Tuesday 4 December 2018

क्रमिक विकास के प्रमाण


क्रमिक विकास का सिद्धांत एक ऐसा सिद्धांत है जिसके बारे में न केवल इसके विरोधियों में बल्कि समर्थकों में भी जानकारी का बेहद आभाव है। लोग इसको लेकर इस कदर भ्रांतियों का शिकार हैं कि अधिकांश लोगों के लिए इस सिद्धांत का अर्थ केवल बंदर से इंसान बनने से है। इसीलिए वे मासूमियत से बार-बार पूछते रहते हैं कि अब बंदर से इंसान क्यों नहीं बन रहा? काश यदि वे इसका विधिवत अध्ययन करते तो समझ पाते कि इस सिद्धांत का सम्बन्ध केवल इंसान और बंदरों से नहीं है बल्कि पूरे जीव जगत से है। और चूँकि यह सिद्धांत इतना विस्तृत है यह भी एक कारण है कि लोगों में इसके बारे में सही जानकारी का आभाव है। क्योंकि इसके सभी पहलुओं को किसी एक लेख यहाँ तक की एक किताब में भी नहीं समेटा जा सकता। फिर हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों में भी इसके बारे में बेहद संक्षित्प्त जानकारी ही उपलब्ध है और भारतीय भाषाओँ में इससे सम्बंधित स्तरीय पुस्तकों का भी आभाव है।
धार्मिक समूह लोगों के अज्ञान का फायदा उठाकर क्रमिक विकास को महज एक सिद्धांत कहकर ख़ारिज करने का प्रयास करते हैं क्योंकि यह न केवल उनके सर्वशक्तिमान ईश्वर के अस्तित्व और उसकी बुद्धिमानी पर प्रश्नचिन्ह लगाता है बल्कि मनुष्य के ईश्वर द्वारा निर्मित सर्वश्रेष्ठ कृति होने के दावे को भी झूठ सिद्ध करता है। वे कहते हैं कि क्रमिक विकास के सम्बन्ध में विज्ञान के पास कोई प्रमाण नहीं है और यह पूरा सिधांत महज एक तुक्के पर आधारित है। जबकि हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। क्रमिक विकास के सबूत हमारे चारों ओर बिखरे हुए हैं। यहाँ तक कि हमारे तमाम शारीरिक अंग स्वयं इसका एक जीता-जागता सबूत है। क्रमिक विकास के पक्ष में विज्ञान के पास सबूतों का कोई आभाव नहीं है बस जरुरत है हमें उन सबूतों को समझने की। आज इस लेख में आपको कुछ ऐसे ही सबूतों से परिचित कराने प्रयास है। लेकिन इससे पहले कि मैं उन सबूतों के बारे में चर्चा शुरू करूँ आपको एक छोटी सी कहानी सुनानी जरुरी है ताकि आप उन सबूतों को ठीक से समझ सकें।
कहानी कुछ इस तरह है कि एक एयरक्राफ्ट इंजिनियर रोजाना अपनी कार से शहर के दुसरे कोने में स्थित अपने ऑफिस का सफर करता था। इस दौरान उसका सामना अक्सर ही भारी ट्रेफिक जाम से होता था। जाम में इंच इंच सरकता वह सोचा करता था कि काश उसके पास उसका व्यक्तिगत एयरक्राफ्ट होता तो वह बिना जाम में फंसे अपने घर से सीधा ऑफिस पहुँच जाया करता। एक दिन उसके मन में विचार आया कि क्यों न वह अपनी कार को ही एयरक्राफ्ट में बदल दे। वह ऐसा कर सकता था क्योंकि उसके पास इससे सम्बन्धित सभी जरुरी तकनीकी योग्यता थी। लेकिन एक अड़चन थी। उसके पास एक ही कार थी जिसे वह एयरक्राफ्ट में तब्दील होने तक गेराज में नहीं छोड़ सकता था। तो उसने तय किया कि वह अपनी कार का इस्तेमाल करना जारी रखेगा साथ ही अपनी कार में रोजाना ऑफिस टाइम से फ्री होकर छोटे छोटे बदलाव करेगा और इस तरह एक दिन वह उसे पूरी तरह एक एयरक्राफ्ट में तब्दील कर देगा। तो उसने ऐसा ही किया और कार के पुर्जों में तमाम जुगाड़ों, सुधारों, बदलावों की एक बेहद लम्बी प्रक्रिया के बाद आख़िरकार अपने रिटायरमेंट के एक दिन पहले उसने अपनी कार को एयरक्राफ्ट में बदल ही दिया।
हो सकता है आप इस कहानी को पढ़ते समय उस इंजिनियर को सनकी समझ रहे हों। आप ऐसा सोच सकते हैं। आप ही नहीं कोई भी समझदार व्यक्ति यही सोचेगा कि उसे इतनी उलझाऊ, जटिल और जुगाड़बाजी वाली प्रक्रिया को अपनाने की जरुरत क्या थी? क्या वह एक बिल्कुल ही नया एयरक्राफ्ट डिजाईन नहीं कर सकता था? जो कि इसकी अपेक्षा न केवल बेहद आसान होता बल्कि कई मामलों में इस जुगाड़ से बहुत बेहतर भी। कोई भी बुद्धिमान रचनाकार जिसके सामने कोई विशेष मजबूरी नहीं है ऐसी जटिल जुगाड़बाजी को अंजाम देने के बजाये चीजों को नए सिरे से बनाना पसंद करेगा। पर यदि आप वास्तव में यह मानते हैं कि धरती का प्रत्येक जीव एक बुद्धिमान रचयिता की बुद्धिमत्तापूर्ण रचना है तो वास्तव में वह रचयिता भी कुछ ऐसा ही सनकी है। उसकी तथाकथित रचनाएं भी अपने भीतर तमाम विसंगतियों को समेटे चीख चीखकर अपने अतीत की गवाही दे रही हैं। जैसे इंजिनियर का एयरक्राफ्ट पूर्व में अपने कार होने की कहानी कह रहा है।
कार के पुर्जों में बदलाव करके बनाये एयरक्राफ्ट और एक ऐसे एयरक्राफ्ट में जिसे शुरुआत से ही उड़ने के लिए डिजाईन किया गया हो में अंतर बता पाना एक आम आदमी के लिए भले मुश्किल हो लेकिन एक इंजिनियर के लिए कतई मुश्किल नहीं है। नए सिरे से केवल उड़ने के उद्देश्य से डिजाईन किये गए एयरक्राफ्ट में हर पुर्जा बिलकुल नए ढंग से तैयार किया गया होगा, हर चीज बिल्कुल ठीक जगह फिट होगी जिसमें कहीं किसी तरह के समझौते अथवा जुगाड़बाजी की कोई गुंजाईश नहीं देखने को मिलेगी और सबसे बड़ी बात उसमें ऐसा कोई भी ऐसा व्यर्थ का पुर्जा नहीं होगा जिसका कोई उपयोग ही न हो। लेकिन जीवों के शरीर के अध्ययन से हमें पता चलता है कि यहाँ जुगाड़बाजी, समझौतों, पश्च-सुधारों और ऐतिहासिक अवशेषों कि भरमार है जो एक बुद्धिमान रचयिता की बुद्धिमानी अथवा उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। जीवों के शरीर में मौजूद क्रमिक सुधारों का इतिहास यह सिद्ध करता है कि सभी मौजूदा जीव किसी बुद्धिमान रचयिता कि रचनाएं नहीं बल्कि एक पूर्णतः भौतिक रूप से संचालित सुधारों कि एक चरणबद्ध प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये हैं, जीवों में सुधारों और अनुकूलन की इस प्रक्रिया को ही क्रमिक विकास(evolution) कहते हैं।
पीढ़ी दर पीढ़ी सुधारों कि यह प्रक्रिया किस तरह जीवों को पूरी तरह बदल देती है लेकिन बावजूद इसके वे अपने अतीत से पीछा नहीं छुड़ा पाते, व्हेल इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। व्हेल समेत अन्य तमाम समुद्री स्तनपायी जीवों जैसे डाल्फिन, समुद्री गाय इत्यादि में गलफड़े नहीं पाए जाते। अर्थात ये सभी जीव मछलियों कि तरह पानी में श्वसन नहीं कर सकते। इसलिए इनको सांस लेने के लिए बार-बार ऊपर आना पड़ता है। कोई बुद्धिमान रचयिता ऐसी गलती कैसे कर सकता है? आखिर उसने पूरा जीवन समुद्र में बिताने वाले जीव को गलफड़े जैसे महत्वपूर्ण अंग से वंचित क्यों रखा?

असल में व्हेल एक ऐसा जलचर जीव है जो देखने में तो किसी विशालकाय मछली जैसी लगती है पर वास्तव में इसके पूर्वज स्तनपायी थलचर थे जिन्होंने आज से लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व खुद को समुद्री जीवन के अनुकूल ढालना शुरू कर दिया था जिसके जीवश्मिक सबूत हमें प्राप्त हुए हैं। यही नहीं इसके शारीरिक अंग भी इसकी गवाही देते हैं। व्हेल का कंकाल एक टिपिकल स्तनपायी कंकाल है जिसकी हड्डियाँ अन्य किसी स्तनपायी जीव जैसी ही भारी हैं। साथ ही इसमें अगले पैरों के साथ पिछले पैरों के अवशेष भी मौजूद हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति यह पूछ सकता है कि आखिर ये अवशेषी हड्डियाँ यहाँ क्यों हैं जब इनका कोई उपयोग ही नहीं तो? एक बुद्धिमान रचयिता ने इन्हें क्यों बनाया?
इसके साथ ही व्हेल और डॉल्फिन का पानी में गति करने का तरीका भी मछलियों से बिल्कुल भिन्न है। मछलियाँ पानी में आगे बढ़ने के लिए अपनी पूंछ को दायें-बाएं हिलाती हैं जबकि व्हेल और डॉल्फिन अपनी पूंछ को ऊपर-नीचे हिलाती हैं। व्हेल और डॉल्फिन का यह तरीका उनके थलचर अतीत की गवाही देता है। थलचर चौपाये दौड़ने के लिए अपनी रीढ़ कि हड्डी को एक स्प्रिंग कि तरह इस्तेमाल करते हैं जो लगातार ऊपर नीचे गति करती रहती है। तो इस तरह व्हेल एक समुद्री जीव होते हुए भी अपने थलचर अतीत से पीछा नहीं छुड़ा सकती। ठीक वैसे ही जैसे उस इंजिनियर का एयरक्राफ्ट उड़ने के बावजूद कार के इंजन से पीछा नहीं छुड़ा सकता।
इसके साथ ही जीवों के शरीर में बहुत सारी डिजाईन सम्बन्धी खामियां भी पायी जाती हैं जो किसी बुद्धिमान रचनाकार के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। जैसे वेगस नाड़ी। लैटिन भाषा में वेगस का अर्थ है घुमक्कड़, जिसको यह चरित्रार्थ भी करती है।
यह नाड़ी उन कुछ नाड़ियों में से है जिसका उदय मस्तिष्क से होता जिसकी कई शाखाएं हैं जिनमें से दो शाखाएं ह्रदय में जाती हैं और दो अन्य शाखायें लेरेंक्स(गले का वह अंदरूनी हिस्सा जो ध्वनि पैदा करता है) में जाता है। जिसमें से एक शाखा तो सीधे लेरेंक्स में चली जाती है लेकिन दूसरी शाखा आश्चर्यजनक रूप से सीने तक जाकर ह्रदय की एक धमनी का चक्कर लगाकर वापस ऊपर गले में लेरेंक्स तक पहुँचती है जबकि इसके इस तरह बेतुके ढंग से बनाये जाने का कोई उपयुक्त कारण नहीं है। यहाँ तक की लम्बी गर्दन वाले जीवों जैसे जिराफ में तो यह मस्तिष्क से सीने में ह्रदय तक और वापस लेरेंक्स तक कई मीटर लम्बा चक्कर लगाती है जो किसी भद्दे मजाक से कम नहीं है। आखिर कोई बुद्धिमान निर्माता ऐसी भयंकर भूल कैसे कर सकता है?

