकर पकड़े रहता था। आज भी बंदरों और वानरों में इस व्यवहार को देखा जा सकता है।)
ये तो मात्र कुछ प्रमाण हैं। वास्तव में ऐसे प्रमाण इतनी अधिक संख्या में मौजूद हैं कि ऐसे तमाम प्रमाणों पर एक पूरी किताबों की सिरीज लिखी जा सकती है। ये सभी हमें बताते हैं कि कोई भी जीव किसी बुद्धिमान निर्माता द्वारा निर्मित रचना नहीं है बल्कि वह सुधारों की एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया के कारण ही अपने वर्तमान स्वरुप में पहुंचा है।

डार्विन का क्रमिक विकास सिद्धांत - संक्षिप्त परिचय

क्रमिक विकास का सिद्धांत(Theory of evolution) विज्ञान के इतिहास में अब तक प्रतिपादित कुछ सबसे प्रसिद्द, बेहतरीन और प्रमाणिक सिद्धांतों में से एक है जो विज्ञान की तमाम शाखाओं जैसे जीवाश्म विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, अनुवांशिकी इत्यादि द्वारा उपलब्ध कराये गए अनेकों अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध है। यह सिद्धांत बेहद रोमांचक है क्योंकि यह हमारी कुछ आदिम जिज्ञासाओं का जवाब देता है....हम कहाँ से आये? जीवन कहाँ से आया? ये जैव विविधता कैसे उत्पन्न हुयी?
सदियों से मनुष्य के पास इन सवालों का कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था सिवाय कुछ धर्मजनित दार्शनिक सिद्धांतों के, जो कितने सत्य हैं कोई नहीं जानता था। इस सिद्धांत ने मानवता के इतिहास में पहली बार न केवल मानव को अपने अस्तित्व स्रोत तलाशने का मार्ग दिखाया बल्कि यह भी बताया कि पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता आपस में सम्बंधित है और यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तिव में आई है। यह लेख आपको क्रमिक विकास के मूलभूत सिद्धांतों से आपका परिचय कराने के साथ-साथ वे कैसे कार्य करते हैं यह भी समझने में मदद करेगा।
डार्विन ने सन 1859 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पिशीज’ में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया। जिसके अनुसार प्राकृतिक वरण ही जीवों में बदलावों को गति देता है जिसके कारण लम्बे समय अन्तराल में नयी जैव प्रजातियों का विकास होता है। इस सिद्धांत के तीन प्रमुख बिंदु हैं।
1. किसी एक परिवेश में रहने वाले किसी जीव प्रजाति के सदस्य न केवल शारीरिक रूप से बल्कि गुण व्यवहार इत्यादि से परस्पर आंशिक रूप से भिन्न होते हैं।
2. जिन सदस्यों के गुण उन्हें उस परिवेश में अपनी ही प्रजाति के सदस्यों पर बढ़त प्रदान करते हैं उनके बचे रहने और संतानोत्पत्ति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसी को प्राकृतिक चुनाव अथवा वरण कहा जाता है।
3. इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी प्राकृतिक चुनाव के कारण उन गुणों का निरंतर विकास होता है और एक इसी के कारण एक लम्बे अंतराल में एक बिल्कुल नयी जैव प्रजाति अस्तित्व में आती है।
डार्विन ने जब इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया था तब तक अनुवांशिकी और डीएनए के बारे में कोई ख़ोज नहीं हुयी थी, अतः जीवों में विभिन्नताएं किस कारण से आती हैं इसको समझा नहीं जा सका था। परन्तु आज हम जानते हैं जीवों में भिन्नताएं डीएनए और उसमें कालांतर में होने वाले म्युटेशन के कारण आती हैं।