इसका सीधा सा जवाब है क्रमिक सुधारों का सिलसिला ही ऐसी डिजाईन सम्बन्धी खामियों को पैदा कर सकता है जिसमें पिछली गलतियों को संतुलित करने का प्रयास होता है लेकिन उनको पूरी तरह सुधारने की कोई गुंजाईश नहीं होती। क्रमिक विकास केवल कामचलाऊ सुधारों को पैदा करता है।
क्रमिक विकास हमें बताता है कि गरदन वाले जीव बहुत बाद में अस्तित्व में आये। बिना गर्दन वाले जीवों जैसे मछलियों में लेरेंक्स नहीं होता, उनमें वेगस नाड़ी ह्रदय के साथ गलफड़ों के कुछ हिस्सों को नियंत्रित करती है। मछलियों में ह्रदय और गलफड़े आस पास ही होते हैं। लेकिन जैसे जैसे थलचरों और फिर गर्दन वाले जीवों का विकास हुआ जिनमें लेरेंक्स पाया जाता था ने मूल डिजाईन को बहुत हद तक बदल दिया। ह्रदय सीने में चला गया और लेरेंक्स उससे बहुत दूर गले में जा पहुंचा। लेकिन बावजूद इसके यह नाड़ी आज भी अपने मूल मार्ग का ही अनुसरण करती है, जिसके कारण यह आज भी मस्तिष्क से ह्रदय की धमनी का चक्कर लगाकर लेरेंक्स में पहुँचती है।
आँख जीवों की एक बेहद महत्वपूर्ण इंद्री है। लेकिन मानव समेत तमाम थलचरों की आँखें भी डिजाईन सम्बन्धी खामियों से मुक्त नहीं है। आँख की कार्यविधि मोटे तौर पर बिल्कुल किसी कैमरे जैसी ही है जिसमें एक उत्तल लेंस होता है जो सामने से आती रौशनी को एकत्रित कर पीछे पर्दे पर उसकी एक छवि बनाता है जिसे फोटोग्राफिक फिल्म अथवा सेंसर द्वारा कैद कर लिया जाता है जिससे बाद में वही छवि पैदा की जा सकती है। आपको अपनी आँखों की कार्यकुशलता पर गर्व हो सकता है लेकिन कोई भी कैमरा निर्माता अपने कैमरों में आपकी आँखों में मौजूद डिजाईन सम्बन्धी भूल नहीं कर सकता। सपने में भी नहीं।
आपकी आँखों का रेटिना जहाँ छवि बनती है में प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं का एक समूह है, जो प्रकाश को ग्रहण कर उस सुचना को तंत्रिकाओं के एक जाल के जरिये मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं। यहाँ तक तो सब ठीक है लेकिन समस्या यह है कि ये उल्टा है। यानी इसका प्रकाशसंवेदी हिस्सा भीतर की तरफ है और तंत्रिकाओं का जाल बाहर की ओर। प्रकाशसंवेदी कोशिकाओं तक प्रकाश रेटिना की पिछली दिवार से टकराकर पहुँचता है, जहाँ तक पहुँचने के लिए इसको तंत्रिकाओं के जाल से होकर गुजरना पड़ता है और यहाँ तक की इसके मध्य में एक ब्लाइंड स्पॉट भी मौजूद है जिससे प्रकाश पार नहीं हो पाता। यहाँ सभी तंत्रिकाएं आकर एकत्रित होती हैं और किसी सिंकहोल की तरह रेटिना की दीवार से बाहर निकल कर मस्तिष्क तक जाती हैं। लेकिन इतनी बाधाओं और बीच में एक ब्लाइंड स्पॉट के मौजूद होने के बावजूद हमें देखने में कोई समस्या क्यों नहीं होती? कारण है आपका मस्तिष्क, जो एक कुशल ऑनलाइन फोटोएडिटर की तरह कार्य करता है और खाली हिस्सों को भी छद्म जानकारीयों से भर देता है। आप जो कुछ भी आँखों से देखते हैं उसका कुछ हिस्सा मस्तिष्क द्वारा निर्मित है।

आँखों के इस तरह निर्मित होने की वजह भी इसके क्रमिक विकास में छुपी है। आँख तमाम सुधारों से होती हुयी आज अपने वर्तमान स्वरुप में पहुंची है। प्रारंभ में जीवों में कुछ प्रकाशसंवेदी अंग विकसित होने शुरू हुए। इन अंगों से आँखों की तरह स्पष्ट नहीं देखा जा सकता था ये मात्र रौशनी और अँधेरे के फर्क को महसूस करने में मदद करते थे। विकासक्रम के किसी मोड़ पर कुछ जीवों में ये प्रकाशसंवेदी अंग उलटकर भीतर की ओर विकसित होने लगे। चूँकि उस समय तक लेंस का विकास नहीं हुआ था अतः इससे जीवों की प्रकाश को अनुभूत करने की क्षमता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा और लिहाजा आगे भी यह इसी प्रकार विकसित होता रहा और इसके बहुत बाद में जाकर जब एक लेंसयुक्त आँख विकसित हुयी तब भी यह डिजाईन वैसा का वैसा ही रहा। डिजाईन के लिहाज से ऑक्टोपस की आँख किसी भी थलचर जीव की आँख से बेहतर है।
ठीक इसी तरह स्तनपायी जीवों में पुरुष जननांग भी डिजाईन की खामी से जूझ रहे हैं। पुरुष जननांगों से शुक्राणुओं को शिश्न तक पहुँचाने वाली नलिका सीधे शिश्न में न जाकर मूत्राशय की नलिकाओं का चक्कर लगाकर शिश्न तक पहुँचती है। केवल स्तनपायी जीवों में ही पुरुष जननांग बाहर की ओर पाए जाते हैं। बाकी सभी जीवों में ये पेट के भीतर स्थित होते हैं। विकासक्रम ने ही इनको यहाँ पहुँचाया है। जिसका कारण है स्तनपायी जीवों के शरीर का तापमान जो शुक्राणुओं के विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। लेकिन पुरुष जननांगों के बाहर आ जाने के बावजूद शुक्राणुवाहिका आज भी अपने मूल मार्ग का अनुसरण कर रही है। चूँकि इससे इसकी कार्यप्रणाली में कोई विशेष बाधा पैदा नहीं हुयी इसलिए यह डिजाईन आज भी इसी तरह चला जा रहा है।


लेकिन भले ही इससे अधिकांश जीवों को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुयी हो लेकिन फिर भी कुछ जीवों के लिए यह कई बार बहुत समस्या पैदा कर देती है। यहाँ तक कि उन्हें अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ सकता है। मनुष्य भी उन जीवों में से एक है। पुरुष जननांग मानव भ्रूण के प्रारंभिक काल में पेट में ही विकसित होते हैं और भ्रूण के विकास के आखरी दिनों में पेट से अपने नियत स्थान का सफ़र शुरू करते हैं। कई बार बच्चे के जन्म के बाद उसका एक अथवा दोनों जननांग अपनी जगह पर नहीं पहुँच पाते जिसको कई बार ऑपरेशन से बाहर लाना पड़ता है।
इससे सम्बंधित समस्याओं का अंत यहीं नहीं होता। जननांगों के इस सफ़र के कारण बनी इन्गुइनल कैनाल की दीवारें भी समय के साथ कमजोर पड़ जाती हैं और बहुत से मामलों में ये इन्गुइनल हर्निया का कारण बनती हैं जो अधेड़ मर्दों की एक प्रमुख बीमारी है। डिजाईन की इस खामी की वजह से प्रति वर्ष लाखों लोग इस रोग से पीड़ित होते हैं। वर्तमान में इसका मेडिकल उपचार सुलभ होने के कारण आज इस रोग की भयावहता का पता नहीं चलता। जरा सोचिये पुराने समय में जब इसका कोई इलाज उपलब्ध नहीं था कितने मर्दों ने इसके कारण तड़पते हुए असमय अपनी जान गंवाई होगी। यह भयानक भूल एक बुद्धिमान निर्माता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।
इसके साथ ही अवशेषी अंग भी क्रमिक विकास का एक बढ़िया प्रमाण हैं जो एक बुद्धिमान निर्माता पर सवाल खड़े करते हैं। लगभग सभी जीवों में कुछ अंग अथवा उनके अवशेष ऐसे पाए जाते हैं जिनका उस जीव के लिए कोई उपयोग नहीं होता। ये अंग उस जीव के इतिहास की निशानियाँ हैं जिन्हें वह आज भी ढो रहा है। इन अंगों का उपयोग उस जीव के लिए विकासक्रम के किसी दौर में रहा होगा, लेकिन बदलते परिवेश और व्यवहार के कारण आज इनका उस जीव के लिए कोई उपयोग नहीं। जैसे एक बहुत अच्छा उदाहरण उन पक्षियों का जो उड़ने की योग्यता खो चुके हैं, जैसे शुतुरमुर्ग, एमु, पेंगुइन, कीवी इत्यादि।
इन सभी जीवों में पंख अथवा उनके अवशेष मौजूद हैं लेकिन ये उड़ने की योग्यता खो चुके हैं। आखिर कोई बुद्धिमान निर्माता किसी जीव को ऐसे अंग क्यों देगा जिनका उसके लिए कोई उपयोग नहीं? इसका जवाब भी हमें क्रमिक विकास में ही मिलता है। बदलते परिवेश ने इन पक्षियों के लिए उड़ने की जरुरत को ख़त्म कर दिया लिहाजा इनके पंखों का विकास रुक गया। जैसे न्यूज़ीलैण्ड में पाये जाने वाले कीवी पक्षी के पूर्वज वे समुद्री पक्षी थे जो भूगर्भीय गतिविधियों के कारण समुद्र से बाहर आई इस भूमि पर उड़कर पहुंचे थे। इस नयी भूमि पर न केवल भरपूर भोजन उपलब्ध था बल्कि उनके लिए कोई प्रतिस्पर्धा और शिकारी भी मौजूद नहीं था। ऐसे माहौल में वे बिना उड़े पूरा दिन जमीन पर कीड़े खाते हुए व्यतीत करते रह सकते थे।
ऐसा ही एक उदहारण गहरे समुद्र और अँधेरी गुफाओं में पाए जाने वाले जीवों के सम्बन्ध में दिया जा सकता है जो अपनी देखने की क्षमता खो चुके हैं परन्तु आज भी उनकी आँखों के अवशेष मौजूद हैं। आखिर किसी अंग की जरुरत ख़त्म होने पर उसका विकास किस प्रकार रुक जाता है?
असल में कोई अंग अथवा व्यवहार जब तक जीव के सर्वाइवल के लिए आवश्यक है प्राकृतिक चुनाव उसे संरक्षित रखता है। जैसे यदि जेनेटिक म्युटेशन के कारण कोई ऐसा कबूतर पैदा होता है जो कि उड़ने में सक्षम नहीं है तो वह सर्वाइव नहीं कर सकेगा और न ही अपनी संतति बढ़ा सकेगा। लिहाजा इस म्युटेशन को बढ़ने का मौका नहीं मिलेगा। लेकिन किसी नए परिवेश में जहाँ उड़ना सर्वाइवल के लिए जरुरी न हो ऐसे में वह म्युटेशन फैलेगा। और समय समय पर ऐसे म्युटेशनस की वजह से वह अंग अथवा क्षमता प्रभावित होगी।
हम अपनी बात करें तो हमारे शरीर में भी बहुत सारे ऐसे अंग मौजूद हैं। जैसे अपेंडिक्स। अपेंडिक्स वास्तव में हमारी आंत का एक अवशेषी हिस्सा है जो अतीत में किसी समय कच्ची वनस्पति पचाने के काम आता था। लेकिन समय के साथ बदलते खान-पान ने इसकी उपयोगिता को समाप्त कर दिया। आज यह एक अवशेषी अंग के रूप में हमारी आंत के सिरे पर मौजूद है और इसमें होने वाले इन्फेक्शन के कारण बहुत से लोगों को भयंकर पेट दर्द का सामना करना पड़ता है। इसके साथ ही अक्कल दाढ़, पूँछ कि हड्डी, साइनस, टॉन्सिल्स, कान को हिलाने वाली मांसपेशी, इरेक्टेर पिली(रोंगटे खड़े करने वाला तंत्र), आँखों के कोने पर पर पायी जाने वाली झिल्ली और 6 माह के बच्चों में पाया जाने वाला ग्रास्प रिफ्लेक्स( जिसके कारण बच्चा आपकी अंगुली को कसकर पकड़ लेता है वास्तव में अतीत में इसी रिफ्लेक्स के कारण बच्चा अपनी माँ को कसकर पकड़े रहता था। आज भी बंदरों और वानरों में इस व्यवहार को देखा जा सकता है।)
ये तो मात्र कुछ प्रमाण हैं। वास्तव में ऐसे प्रमाण इतनी अधिक संख्या में मौजूद हैं कि ऐसे तमाम प्रमाणों पर एक पूरी किताबों की सिरीज लिखी जा सकती है। ये सभी हमें बताते हैं कि कोई भी जीव किसी बुद्धिमान निर्माता द्वारा निर्मित रचना नहीं है बल्कि वह सुधारों की एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया के कारण ही अपने वर्तमान स्वरुप में पहुंचा है।