डीएनए अणुओं की एक चेन जैसी जटिल संरचना होती है जो जेनेटिक सूचनाओं का स्रोत होती है। डीएनए में मौजूद जेनेटिक सूचनाएं ही किसी जीव के शारीरिक विकास, अंगों की बनावट, उनकी कार्यप्रणाली, संतति और व्यवहार को निर्धारित करती है। जीव के शरीर की हर कोशिका में यह डीएनए मौजूद होता है। जब भी कोई कोशिका विभाजित होती है तो वह कोशिका इस डीएनए की कॉपी तैयार करती है। कॉपी तैयार करने की यह प्रक्रिया बेहद कुशल होती है लेकिन फिर भी इसमें अशुद्धि आने की सम्भावना बनी रहती है। हालाँकि अधिकांश मामलों में डीएनए इन अशुद्धियों को स्वतः ठीक कर लेता है। लेकिन फिर भी कुछ मामलों में ये अशुद्धियाँ डीएनए का ही हिस्सा बन जाती हैं इन्हीं अशुद्धियों को म्युटेशन कहा जाता है।
इन म्युटेशन के कारण जीव के शारीरिक अंगों और व्यवहार में कुछ बदलाव आते हैं। ये बदलाव दो प्रकार के हो सकते हैं हानिकारक और लाभदायक। अधिकांश बदलाव हानिकारक ही होते हैं लेकिन कुछ बदलाव लाभदायक भी होते हैं जो उस जीव को अपने परिवेश में अन्य जीवों पर प्रतिस्पर्धा में बढ़त प्रदान करते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति उत्पन्न की संभावनाएं बढ़ जाती हैं और इस तरह वह म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में प्रसारित होता जाता है। जबकि हानिकारक म्युटेशन जीव को प्रतिस्पर्धा में पछाड़ देते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति पैदा करने की संभावनाएं कम हो जाती हैं, फलस्वरूप वे म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में नहीं जा पाते और इस तरह प्राकृतिक चुनाव उन्हें चलन से बाहर कर देता है।
जिन जीवों में लैंगिक प्रजनन होता है वहां यह प्रक्रिया और दिलचस्प हो जाती है। चूँकि लैंगिक प्रजनन में दो जीवों के डीएनए आपस में संयुक्त होकर भावी संतति को जन्म देते हैं अतः इस प्रक्रिया में अधिक विविधताओं को जन्म लेने का अवसर प्राप्त होता है, और इसके साथ ही प्रकृति को प्रयोग करने के लिए बड़ा कैनवास मिल जाता है। इस तरह प्राकृतिक चुनाव पीढ़ी दर पीढ़ी जीवों को आकार देता जाता है। किसी जीव प्रजाति में बदलावों का यह सिलसिला एक लम्बे कालांतर में एक बिल्कुल ही नयी जीव प्रजाति को विकसित कर देता है जो दिखने, आकार, प्रकार, व्यवहार में पूर्व प्रजाति से काफी भिन्न होती है। यही क्रमिक विकास है जिसे हम प्रकृति के अद्रश्य हाथों की संज्ञा दे सकते हैं जिसने धरती पर अनगिनत जैव विविधताओं को आकार दिया है।
प्राकृतिक चुनाव किस तरह जैव विविधताओं को आकार देता है इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण हमारे एकदम पास में मौजूद है। मनुष्य का सबसे भरोसेमंद दोस्त जिसकी वफ़ादारी की मिसालें दी जाती हैं, जी हाँ कुत्ते। दुनिया भर में मौजूद कुत्तों की तमाम प्रजातियां ‘जो दिखने में आकार, प्रकार, व्यवहार में एकदूसरे से बहुत भिन्न प्रतीत होती हैं’ वास्तव में एक ही प्राचीन पूर्वज की संतानें हैं।
कुत्तों का विकास लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व भेडियों की एक प्रजाति से हुआ था जो कि अब लुप्त हो चुकी है। शिकार में उपयोगी होने के कारण कुत्ते धीरे-धीरे प्राचीन काल में मौजूद दुनिया के सभी मानव समूहों में पहुँच गए और भिन्न भिन्न स्थानों के पर्यावरण और मानवीय हस्तक्षेप(सेलेक्टिव ब्रीडिंग) ने उन्हें समय के साथ इतने भिन्न-भिन्न रंग रूप और आकारों में ढाल दिया। मानव द्वारा अंजाम दी गयी सेलेक्टिव ब्रीडिंग के कारण कुत्तों की बहुत सी प्रजातियाँ तो मात्र पिछले कुछ 200 वर्ष के दौरान ही विकसित हुयी हैं। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जिस तरह कृत्रिम चयन के कारण जीवों में बेहद कम समय में नाटकीय बदलाव आ सकते हैं ठीक उसी तरह प्राकृतिक चयन भी जीवों को आकार दे सकता है।