डार्विन का क्रमिक विकास सिद्धांत - संक्षिप्त परिचय

क्रमिक विकास का सिद्धांत(Theory of evolution) विज्ञान के इतिहास में अब तक प्रतिपादित कुछ सबसे प्रसिद्द, बेहतरीन और प्रमाणिक सिद्धांतों में से एक है जो विज्ञान की तमाम शाखाओं जैसे जीवाश्म विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, अनुवांशिकी इत्यादि द्वारा उपलब्ध कराये गए अनेकों अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध है। यह सिद्धांत बेहद रोमांचक है क्योंकि यह हमारी कुछ आदिम जिज्ञासाओं का जवाब देता है....हम कहाँ से आये? जीवन कहाँ से आया? ये जैव विविधता कैसे उत्पन्न हुयी?
सदियों से मनुष्य के पास इन सवालों का कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था सिवाय कुछ धर्मजनित दार्शनिक सिद्धांतों के, जो कितने सत्य हैं कोई नहीं जानता था। इस सिद्धांत ने मानवता के इतिहास में पहली बार न केवल मानव को अपने अस्तित्व स्रोत तलाशने का मार्ग दिखाया बल्कि यह भी बताया कि पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता आपस में सम्बंधित है और यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अस्तिव में आई है। यह लेख आपको क्रमिक विकास के मूलभूत सिद्धांतों से आपका परिचय कराने के साथ-साथ वे कैसे कार्य करते हैं यह भी समझने में मदद करेगा।
डार्विन ने सन 1859 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पिशीज’ में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया। जिसके अनुसार प्राकृतिक वरण ही जीवों में बदलावों को गति देता है जिसके कारण लम्बे समय अन्तराल में नयी जैव प्रजातियों का विकास होता है। इस सिद्धांत के तीन प्रमुख बिंदु हैं।
1. किसी एक परिवेश में रहने वाले किसी जीव प्रजाति के सदस्य न केवल शारीरिक रूप से बल्कि गुण व्यवहार इत्यादि से परस्पर आंशिक रूप से भिन्न होते हैं।
2. जिन सदस्यों के गुण उन्हें उस परिवेश में अपनी ही प्रजाति के सदस्यों पर बढ़त प्रदान करते हैं उनके बचे रहने और संतानोत्पत्ति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसी को प्राकृतिक चुनाव अथवा वरण कहा जाता है।
3. इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी प्राकृतिक चुनाव के कारण उन गुणों का निरंतर विकास होता है और एक इसी के कारण एक लम्बे अंतराल में एक बिल्कुल नयी जैव प्रजाति अस्तित्व में आती है।
डार्विन ने जब इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया था तब तक अनुवांशिकी और डीएनए के बारे में कोई ख़ोज नहीं हुयी थी, अतः जीवों में विभिन्नताएं किस कारण से आती हैं इसको समझा नहीं जा सका था। परन्तु आज हम जानते हैं जीवों में भिन्नताएं डीएनए और उसमें कालांतर में होने वाले म्युटेशन के कारण आती हैं।
डीएनए अणुओं की एक चेन जैसी जटिल संरचना होती है जो जेनेटिक सूचनाओं का स्रोत होती है। डीएनए में मौजूद जेनेटिक सूचनाएं ही किसी जीव के शारीरिक विकास, अंगों की बनावट, उनकी कार्यप्रणाली, संतति और व्यवहार को निर्धारित करती है। जीव के शरीर की हर कोशिका में यह डीएनए मौजूद होता है। जब भी कोई कोशिका विभाजित होती है तो वह कोशिका इस डीएनए की कॉपी तैयार करती है। कॉपी तैयार करने की यह प्रक्रिया बेहद कुशल होती है लेकिन फिर भी इसमें अशुद्धि आने की सम्भावना बनी रहती है। हालाँकि अधिकांश मामलों में डीएनए इन अशुद्धियों को स्वतः ठीक कर लेता है। लेकिन फिर भी कुछ मामलों में ये अशुद्धियाँ डीएनए का ही हिस्सा बन जाती हैं इन्हीं अशुद्धियों को म्युटेशन कहा जाता है।
इन म्युटेशन के कारण जीव के शारीरिक अंगों और व्यवहार में कुछ बदलाव आते हैं। ये बदलाव दो प्रकार के हो सकते हैं हानिकारक और लाभदायक। अधिकांश बदलाव हानिकारक ही होते हैं लेकिन कुछ बदलाव लाभदायक भी होते हैं जो उस जीव को अपने परिवेश में अन्य जीवों पर प्रतिस्पर्धा में बढ़त प्रदान करते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति उत्पन्न की संभावनाएं बढ़ जाती हैं और इस तरह वह म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में प्रसारित होता जाता है। जबकि हानिकारक म्युटेशन जीव को प्रतिस्पर्धा में पछाड़ देते हैं जिसके कारण उस जीव के बचे रहने और संतति पैदा करने की संभावनाएं कम हो जाती हैं, फलस्वरूप वे म्युटेशन आगे की पीढ़ियों में नहीं जा पाते और इस तरह प्राकृतिक चुनाव उन्हें चलन से बाहर कर देता है।
जिन जीवों में लैंगिक प्रजनन होता है वहां यह प्रक्रिया और दिलचस्प हो जाती है। चूँकि लैंगिक प्रजनन में दो जीवों के डीएनए आपस में संयुक्त होकर भावी संतति को जन्म देते हैं अतः इस प्रक्रिया में अधिक विविधताओं को जन्म लेने का अवसर प्राप्त होता है, और इसके साथ ही प्रकृति को प्रयोग करने के लिए बड़ा कैनवास मिल जाता है। इस तरह प्राकृतिक चुनाव पीढ़ी दर पीढ़ी जीवों को आकार देता जाता है। किसी जीव प्रजाति में बदलावों का यह सिलसिला एक लम्बे कालांतर में एक बिल्कुल ही नयी जीव प्रजाति को विकसित कर देता है जो दिखने, आकार, प्रकार, व्यवहार में पूर्व प्रजाति से काफी भिन्न होती है। यही क्रमिक विकास है जिसे हम प्रकृति के अद्रश्य हाथों की संज्ञा दे सकते हैं जिसने धरती पर अनगिनत जैव विविधताओं को आकार दिया है।
प्राकृतिक चुनाव किस तरह जैव विविधताओं को आकार देता है इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण हमारे एकदम पास में मौजूद है। मनुष्य का सबसे भरोसेमंद दोस्त जिसकी वफ़ादारी की मिसालें दी जाती हैं, जी हाँ कुत्ते। दुनिया भर में मौजूद कुत्तों की तमाम प्रजातियां ‘जो दिखने में आकार, प्रकार, व्यवहार में एकदूसरे से बहुत भिन्न प्रतीत होती हैं’ वास्तव में एक ही प्राचीन पूर्वज की संतानें हैं।
कुत्तों का विकास लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व भेडियों की एक प्रजाति से हुआ था जो कि अब लुप्त हो चुकी है। शिकार में उपयोगी होने के कारण कुत्ते धीरे-धीरे प्राचीन काल में मौजूद दुनिया के सभी मानव समूहों में पहुँच गए और भिन्न भिन्न स्थानों के पर्यावरण और मानवीय हस्तक्षेप(सेलेक्टिव ब्रीडिंग) ने उन्हें समय के साथ इतने भिन्न-भिन्न रंग रूप और आकारों में ढाल दिया। मानव द्वारा अंजाम दी गयी सेलेक्टिव ब्रीडिंग के कारण कुत्तों की बहुत सी प्रजातियाँ तो मात्र पिछले कुछ 200 वर्ष के दौरान ही विकसित हुयी हैं। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जिस तरह कृत्रिम चयन के कारण जीवों में बेहद कम समय में नाटकीय बदलाव आ सकते हैं ठीक उसी तरह प्राकृतिक चयन भी जीवों को आकार दे सकता है।
हमारे पालतू जानवर और वे वनस्पतियाँ जिनका हम उपभोग करते हैं को हमारे चयन ने इतना बदल दिया है कि वे आज बिल्कुल ही भिन्न रूप में हमारे सामने हैं। अधिक दूध के उत्पादन के कारण दुधारू नस्लों को लगातार बढ़ावा दिए जाने के कारण आज हमारे दुधारू पशु न केवल अपने शिशु की दैनिक आवश्यकता से बहुत अधिक दूध देते हैं बल्कि शिशु की दूध पर निर्भरता ख़त्म हो जाने के बावजूद दूध देते रहते हैं। दुनिया का कोई भी स्तनपायी जीव अपने शिशु के लिए उसकी आवश्यकता से इतने अधिक दूध का उत्पादन नहीं करता। सेलेक्टिव ब्रीडिंग ने केलों से बीजों को गायब कर दिया है जबकि केले की जंगली प्रजाति में आज भी बीज पाए जाते हैं। बंदगोबी कभी एक लम्बा पत्तेदार पौधा था जो अब एक ग्लोब जैसा बन चुका है। जंगली स्ट्रॉबेरी की तुलना में हमारे द्वारा उगाई जाने वाली संकर स्ट्रॉबेरी लगभग 10 गुना बड़ी है और अधिक मीठी भी।
इसी तरह हमारे दैनिक उपभोग की लगभग सभी जैविक वस्तुएं आज जिस रूप में हैं जब हमने उनका उपभोग करना प्रारंभ किया था तब वे वैसी नहीं थीं। यही नहीं हमने सेलेक्टिव ब्रीडिंग द्वारा उनकी तमाम किस्में भी विकसित कर ली हैं जो गुण-धर्म में एक दुसरे से एकदम भिन्न हैं। तो जब इतने कम समय में मानवीय हस्तक्षेप सैकड़ों जैव प्रजातियों को आकार दे सकता है तो जरा सोचिये अरबों वर्ष के अंतराल में प्रकृति कितनी जैव विविधताओं को जन्म दे सकती है?
आज दुनिया में मौजूद कुत्तों की प्रजातियाँ एक दुसरे से इतनी भिन्न हैं कि वे देखने में बिल्कुल ही भिन्न जीव लगते हैं। दुनिया का सबसे छोटा कुत्ता टी कप पडल मात्र आधा किलो का है तो तिब्बतियन मेस्टिफ 90 किलो का है। लेकिन बावजूद इसके वे एक ही जीव प्रजाति के अंतर्गत आते हैं। क्योंकि इतना भिन्न दिखने के बावजूद उनका डीएनए बहुत भिन्न नहीं है।
कुत्तों की दो प्रजातियों में आकार व्यवहार के फर्क के कारण भले ही प्राकृतिक रूप से उनका सहवास करना संभव न हो लेकिन यदि कृत्रिम गर्भधान कराया जाए तो मादा एकदम स्वस्थ पिल्लों को जन्म दे सकती है। इससे पता चलता है कि कुत्तों में दो भिन्न प्रजातियों के डीएनए आज भी इतने भिन्न नहीं हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण न कर सकें। लेकिन जब एक ही जीव की दो भिन्न प्रजातियाँ विकासक्रम के एक लम्बे सफ़र पर अलग-अलग विकसित होती हैं तो एक लम्बे कालांतर में एक समय ऐसा आता है जब कि उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि वे जुड़कर एक स्वस्थ भ्रूण का निर्माण नहीं कर सकते। इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है खच्चर।
खच्चर असल में कोई जीव प्रजाति नहीं है बल्कि यह दो भिन्न जीवों के संयोग से निर्मित है। घोड़े और गधे के कृत्रिम गर्भधान से खच्चर का जन्म होता है। लेकिन खच्चर स्वयं अपनी संतति नहीं पैदा कर सकता, क्योंकि यह नपुंसक होता है। घोडा और गधा एक ही प्राचीन पूर्वज की दो भिन्न वंशबेलें हैं जो कि विकासक्रम में इस अवस्था पर पहुँच चुके हैं जबकि उनका डीएनए आपस में संयुक्त होकर एक स्वस्थ भ्रूण को जन्म नहीं दे सकता।
इसी तरह एक लम्बे कालांतर के बाद ये भिन्नताएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि तब शुक्राणु भी अंडे को निषेचित नहीं कर पाता। शेर और बिल्ली ये दोनों एक ही संयुक्त पूर्वज की भिन्न-भिन्न वंशबेलें हैं। लेकिन ये दोनों अपने विकास के पथ पर इतना आगे निकल चुके हैं कि कृत्रिम गर्भधान द्वारा भी गर्भधारण नहीं हो सकता।
लेकिन यहाँ एक सवाल पैदा होता है, कि आखिर वह क्या कारण है जिसकी वजह से एक ही प्राचीन पूर्वज से उत्पन्न संतानें विकासक्रम में भिन्न-भिन्न मार्गों पर विकसित होती हुयी दो भिन्न प्रजातियाँ बन जाती हैं?
इसका प्रमुख कारण है पृथक्कीकरण। यानी एक ही प्रजाति के दो समूहों के मध्य आया कोई ऐसा अवरोध जो उन्हें आपसी संपर्क से वंचित कर दे। ऐसा दो प्रमुख कारणों से हो सकता है। भौगौलिक कारणों से और ऐच्छिक अथवा व्यहवारगत कारणों से।
भौगौलिक पृथककीकरण में एक ही प्रजाति के दो समूहों के बीच कोई भौगौलिक अवरोध आ जाता है, जिसके कारण वे आपसी संपर्क से वंचित हो जाती हैं और अलग-अलग विकसित होती हैं। एक लम्बे समय अंतराल के बाद उनके डीएनए में इतनी भिन्नताएं आ जाती हैं कि भौगौलिक अवरोध न रहने के बावजूद भी वे आपसी संपर्क के इच्छुक नहीं रहते, और यदि संपर्क हो भी जाए तो भी एक स्वस्थ संतति को जन्म देने में असमर्थ होते हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि टेक्टोनिक प्लेटों के सरकने के कारण पृथ्वी पर लम्बे कालखंड में मुख्यभूमि से अलग होकर नए महाद्वीपों के बनने और समुद्र में ज्वालामुखीय गतिविधियों के कारण नए द्वीपों के बनने की घटनाएं होती रही हैं जिसकी वजह से कई बार जीव प्रजातियों को भौगौलिक पृथक्कीकरण का सामना करना पड़ा है। इसके साथ ही पर्वतों और घाटियों के बनने और नवीन जलधाराओं द्वारा जमीन के दो हिस्सों को अलग कर देने की घटनाएं भी घटती रही हैं। कई बार भौगौलिक दूरियां भी पृथक्कीकरण का काम करती हैं। डार्विन के मन में क्रमिक विकास के सिद्धांत का विचार जिन जीवों के अध्ययन की वजह से आया उनके भीतर आयी विभिन्नताओं का कारण भौगौलिक पृथक्कीकरण ही था।
गैलापोगस द्वीप समूह ‘जो कि दक्षिणी अमेरिका के निकट प्रशांत महासागर में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों का एक समूह है’ की यात्रा के दौरान डार्विन ने पाया कि हर द्वीप पर मौजूद कछुओं और चिड़ियों की प्रजाति एक दुसरे से भिन्न है। उन्होंने यह भी पाया कि वहां के स्थानीय लोग किसी कछुए अथवा चिड़िया को देखकर यह बता देते थे कि यह किस द्वीप की निवासी है। बाद में अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि द्वीपों पर मौजूद भोजन के प्रकार और उस पर पाए जाने वाले जीवों में सीधा सम्बन्ध है।
जैसे निर्जन और पथरीले द्वीपों पर पायी जाने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच काठी के आकार का था वहीं उर्वर द्वीपों पर रहने वाली कछुओं की प्रजाति का कवच गुम्बदाकार था। निर्जन द्वीपों पर चूँकि भोजन के नाम पर केवल कैक्टस के फल ही मौजूद थे अतः उन तक पहुँचने के लिए कछुओं को अपनी गर्दन को ऊँचा उठाना पड़ता था, गुम्बदाकार कवच जिसमें बाधा था अतः प्राकृतिक चयन ने उन कछुओं को प्राथमिकता दी जो अपनी गर्दन को ऊँचा उठा सकते थे, जिसने कालांतर में काठी के आकार वाले कवच के कछुओं को विकसित किया। आज हम जानते हैं कि डार्विन का सोचना एकदम दुरुस्त था क्योंकि जेनेटिक मैपिंग ने यह सिद्ध कर दिया है कि गैलापोगस द्वीप पर पायी जाने वाली कछुओं की विभिन्न प्रजातियाँ वास्तव में एक ही प्राचीन प्रजाति से विकसित हुयी हैं।
कई बार ऐसा भी होता है कि जीवनयापन के लिए नए अवसरों की तलाश में कोई जीव समूह किसी नए परिवेश अथवा व्यहवार को अपना लेता है, उसकी भावी संततियां भी उसी परिवेश के अनुकूल खुद को ढाल लेती हैं और कोई भौगौलिक बाधा न होते हुए भी अपनी प्रजाति के अन्य समूहों से उनका संपर्क ख़त्म हो जाता है। हालाँकि इस पर वैज्ञानिकों में मतभेद रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं।
जैसे अभी हाल ही में उत्तरी अमेरिका में सेबों में अंडे देने वाले वाली एक फल मक्खी में इस व्यवहार को खोजा गया है। सेब के वृक्ष उत्तरी अमेरिका में प्रवासी वृक्ष हैं जिनको 19वीं सदी में बाहर से लाकर रोपित किया गया था। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन वृक्षों के फलों में अंडे देने वाली एक फल मक्खी वास्तव में वहां पाए जाने वाले एक फल हाथोर्न में अंडे देने वाली एक फल मक्खी की वंशज है। अभी तक कीटों पर हुए शोध यह बताते हैं कि हर कीट का एक विशेष वृक्ष से सम्बन्ध रहता है। इनका जीवनचक्र उसी वृक्ष विशेष पर निर्भर करता है। यानी हर फल मक्खी किसी विशेष फल पर ही अंडे देती है। लेकिन हाथोर्न फल में अंडे देने वाली एक मक्खी ने नए अवसरों की तलाश में सेब के फल को चुना और उसकी संततियां भी उसी सेब के वृक्ष पर आश्रित हो गयीं और कालांतर में एक नयी प्रजाति के रूप में विकसित हो गयीं।
अब जब चूँकि हम ये जान गए हैं कि किस तरह प्राकृतिक चुनाव नयी जैव प्रजातियों को विकसित करता है तो मन में ये विचार सहज ही आता है कि क्या पृथ्वी पर मौजूद सम्पूर्ण जीवन आपस में सम्बंधित हो सकता है? डार्विन के क्रमिक विकास के सिद्धांत का दूसरा चरण यही कहता है जिसकी पुष्टि पिछले 150 वर्षों में तमाम वैज्ञानिक शोधों में समय-समय पर होती रही है। यानी धरती पर मौजूद सम्पूर्ण जैव विविधता एक ही आदि जीव के क्रमिक विकास के फ़लस्वरूप अस्तित्व में आयी है।
दुनिया की सम्पूर्ण जैव विविधता को यदि हम वर्गीकृत करें तो हमें जीवन के विकास का एक विशाल वृक्ष मिलता है जिसमें तमाम शाखाएं उप-शाखाएं हैं। इस वृक्ष की दो भिन्न शाखाओं का उद्गम खोजते हुए यदि हम ऊपर से नीचे आयें तो एक स्थान पर हम पायेंगे कि दोनों शाखाओं का उद्गम एक ही है। यानी धरती पर मौजूद हर जीव किसी दुसरे जीव के साथ कोई संयुक्त पूर्वज साझा करता है। ठीक उसी तरह जैसे आपके दादा जी आपके सगे भाइयों, चचेरे भाइयों, आपके पिता, चाचा, ताया के संयुक्त पूर्वज हैं।
पृथ्वी पर मौजूद जीवन के दो प्रारूप परस्पर कितने ही भिन्न हों लेकिन वे दूर के सम्बन्धी हैं। हम अपनी बात करें तो जीवन के वृक्ष पर चिम्पांजी हमारा निकटतम सम्बन्धी है, उसके बाद गोरिल्ला, ओरेंगोटेन। निकटतम सम्बन्धी होने का अर्थ है कि धरती पर वर्तमान में मौजूद जीव प्रजातियों में चिम्पाजी वह जीव है जिसके साथ मानव सर्वाधिक निकट संयुक्त पूर्वज साझा करता है। लेकिन जीवन के वृक्ष पर जब हम निकटतम संयुक्त पूर्वज की बात करते हैं तो निकटतम का अर्थ भी हजारों से लाखों वर्ष पूर्व हो सकता है।
मानव की वंश शाखा वानर प्रजाति से लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व अलग हुयी और विकास क्रम में विभिन्न मानव प्रजातियों से होती हुयी वर्तमान मानव के रूप में विकसित हुयी। एक समय था जब धरती के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न मानव प्रजातियाँ मौजूद थीं। लेकिन वे सभी विभिन्न कारणों से समय के साथ लुप्त हो गयीं और वर्तमान प्रजाति यानी होमोसेपियंस यानी हम बचे रहने में कामयाब रहे।

Tuesday 18 September 2018

इस्लामिक कट्टरवाद और समाधान

कई दशकों से दुनिया की नाक में सबसे ज्यादा दम यदि किसी ने किया है तो वह है इस्लामिक कट्टरवाद और उससे जनित आतंकवाद। सभी देश अपने अपने तरीके से इससे निपट रहे हैं लेकिन भारत में एक तेजी से उभरता वर्ग जिस तरह से इससे निपटना चाह रहा है वह चिंताजनक है। इनके तौर तरीके उन्मादियों वाले हैं जिनमें कोई सूझ-बूझ, कोई दूरगामी नीति की झलक दूर दूर तक दिखाई नहीं देती। ये माथे पर तिलक और हाथों में भगवा झंडे उठाये ऐसे धार्मिक उन्मादियों की भीड़ है जिनके पास अपना कोई दिमाग ही नहीं है। ये लोग ऐसे हैं जैसे आँखों पर पट्टी बांधकर तलवार भांजता कोई तलवारबाज। जो अपने ही लोगों को मार रहा है, जबकि उसका प्रतिद्वंद्वी दूर खड़ा हंस रहा है। इन उन्मादियों की भीड़ को अपने सुरक्षित किलों में बैठे आकाओं द्वारा अपने व्यक्तिगत हितों के लिए रिमोट से संचालित किया जा रहा है। ये वो लोग हैं जिनको समस्या की कोई वास्तविक समझ नहीं है। इनके सामने इनके आकाओं द्वारा जो विकृत सच्चाई परोसी जा रही है और उससे निपटने का जो समाधान सुझाया जा रहा है, ये बस उसी को सच मानकर सड़कों पर निकल पड़े हैं। जबकि ये नहीं जानते कि जिसे ये समाधान समझ रहे हैं वह इनको और इनकी आने वाली कौम को ऐसी मुसीबतों में फंसा देगा जिसकी भरपाई शायद हो ही न पाए।