हमारे पालतू जानवर और वे वनस्पतियाँ जिनका हम उपभोग करते हैं को हमारे चयन ने इतना बदल दिया है कि वे आज बिल्कुल ही भिन्न रूप में हमारे सामने हैं। अधिक दूध के उत्पादन के कारण दुधारू नस्लों को लगातार बढ़ावा दिए जाने के कारण आज हमारे दुधारू पशु न केवल अपने शिशु की दैनिक आवश्यकता से बहुत अधिक दूध देते हैं बल्कि शिशु की दूध पर निर्भरता ख़त्म हो जाने के बावजूद दूध देते रहते हैं। दुनिया का कोई भी स्तनपायी जीव अपने शिशु के लिए उसकी आवश्यकता से इतने अधिक दूध का उत्पादन नहीं करता। सेलेक्टिव ब्रीडिंग ने केलों से बीजों को गायब कर दिया है जबकि केले की जंगली प्रजाति में आज भी बीज पाए जाते हैं। बंदगोबी कभी एक लम्बा पत्तेदार पौधा था जो अब एक ग्लोब जैसा बन चुका है। जंगली स्ट्रॉबेरी की तुलना में हमारे द्वारा उगाई जाने वाली संकर स्ट्रॉबेरी लगभग 10 गुना बड़ी है और अधिक मीठी भी।
इसी तरह हमारे दैनिक उपभोग की लगभग सभी जैविक वस्तुएं आज जिस रूप में हैं जब हमने उनका उपभोग करना प्रारंभ किया था तब वे वैसी नहीं थीं। यही नहीं हमने सेलेक्टिव ब्रीडिंग द्वारा उनकी तमाम किस्में भी विकसित कर ली हैं जो गुण-धर्म में एक दुसरे से एकदम भिन्न हैं। तो जब इतने कम समय में मानवीय हस्तक्षेप सैकड़ों जैव प्रजातियों को आकार दे सकता है तो जरा सोचिये अरबों वर्ष के अंतराल में प्रकृति कितनी जैव विविधताओं को जन्म दे सकती है?
आज दुनिया में मौजूद कुत्तों की प्रजातियाँ एक दुसरे से इतनी भिन्न हैं कि वे देखने में बिल्कुल ही भिन्न जीव लगते हैं। दुनिया का सबसे छोटा कुत्ता टी कप पडल मात्र आधा किलो का है तो तिब्बतियन मेस्टिफ 90 किलो का है। लेकिन बावजूद इसके वे एक ही जीव प्रजाति के अंतर्गत आते हैं। क्योंकि इतना भिन्न दिखने के बावजूद उनका डीएनए बहुत भिन्न नहीं है।
कुत्तों की दो प्रजातियों में आकार व्यवहार के फर्क के कारण भले ही प्राकृतिक रूप से उनका सहवास करना संभव न हो लेकिन यदि कृत्रिम गर्भधान कराया जाए तो मादा एकदम स्वस्थ पिल्लों को जन्म दे सकती है। इससे पता चलता है कि कुत्तों में दो भिन्न प्रजातियों के डीएनए आज भी इतने भिन्न नहीं हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण न कर सकें। लेकिन जब एक ही जीव की दो भिन्न प्रजातियाँ विकासक्रम के एक लम्बे सफ़र पर अलग-अलग विकसित होती हैं तो एक लम्बे कालांतर में एक समय ऐसा आता है जब कि उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण नहीं कर सकते। इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है खच्चर।
खच्चर असल में कोई जीव प्रजाति नहीं है बल्कि यह दो भिन्न जीवों के संयोग से निर्मित है। घोड़े और गधे के कृत्रिम गर्भधान से खच्चर का जन्म होता है। लेकिन खच्चर स्वयं अपनी संतति नहीं पैदा कर सकता, क्योंकि यह नपुंसक होता है। घोडा और गधा एक ही प्राचीन पूर्वज की दो भिन्न वंशबेलें हैं जो कि विकासक्रम में इस अवस्था पर पहुँच चुके हैं जबकि उनका डीएनए आपस में संयुक्त होकर एक स्वस्थ भ्रूण को जन्म नहीं दे सकता।
इसी तरह एक लम्बे कालांतर के बाद ये भिन्नताएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि तब शुक्राणु भी अंडे को निषेचित नहीं कर पाता। शेर और बिल्ली ये दोनों एक ही संयुक्त पूर्वज की भिन्न-भिन्न वंशबेलें हैं। लेकिन ये दोनों अपने विकास के पथ पर इतना आगे निकल चुके हैं कि कृत्रिम गर्भधान द्वारा भी गर्भधारण नहीं हो सकता।
लेकिन यहाँ एक सवाल पैदा होता है, कि आखिर वह क्या कारण है जिसकी वजह से एक ही प्राचीन पूर्वज से उत्पन्न संतानें विकासक्रम में भिन्न-भिन्न मार्गों पर विकसित होती हुयी दो भिन्न प्रजातियाँ बन जाती हैं?