वैसे भी धार्मिक अंधमूढ़ लोगों के समाधान अक्सर समस्या को सुलझाते नहीं बल्कि उसको और ज्यादा उलझा देते हैं। क्योंकि किसी भी समस्या के सटीक समाधान पर पहुँचने के लिए निष्पक्ष तार्किक विश्लेषण जरुरी है ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। लेकिन निष्पक्ष और तार्किक हो पाना धार्मिक लोगों के लिए असंभव सी बात है। तो होता ये है कि सांप भी नहीं मरता और लाठी भी टूट जाती है।
ये लोग असल में इस्लामिक कट्टरपंथ का जवाब हिन्दू कट्टरपंथ से देना चाहते हैं। इनका मानना है ऐसा करके ये इस्लामिक कट्टरपंथ को परास्त कर देंगे। सच कहूँ तो मुझे इनकी मूर्खता और मासूमियत पर हंसी आती है। जो भी ऐसा सोचता है की इस्लामिक कट्टरपंथ का इलाज हिन्दू कट्टरपंथ है तो वह वास्तव में इस्लाम और हिन्दू धर्म की मूल भावना और दर्शन से बिलकुल अनभिज्ञ है।
भारत में धर्म के उदय का कारण और इसके दर्शन का मूल केंद्र जीवन, प्रकृति और ब्रह्माण्ड को लेकर मानव की सहज जिज्ञासाएं हैं। विस्तारवाद और अधिपत्य स्थापित करने की भावना इसमें अन्य पश्चिमी धर्मों की अपेक्षा बहुत कम है। यही कारण है कि भारत पर आक्रमण करने धरती के दुसरे छोर सुदूर पश्चिम तक से आक्रमणकारी चले आये लेकिन हम किसी पर आक्रमण करने कभी नहीं गए। जबकि इस्लाम के दर्शन का मूल केंद्र ही विस्तारवाद और अपने अधिपत्य की स्थापना करना है। और यह ऐसा कर पाने में बहुत सफल है क्योंकि यह लगभग अपने हर अनुयायी को म्रत्यु के भय से मुक्त कर एक समर्पित सैनिक में बदल देने की क्षमता रखता है जो दिन रात इस्लाम के विस्तार और अधिपत्य की स्थापना के लिए संघर्षशील रहता है। इस्लाम के दर्शन में यह जीवन वास्तविक जीवन नहीं है, यह सिर्फ एक टेस्ट है जो की अल्पकालिक है, असली जीवन जो की अनंतकाल तक रहेगा म्रत्यु के बाद शुरू होगा। ऐसा व्यक्ति जिसका इस दर्शन में अटूट विश्वास हो कुछ भी कर गुजर सकता है। इसके साथ ही इस्लाम का संघीय ढांचा बेहद मजबूत और अभेद है और इसके भीतर बेहद कुशल संगठनात्मक योग्यताएं भी हैं। यही कारण है कि अपने उदय के बाद मात्र कुछ ही शताब्दियों में यह पश्चिम में यूरोप की सीमाओं तक और पूर्व में मध्य एशिया को पार करते हुए भारत तक में फ़ैल गया।
इसलिए यदि आप धार्मिक कट्टरता को हथियार बनाकर इस्लामिक कट्टरपंथ से मुकाबला करने उतर रहे हैं तो आप भारी भूल कर रहे हैं। आप इसके सामने कहीं भी नहीं ठहरते। आपकी हार सुनिश्चित है। भले ही आप कितने ही कट्टर धार्मिक संगठन खड़े कर लें या आवाम में पूरे जोर शोर से धार्मिक कट्टरता का प्रचार कर लें फिर भी वह आपको उस उत्कृष्टता पर नहीं पहुंचा सकती कि आप कट्टर इस्लाम का मुकाबला कर सकें। क्योंकि आपके धर्म के डीएनए में ही वह चीज नहीं है। उस उत्कृष्टता पर पहुँचने के लिए आपको हिन्दू धर्म का पूरा दर्शन ही बदलना पड़ेगा। जो की असंभव के साथ साथ औचित्यहीन भी है।
यूँ समझिये इस्लाम अपने कट्टरतम स्वरुप में एक चतुर और खूंखार शिकारी है, जबकि हिन्दू धर्म अपने कट्टरतम स्वरुप में मात्र एक आसान शिकार। भारत की 800 वर्ष लम्बी गुलामी और इस दौरान भी हिन्दुओं में स्वतंत्रता की जनचेतना का न पैदा हो पाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हिन्दू धर्म में वर्चस्व और अधिपत्य स्थापित करने की भावना अन्य धर्मों की अपेक्षा कितनी कम है। भारत में स्वतंत्रता की चेतना भी अंग्रेजों के आगमन के बाद अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण पैदा हुए वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का परिणाम थी। भारत के जनमानस को वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से विमुख कर धार्मिक कट्टरता की ओर मोड़ देने के विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। क्योंकि कट्टरता की इस प्रतिस्पर्धा में कट्टर इस्लाम का जीतना तय है। किसी भी समाज में बढती धार्मिक कट्टरता और घटता वैज्ञानिक द्रष्टिकोण कट्टर इस्लाम के लिए शुभ संकेत है। क्योंकि यह उसको वह अनुकूल वातावरण प्रदान करता है जहाँ वह अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर अपना वर्चस्व आसानी से स्थापित कर सकता है। एक युक्ति से समझाने की कोशिश करता हूँ।
मगरमच्छ पानी के भीतर एक शक्तिशाली और अपराजेय शिकारी है। आपको यदि तैरना भी ठीक से न आता हो और आप पानी में घुसकर मगरमच्छ से लड़ने की योजना बना रहे हैं तो आप आत्महत्या की तैयारी ही कर रहे हैं। पानी में मगरमच्छ को पराजित करना असंभव है। क्योंकि उसके शरीर का एक एक अंग पानी में शिकार करने के लिए ही विकसित हुआ है। पानी के भीतर वह अपने से कई गुना बड़े जानवरों को भी चित कर सकता है। इसलिए मगरमच्छ को पराजित करने के लिए पानी में घुसना बेवकूफी है। बेहतर है कि उसे पानी से निकलने पर मजबूर कीजिये और फिर जमीन पर उसे मात दीजिये। ठीक इसी तरह यदि इस्लामिक कट्टरपंथ को मात देनी है तो स्वयं कट्टरता में मत उतरिये, क्योंकि वहां आप उसे मात नहीं दे पायेंगे बल्कि उसकी राह ही आसान करेंगे। दुनिया में कट्टरपंथ का तालाब जितना बढेगा इस्लामिक कट्टरपंथ के मगरमच्छ को फलने फूलने का उतना ही अवसर मिलेगा। हमें इस तालाब के दायरे को बढाने में सहयोग नहीं देना चाहिए, बल्कि समाज में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का ज्यादा से ज्यादा प्रसार करना चाहिए। ताकि कट्टरपंथ का ये तालाब सिकुड़े और मगरमच्छ को आसानी से मारा जा सके।
इसलिए यदि आप धार्मिक कट्टरता के वशीभूत होकर मुसलमानों के खिलाफ दिन रात जहर उगल रहे हैं, उनके प्रति अपनी नफरत का इजहार कर रहे हैं, उनको पीटकर या उनकी हत्या करके इस्लामिक कट्टरपंथ को पराजित करने का गर्व पाल रहे हैं तो इस मुगालते से जितना जल्द हो सके बाहर आईये। ऐसा करके आप इस्लामिक कट्टरपंथ को और ज्यादा फलने फूलने का अवसर ही प्रदान कर रहे हैं। आपकी ये हरकतें इस्लामिक कट्टरपंथियों के लिए उनके कुत्सित मंसूबों को पूरा करने की राह ही आसान कर रही हैं। ऐसा करके आप बिल्कुल वही कर रहे हैं जैसा वे चाहते हैं। वे तो चाहते ही हैं कि भारतीय समाज में हिन्दू और मुस्लिमों की बीच वैमनस्य बढ़े। ताकि वे बदले की भावना से भरे ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी विचारधारा की ओर आकर्षित कर सकें। जब कोई पहलू खान पीट पीटकर मार दिया जाता है या फिर कोई शम्भू किसी अफराजुल शेख की निर्ममता से हत्या कर देता है और फिर उसके समर्थन में तमाम हिन्दू संगठन सड़कों पर उतर पड़ते हैं। उसको आर्थिक सहायता पहुँचाने के लिए बाकायदा कैम्पेन चलाये जाते हैं तो ये बहुत खतरनाक स्थिति है। क्योंकि उससे पैदा हुए क्रोध, भय और असुरक्षा के कारण कट्टरपंथियों के लिए कुछ और मुसलमानों को गंगा जमुनी तहजीब से विमुख कर कट्टरता की ओर मोड़ देना बहुत आसान हो जाता है। आतंकवादियों को ऐसी ही घटनाओं का हवाला देकर जेहाद के लिए तैयार किया जाता है। इस तरह आप अपने घर में ही दुश्मन पैदा कर लेते हैं।
आपको याद रखना चाहिए आपकी लड़ाई इस्लामिक कट्टरपंथ से है मुसलमानों से नहीं। यदि आप इन दोनों में फर्क नहीं कर पा रहे हैं और दोनों को एक ही तराजू में तोल रहे हैं तो आप भारी भूल कर रहे हैं। इस भूल की भरपाई आपको भविष्य में भीषण गृहयुद्ध के रूप में करनी पड़ सकती है। जिसमें न केवल जानो माल की भारी क्षति होगी बल्कि देश का विकास बुरी तरह प्रभावित होगा और देश कई दशक पीछे चला जायेगा। हो सकता है इस कारण से देश को एक और विभाजन झेलना पड़ जाए। क्योंकि मुस्लिम समुदाय संख्या के लिहाज से देश का दुसरे नम्बर का समुदाय है। जब आप मुस्लिम समुदाय की बात करते हैं तो आप 18 करोड़ लोगों की बात कर रहे हैं। यदि आप सोचते हैं कि वे सभी इस देश को छोड़कर कहीं और चले जायें या फिर वे सभी घरवापसी करके हिन्दू बन जायें तो ये असंभव बात है। दोनों समुदाय आपस में समन्वय से रहें ऐसा ही कोई मार्ग निकालना होगा। यही देश हित में है। धार्मिक और राजनितिक ताकतें अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए आपको लगातार जिस राह पर चलने के लिए उकसा रही हैं वह राह सिर्फ और सिर्फ बर्बादी की ओर जाती है।
इस्लामिक कट्टरपंथ से निपटने के लिए आपको हिन्दू कट्टरपंथ की शरण में जाने, मुसलमानों के प्रति घ्रणा पालने और उनसे दो दो हाथ करने की जरुरत नहीं है। इससे निपटने का एक ही तरीका है कि समाज में ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का प्रसार किया जाए, समाज को धार्मिक कूपमंडूकता से मुक्त कर स्वतंत्र सोच को विकसित होने का अवसर प्रदान किया जाये। क्योंकि यही वे चीजें हैं जिससे इस्लामिक कट्टरपंथियों को सबसे ज्यादा तकलीफ होती है। क्योंकि यही इनकी सत्ता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। इनका बस चले तो दुनिया से सारा ज्ञान विज्ञान नष्ट करके इसे वापस मध्य युग में पहुंचा दें। आज दुनिया में बढती आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के कारण इनके पेटों में मरोड़ें उठती हैं। क्योंकि आधुनिक शिक्षा और मोबाइल इन्टरनेट के कारण ज्ञान तक बढती पहुँच के कारण बहुत से मुस्लिम कट्टरता को त्याग रहे हैं। आज मुस्लिमों में बढती नास्तिकता इनकी चिंता का मुख्य केंद्रबिंदु है। इसलिए ये हमेशा आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हैं। निर्मम हत्याओं के लिए कुख्यात आतंकवादी संगठन बोको हराम की आधारशिला आधुनिक शिक्षा के विरोध पर रखी है। बोको हराम का अर्थ ही है पश्चिमी शिक्षा हराम है। आज के दौर में यदि कोई चीज इनको सबसे ज्यादा खौफजदा कर रही है तो वह यही है जिसको रोकने के लिए ये अपनी ओर से भरसक प्रयास कर रहे हैं। इसलिए यदि आप वास्तव में इस्लामिक कट्टरपंथ को परास्त करने के लिए गंभीर हैं तो हमें उन सभी मोर्चों पर काम करना होगा जिससे समाज में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण बढ़े।
सबसे पहला काम तो शिक्षा के मोर्चे पर करने की जरूरत है। हमें सरकार पर दवाब बनाना चाहिए कि वह देश में सभी को गुणवत्ता युक्त शिक्षा उपलब्ध कराना सुनिश्चित करे। शिक्षा के पाठ्यक्रमों में व्यापक बदलाव हो ताकि समाज में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण को बढाया जा सके। साथ ही हमें एकजुट होकर सरकार से मांग करनी चाहिए कि वह बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने वाले सभी धार्मिक शिक्षण संस्थानों ‘फिर चाहे वे मदरसे हों या आश्रम’ पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगाये। बच्चे किसी धर्म विशेष की बपौती नहीं हैं, बच्चे राष्ट्र की संपत्ति और देश का भविष्य हैं। इसलिए आधुनिक गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर सभी बच्चों का हक है जो उनको हर हाल में मिलनी ही चाहिए। धार्मिक शिक्षा लेने न लेने का निर्णय वे बालिग होने पर कर सकते हैं।
दूसरा काम जिसके लिए जोर शोर से प्रयास किया जाना चाहिए वह है देश में सभी धार्मिक कानूनों को समाप्त करके एक समान नागरिक संहिता की स्थापना। धार्मिक कानूनों के कारण समाज में धर्म के ठेकेदारों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हो गए हैं जिसकी आड़ में वे न केवल समाज का शोषण करते हैं बल्कि लोगों को डरा धमकाकर धार्मिक नियमों को मानने के लिए बाध्य करते हैं। नागरिक कानूनों में धर्म का बिल्कुल भी दखल नहीं होना चाहिए। देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए।
तीसरा काम सार्वजानिक रूप से किये जाने वाले किसी भी तरह के धार्मिक प्रचार पर रोक। किसी को भी सार्वजानिक रूप से धार्मिक प्रचार अथवा वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के विरुद्ध किसी भी बात का प्रचार करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। सार्वजानिक सभाओं के अतरिक्त संचार के सभी साधनों जैसे रेडियो, टीवी, अख़बार, पत्रिकाएं, मोबाइल इत्यादि पर ऐसा कोई भी प्रचार करना अवैध होना चाहिए। यदि किसी को धार्मिक प्रचार करना है तो वह सिर्फ व्यक्तिगत संपर्क के माध्यम से ही किया जा सके ऐसा कोई नियम बनना चाहिए।
इसके अतरिक्त सभी लोग जो वैज्ञानिक द्रष्टिकोण रखते हैं समाज में इसका ज्यादा से ज्यादा प्रसार करें और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण के विरुद्ध होने वाले सभी कार्यों की कड़ी आलोचना करें तथा ऐसा करने वालों को हत्सोत्साहित करने का हर संभव प्रयास करें। इसके साथ ही समाज में दोनों समुदायों के बीच मेलजोल का प्रयास भी करना होगा। इसके लिए त्योहारों को मिलजुल कर मनाने की परम्परा के साथ साथ अंतरजातीय विवाहों को बढ़ावा देना भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।
ये कुछ सुझाव हैं जो मेरी समझ में आते हैं जिनसे हम न केवल इस्लामिक कट्टरपंथ से बेहतर ढंग से निपट सकते हैं बल्कि अपने समाज को भी एक बेहतर प्रगतिशील समाज बना सकते हैं। इनके अतरिक्त भी और बहुत से सुझाव ऐसे हो सकते हैं जो अपनाये जा सकते हैं। यदि आपके पास भी कोई ऐसा सुझाव या विचार है तो आप कमेंट में सुझा सकते हैं।
यदि आप अति धार्मिक हैं तो हो सकता है ये सुझाव आपको समझ न आयें। लेकिन इस मामले में आप चाहें तो पश्चिम से सीख सकते हैं। उन्होंने इस्लामिक कट्टरपंथ से निपटने के लिए वैज्ञानिक द्रष्टिकोण का दामन नहीं छोड़ा, न ही धार्मिक कट्टरता को अपनाया। और आज वही हैं जो न केवल इसका मुकम्मल इलाज कर रहे हैं बल्कि अपनी सूझ बूझ से इसको अपने फायदे के लिए इस्तेमाल भी कर रहे हैं।