इसका प्रमुख कारण है पृथक्कीकरण। यानी एक ही प्रजाति के दो समूहों के मध्य आया कोई ऐसा अवरोध जो उन्हें आपसी संपर्क से वंचित कर दे। ऐसा दो प्रमुख कारणों से हो सकता है। भौगौलिक कारणों से और ऐच्छिक अथवा व्यहवारगत कारणों से।
भौगौलिक पृथककीकरण में एक ही प्रजाति के दो समूहों के बीच कोई भौगौलिक अवरोध आ जाता है, जिसके कारण वे आपसी संपर्क से वंचित हो जाती हैं और अलग-अलग विकसित होती हैं। एक लम्बे समय अंतराल के बाद उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि भौगौलिक अवरोध न रहने के बावजूद भी वे आपसी संपर्क के इच्छुक नहीं रहते, और यदि संपर्क हो भी जाए तो भी एक स्वस्थ संतति को जन्म देने में असमर्थ होते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि टेक्टोनिक प्लेटों के सरकने के कारण पृथ्वी पर लम्बे कालखंड में मुख्यभूमि से अलग होकर नए महाद्वीपों के बनने और समुद्र में ज्वालामुखीय गतिविधियों के कारण नए द्वीपों के बनने की घटनाएं होती रही हैं जिसकी वजह से कई बार जीव प्रजातियों को भौगौलिक पृथक्कीकरण का सामना करना पड़ा है। इसके साथ ही पर्वतों और घाटियों के बनने और नवीन जलधाराओं द्वारा जमीन के दो हिस्सों को अलग कर देने की घटनाएं भी घटती रही हैं। कई बार भौगौलिक दूरियां भी पृथक्कीकरण का काम करती हैं। डार्विन के मन में क्रमिक विकास के सिद्धांत का विचार जिन जीवों के अध्ययन की वजह से आया उनके भीतर आयी विभिन्नताओं का कारण भौगौलिक पृथक्कीकरण ही था।
गैलापोगस द्वीप समूह ‘जो कि दक्षिणी अमेरिका के निकट प्रशांत महासागर में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है’ की यात्रा के दौरान डार्विन ने पाया कि हर द्वीप पर मौजूद कछुओं और चिड़ियों की प्रजाति एक दुसरे से भिन्न है। उन्होंने यह भी पाया कि वहां के स्थानीय लोग किसी कछुए अथवा चिड़िया को देखकर यह बता देते थे कि यह किस द्वीप की निवासी है। बाद में अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि द्वीपों पर मौजूद भोजन के प्रकार और उस पर पाए जाने वाले जीवों में सीधा सम्बन्ध है।
जैसे निर्जन और पथरीले द्वीपों पर पायी जाने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच काठी के आकार का था वहीं उर्वर द्वीपों पर रहने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच गुम्बदाकार था। निर्जन द्वीपों पर चूँकि भोजन के नाम पर केवल कैक्टस के फल ही मौजूद थे अतः उन तक पहुँचने के लिए कछुओं को अपनी गर्दन को ऊँचा उठाना पड़ता था, गुम्बदाकार कवच जिसमें बाधा था अतः प्राकृतिक चयन ने उन कछुओं को प्राथमिकता दी जो अपनी गर्दन को ऊँचा उठा सकते थे, जिसने कालांतर में काठी के आकार वाले कवच के कछुओं को विकसित किया। आज हम जानते हैं कि डार्विन का सोचना एकदम दुरुस्त था क्योंकि जेनेटिक मैपिंग ने यह सिद्ध कर दिया है कि गैलापोगस द्वीप पर पायी जाने वाली कछुओं की विभिन्न प्रजातियाँ वास्तव में एक ही प्राचीन प्रजाति से विकसित हुयी हैं।
कई बार ऐसा भी होता है कि जीवनयापन के लिए नए अवसरों की तलाश में कोई जीव समूह किसी नए परिवेश अथवा व्यहवार को अपना लेता है, उसकी भावी संततियां भी उसी परिवेश के अनुकूल खुद को ढाल लेती हैं और कोई भौगौलिक बाधा न होते हुए भी अपनी प्रजाति के अन्य समूहों से उनका संपर्क ख़त्म हो जाता है। हालाँकि इस पर वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं।