बुद्धत्व vs चूतियत्व

मानव जीवन के दो ऐसे छोर हैं जहां पहुंचकर व्यक्ति सभी दुखों से मुक्त होकर परम शांति, परम आनंद को उपलब्ध हो सकता है। एक छोर है "बुद्धत्व" और दूसरा "चूतियत्व"
बुद्धत्व वह छोर है जहां व्यक्ति को सारा जीवन प्रपंच समझ आ जाये। उसकी समझ इतनी विकसित हो जाए कि वह जीवन की समस्याओं से आन्तरिक तौर पर प्रभावित हुए बिना उनके युक्तिपूर्ण हल को खोजकर उनके निवारण समेत अपने समस्त जीवन कर्तव्यों में निष्काम भाव से लगा रहे। वहीं चूतियत्व वह छोर है जहां व्यक्ति सभी जीवन प्रपंचों और समस्याओं से यूँ बेखबर होकर मस्त हो जाए जैसे मानो वो हों ही न।
सरल शब्दों में कहें तो बुद्धत्व जहाँ समझदानी का चरम विकास है वहीं चूतियत्व समझदानी की नसबंदी। यह भारत की पुन्य भूमि का प्रताप ही है कि यहाँ पैदा हुए महापुरुषों ने जीवन के दोनों छोरों पर झंडे गाड़े हैं। बुद्धत्व के छोर पर पहुँचने वाले भले ही गिनती के हों लेकिन चूतियत्व के मामले में तो हम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं। शायद यहाँ की आबो हवा में ही कुछ ऐसे दिव्य तत्व हैं कि यहाँ की लगभग आधे से अधिक जनसँख्या बिना किसी विशेष प्रयास के सहज ही चूतियत्व को उपलब्ध है।
मतलब आधी से अधिक जनसँख्या ऐसी खुमारी में जी रही है जो ठन्डे पानी की बाल्टियाँ उड़ेलने से भी नहीं जाती। वे वास्तविक समस्याओं को नजरंदाज कर ऐसी उठापटक में व्यस्त रहते हैं जिससे उनके और उनकी आगामी पीढ़ियों के जीवन में कोई सकारात्मक बदलाव आने की आशा नहीं है। उनको जगाने के सभी प्रयास निष्फल हो चुके हैं। जैसे कोई शराबी नाली में पड़ा लोट रहा हो और जिसका मुहँ श्वान चाट रहे हों, लेकिन वह इस सब से बेखबर अपने स्वप्नलोक में अप्सराओं का चुम्बन कर रहा हो। हालाँकि शराबी का नशा उतरने के बाद उसे होश आ जाता है और वह जो हुआ उस पर लज्जित भी होता है। लेकिन चूतियत्व को उपलब्ध व्यक्ति के जीवन में यह क्षण कभी नहीं आता। क्योंकि उसका तो पूरा जीवन ही खुमारी में बीत जाता है।
बाहर से सैलानी जब भारत भ्रमण पर आते हैं तो वह बात जो उन्हें सबसे ज्यादा आश्चर्य से भर देती है वह ये कि ऐसी नारकीय स्थितियों में गुजर बसर करने के बाद भी ये लोग इतने खुश कैसे हैं? वे लोग इसे भारतीय संस्कृति में निहित योग और अध्यात्म का प्रभाव मानते हैं। विदेशी सैलानी ऐसा समझते हैं कि योग और अध्यात्म के प्रभाव से यहाँ के लोग करीब करीब बुद्धत्व को उपलब्ध हो चुके हैं। यही कारण है कि ये लोग इतनी चरम स्थितियों में रहने के बावजूद इतने प्रसन्न हैं। और ऐसा समझ वे बेचारे भी किसी गुरु की खोज में निकल जाते हैं। ऋषिकेश, हरिद्वार, काशी और न जाने कहाँ कहाँ भटकते फिरते हैं। जबकि वे नहीं जानते कि जन्हें वे बुद्धत्व को उपलब्ध समझ रहे हैं वे असल में चूतियत्वधारी हैं।

भारत में पाँव पसारता अन्धविश्वास और बाबावाद

यदि किसी समाज का आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत बौद्धिक विकास न हो तो वह समाज अंधविश्वासों में और भी गहरे धंसता चला जाता है। फिर उस समाज में लोगों के अंधविश्वास का फायदा उठाकर अपना घर भरने वाले परजीवियों का साम्राज्य विकसित होने लगता है। भारत के मामले में यही हुआ है। 90 के दशक में उदारीकरण के बाद मध्यम वर्ग के लोगों के जीवन स्तर में तेजी से सुधार हुआ। इससे पहले जहाँ टीवी, फ्रिज और स्कूटर जैसे सुख साधन कुछ खास लोगों की पहुंच में ही हुआ करते थे, फिर ये आम लोगों की पहुंच में भी आने लगे। जब लोगों की आमदनी बढ़ी तो उसके साथ ही बाजार भी तरह तरह के उत्पादों से पट गया। फिर स्वयं को एक दुसरे से श्रेष्ठ और साधन संपन्न दिखाने की होड़ शुरू हुयी।