जैसे अभी हाल ही में उत्तरी अमेरिका में सेबों में अंडे देने वाले वाली एक फल मक्खी में इस व्यवहार को खोजा गया है। सेब के वृक्ष उत्तरी अमेरिका में प्रवासी वृक्ष हैं जिनको 19वीं सदी में बाहर से लाकर रोपित किया गया था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन वृक्षों के फलों में अंडे देने वाली एक फल मक्खी वास्तव में वहां पाए जाने वाले एक फल हाथोर्न में अंडे देने वाली एक फल मक्खी की वंशज है। अभी तक कीटों पर हुए शोध यह बताते हैं कि हर कीट का एक विशेष वृक्ष से सम्बन्ध रहता है। इनका जीवनचक्र उसी वृक्ष विशेष पर निर्भर करता है। यानी हर फल मक्खी किसी विशेष फल पर ही अंडे देती है। लेकिन हाथोर्न फल में अंडे देने वाली एक मक्खी ने नए अवसरों की तलाश में सेब के फल को चुना और उसकी संततियां भी उसी सेब के वृक्ष पर आश्रित हो गयीं और कालांतर में एक नयी प्रजाति के रूप में विकसित हो गयीं।
अब जब चूँकि हम ये जान गए हैं कि किस तरह प्राकृतिक चुनाव नयी जैव प्रजातियों को विकसित करता है तो मन में ये विचार सहज ही आता है कि क्या पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जीवन आपस में सम्बंधित हो सकता है? डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत का दूसरा चरण यही कहता है जिसकी पुष्टि पिछले 150 वर्षों में तमाम वैज्ञानिक शोधों में समय-समय पर होती रही है। यानी धरती पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता एक ही आदि जीव के क्रमिक विकास के फ़लस्वरूप अस्तित्व में आयी है।
दुनिया की सम्पूर्ण जैव विविधता को यदि हम वर्गीकृत करें तो हमें जीवन के विकास का एक विशाल वृक्ष मिलता है जिसमें तमाम शाखाएं उप-शाखाएं हैं। इस वृक्ष की दो भिन्न शाखाओं का उद्गम खोजते हुए यदि हम ऊपर से नीचे आयें तो एक स्थान पर हम पायेंगे कि दोनों शाखाओं का उद्गम एक ही है। यानी धरती पर मौजूद हर जीव किसी दुसरे जीव के साथ कोई संयुक्त पूर्वज साझा करता है। ठीक उसी तरह जैसे आपके दादा जी आपके सगे भाइयों, चचेरे भाइयों, आपके पिता, चाचा, ताया के संयुक्त पूर्वज हैं।
पृथ्वी पर मौजूद जीवन के दो प्रारूप परस्पर कितने ही भिन्न हों लेकिन वे दूर के सम्बन्धी हैं। हम अपनी बात करें तो जीवन के वृक्ष पर चिम्पांजी हमारा निकटतम सम्बन्धी है, उसके बाद गोरिल्ला, ओरेंगोटेन। निकटतम सम्बन्धी होने का अर्थ है कि धरती पर वर्तमान में मौजूद जीव प्रजातियों में चिम्पाजी वह जीव है जिसके साथ मानव सर्वाधिक निकट संयुक्त पूर्वज साझा करता है। लेकिन जीवन के वृक्ष पर जब हम निकटतम संयुक्त पूर्वज की बात करते हैं तो निकटतम का अर्थ भी हजारों से लाखों वर्ष पूर्व हो सकता है।
मानव की वंश शाखा वानर प्रजाति से लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व अलग हुयी और विकास क्रम में विभिन्न मानव प्रजातियों से होती हुयी वर्तमान मानव के रूप में विकसित हुयी। एक समय था जब धरती के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न मानव प्रजातियाँ मौजूद थीं। लेकिन वे सभी विभिन्न कारणों से समय के साथ लुप्त हो गयीं और वर्तमान प्रजाति यानी होमोसेपियंस यानी हम बचे रहने में कामयाब रहे।