इस होड़ ने मध्यम वर्ग की शांत जिन्दगी में खलबली मचा दी। एक दौड़ शुरू हो गई जिसमें सबको आगे निकलना था। महत्वकांक्षाओं से संचालित इस दौड़ ने लोगों के मन में भय, असुरक्षा और लालच को जन्म दिया। लालच से भरे डरे हुए लोग परजीवियों के लिए एक आसान शिकार थे। और इस शिकार के लिए उन्हें कोई विशेष प्रयास की आवश्यक्ता भी नहीं थी। उन्हें तो बस अपना मुहँ खोलकर बैठ जाना था, क्योंकि शिकार तो खुद ब खुद चलकर उनके पास आ रहा था।
इस दौरान लोगों द्वारा धार्मिक कार्यों में किया जाने वाला खर्च अचानक ही बहुत बढ़ गया। पहले जहाँ धार्मिक आयोजन के नाम पर बस सत्यनारायण की कथा हुआ करती थी अब माता के जागरण जैसे भव्य आयोजन होने लगे। ऐसे आयोजनों ने लोगों को अपनी संपन्नता और धार्मिकता के प्रदर्शन का अवसर तो मुहैया कराया ही इनके साथ साथ दैवीय कृपा प्राप्त कर लेने का आश्वासन भी दिया। देखते ही देखते देश भर में जागरण पार्टियों की बाढ़ आ गई। इसके साथ ही धार्मिक पर्यटन और मंदिरों की आय में भी भारी वृद्धि हुयी।
इससे पहले जहाँ लोग जीवन में एक बार तीर्थ यात्रा संपन कर लेने को उपलब्धि मानते थे वहीँ अब पिकनिक की तरह तीर्थ यात्राएं होने लगीं। यहाँ तक की बद्रीनाथ केदारनाथ और अमरनाथ जैसे दुर्गम तीर्थ स्थलों पर भी लोग हर वर्ष हाजिरी देने जाने लगे। जो थोड़े कम साहसी थे उन्होंने अपने आस पास ही किसी धर्मस्थल को चुन लिया जहाँ वे नियमित अन्तराल पर हाजिरी लगाने जाने लगे। जैसे मथुरा वृन्दावन में हर सप्ताहांत पर आस पास की जगहों से लोग पहुँच जाते हैं। इनमें सबसे ज्यादा संख्या दिल्ली एनसीआर के संपन्न लोगों की होती है। इनमें से कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो हर सप्ताह दिल्ली से बिना नागा हाजिरी देने पहुँच जाते हैं। विशेष अवसरों पर तो यहाँ इतनी भीड़ जुटती है कि व्यवस्था चरमरा जाती है। तीर्थयात्रियों की बढती भीड़ को भुनाने के लिए पिछले कुछ वर्षों के दौरान यहाँ कई भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ है।
इसके साथ ही कथावाचकों और प्रवचनकर्ताओं का धंधा भी चल निकला। कथावाचकों के पंडालों में भीड़ उमड़ने लगी। आसाराम तथा उस जैसे कई अन्य कथावाचकों ने इस अवसर का जमकर लाभ उठाया और स्वयं को एक ब्रांड की तरह धर्म और अध्यात्म के बाजार में स्थापित कर लिया। उनके अनुयायियों की भारी भीड़ ने उनको शोहरत और राजनीतिक ताकत के साथ साथ ढेर सारा धन भी दिया। इस धन का उपयोग उन्होंने अपने प्रचार के लिए किया और इसके जरिये प्रचार के सबसे सशक्त माध्यम टीवी तक अपनी पहुँच बना ली। अब इनके प्रोग्राम टीवी पर प्रसारित होने लगे। लगभग सभी मुख्य चैनलों पर सुबह का स्लॉट इनके लिए बुक हो गया। टीवी पर आना इनके लिए बहुत फायदे का सौदा साबित हुआ। टीवी के जरिये इन्होने घर घर तक अपनी पहुँच बना ली और इनके अनुयायियों की संख्या और साथ ही लाभ में भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ोतरी हुई। इसने मिडिया जगत में कुछ लोगों के कान भी खड़े कर दिए। वे भी इस धर्म और अध्यात्म की बहती गंगा में लाभ की संभावनाएं तलाशने लगे।
मुंबई में एक प्रोडक्शन हाउस चला रहे भूतपूर्व पत्रकार माधव कान्त मिश्रा ने इस सम्भावना को सबसे पहले पहचाना और सन 2000 में उन्होंने आस्था नामक चैनल को लांच कर दिया। इस चैनल ने जनता तक अपनी पहुँच बनाने के लिए बेताब बहुत से गुरुओं और कथावाचकों के लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए। शुरू में इस चैनल पर प्रसारित होने वाली सामग्री के लिए कोई कीमत नहीं वसूली जाती थी। लेकिन बढती मांग ने इसको ज्यादा दिन फ्री नहीं रहने दिया। क्योंकि ऐसे बाबाओं और गुरुओं की कोई कमी नहीं थी जो खुद को टीवी पर दिखाने के लिए अच्छी खासी कीमत देने को तैयार थे। इस बढती मांग को भुनाने के लिए धडाधड धार्मिक चैनल लांच होने लगे। इन चैनलों में अधिकांश का स्वामित्व किसी न किसी धर्मगुरु के पास ही था। इस तरह इन चैनलों के जरिये ये दोहरा लाभ कमाने लगे। आस्था चैनल के स्वामित्व को भी बाद में बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण ने खरीद लिया। बाबा रामदेव को योगगुरु से एक सफल व्यवसायी के रूप में स्थापित करने में इस चैनल का बहुत बड़ा हाथ है।
टीवी के जरिये होने वाले प्रचार की सबसे बड़ी खासियत यह है कि आप सीधे ही लक्षित उपभोक्ताओं तक पहुँच बना सकते हैं। आज के दौर में टीवी देखने में ज्यादा समय व्यतीत करने वाले अधिकांश लोग औसत बुद्धि के ही होते हैं। उनमें भी जो लोग धार्मिक चैनलों को देखते हैं वे तो बुद्धि में औसत से भी नीचे होते हैं। ऐसे लोगों को आसानी से बुद्धू बनाया जा सकता है।
इन चैनलों ने किसी तरह जजमानी करके गुजारा कर रहे ज्योतिषाचार्यों को भी संभावनाओं का मार्ग दिखाया। जीवन की दौड़ में आगे निकलने को लालायित और जीवन की अनिश्चितताओं से डरे हुए लोग अपना भविष्य जान लेने को आतुर थे। वो वह हर संभव तरकीब आजमा लेना चाहते थे जिससे वे किसी तरह सम्रद्धि हासिल कर सकें और जीवन की अनिश्चितताओं को लेकर संतुष्ट हो सकें। ऐसे लोगों का दोहन करने के लिए ज्योत्षी, वास्तुशास्त्री, हस्तरेखा विशेषज्ञ, तांत्रिक, टैरो कार्ड रीडर जैसे परजीवी तैयार बैठे थे। टीवी ने इनको अपने प्रचार का मंच उपलब्ध करा ही दिया था। कुछ ही समय में धार्मिक चैनलों पर ज्योतिष के प्रोग्रामों की लाइन लग गई। फुटपाथ पर बिकने वाली ज्योतिष की चार किताबें पढकर अपनी वाकपटुता और लोगों के ठगने के टैलेंट में निपुण लोग टीवी पर ख़रीदे हुए स्लॉट के जरिये प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य बन गए।
टीवी के जरिये ज्योतिष का इतना अंधाधुंध प्रचार हुआ कि लोग हर छोटी बड़ी बात के लिए ज्योत्षियों के पास भागने लगे। नयी कार निकालने से लेकर बच्चे के जन्म का मुहूर्त भी ज्योतिष के आधार पर निर्धारित किया जाने लगा। लोग अपने घर का नक्शा बनवाने के लिए आर्किटेक्ट के बजाये वास्तुशास्त्रियों को महत्व देने लगे और जिनके घर बन चुके थे वे अपने घर को वास्तु के अनुसार तोड़फोड़ कर ठीक कराने लगे। अब लगभग सभी लोगों के हाथों में जेमस्टोन और गले में तरह तरह के लॉकेट दिखाई देने लगे। ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए लोग ज्योत्षियों की सलाह पर महंगे महंगे पूजा-पाठ, मन्त्र जाप और हवन इत्यादि करवाने लगे।
ये चैनल ठगों के लिए इतना उपयोगी माध्यम साबित हुए की कल तक अख़बारों के क्लासिफाइड, बसों, ट्रेनों और सार्वजानिक शौचालयों में पर्चे चिपकाकर अपना प्रचार करने वाले बाबा बंगाली भी टीवी पर अपनी दुकान खोलकर बैठ गए। फिर समोसे को लाल हरी चटनी से खाने पर भी कृपा आने लगी। बस स्टैंड के पीछे, पीपल के पेड़ के नीचे मर्दाना कमजोरी का इलाज करने वाले हकीम जी भी टीवी पर पहुँच गए। मोटापा, डायबिटीज, कैन्सर, माइग्रेन, अस्थमा जैसी बिमारियों के लिए प्राकृतिक चिकित्सा के नाम पर तरह तरह के उत्पाद बेचे जाने लगे। जिन लोगों ने कभी कॉलेज का मुहँ भी नहीं देखा वे भी टीवी पर डॉ साहब, वैध जी, हकीम जी के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
बरहाल ये दौर अभी भी जारी है और निकट भविष्य में भी इसमें किसी बड़े बदलाव के आसार फ़िलहाल दिखाई नहीं दे रहे हैं। अन्धविश्वास का जहर आज भी लगातार विभिन्न माध्यमों से समाज में फैलाया जा रहा है। भारत में तेजी से पैर पसारते बाबावाद के पीछे यही प्रचार जिम्मेदार है जिसका पैसा आता तो अमीरों की जेब से है, लेकिन इससे सबसे ज्यादा नुकसान निम्न वर्ग के लोगों का हुआ है। क्योंकि रईस लोगों ने तो केवल अपना थोड़ा सा धन खोया, लेकिन वे गरीब लोग जो किसी तरह कठिनाईयों में अपना जीवनयापन कर रहे हैं अपना सब कुछ लुटा बैठे। जिन बाबाओं और गुरुओं को वे ईश्वर के समकक्ष मान कर अपने उद्धार की आशा कर रहे थे उन्होंने न केवल उन्हें मानसिक और आर्थिक रूप से ठगा बल्कि उनकी बहन बेटियों की इज्जत भी तार-तार कर डाली।

पीपल और प्रचलित भ्रांतियां

हिन्दू आस्था में पीपल के पेड़ को पूजनीय माने जाने पर कुछ लोग तर्क देते हैं कि पीपल ही एकमात्र ऐसा पेड़ है जो रात में भी ऑक्सीजन देता है। क्या वास्तव में ऐसा है?
सबसे पहले तो पेड़-पौधों द्वारा ऑक्सीजन के उत्सर्जन की प्रक्रिया को समझना होगा। जैसा की आप जानते हैं कि पेड़ पौधे फोटोसिंथेसिस क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं जिसमें वे सूर्य की रोशनी में co2 का प्रयोग कर भोजन तैयार करते हैं। इस क्रिया में ऑक्सिजन मुक्त होती है और उर्जा ग्लूकोस के रूप में संचित हो जाती है। इसके साथ ही जब पेड़-पौधे इस संचित उर्जा का उपयोग अपनी जैविक क्रियाओं के लिए करते हैं तो इसमें CO2 मुक्त होती है। इस क्रिया को respiration कहा जाता है। अतः पौधे अपनी जैविक क्रियाओं के द्वारा ऑक्सीजन और CO2 दोनों मुक्त करते हैं।
अधिकांश पेड़-पौधों में हर समय गैसों का आदान प्रदान चलता रहता है। दिन में चूँकि फोटोसिन्थेसिस क्रिया होती है इसलिए दिन के समय ऑक्सीजन का उत्सर्जन प्रमुखता से होता है। रात्रि में फोटोसिन्थेसिस क्रिया न होने के कारण CO2 का उत्सर्जन अधिक होता है। ये फोटोसिन्थेसिस की आम क्रिया है जो अधिकतर पेड़-पौधों में सम्पन्न होती है। वैज्ञनिक भाषा में इसे C3 और C4 टाइप फोटोसिन्थेसिस कहा जाता है, जिसमें C3 अधिक कॉमन है।
लेकिन इन दो प्रकार की फोटोसिन्थेसिस क्रियाओं के अलावा एक तीसरे प्रकार की फोटोसिन्थेसिस क्रिया भी होती है जो कुछ मरुस्थलीय, परजीवी और परोपजीवी पौधों में सम्पन्न होती है, जिसे CAM (Crassulacean acid metabolism) कहते हैं।
C3 और C4 जहाँ केवल दिन के दौरान सम्पन्न होती है वहीँ CAM में दिन के साथ साथ रात का भी उपयोग होता है। CAM क्रिया में पौधे भोजन बनाने का अंतिम चरण रात को सम्पन्न करते हैं। इसमें वे दिन में अपने रंध्र छिद्रों को बंद रखते हैं और केवल रात को ही उन्हें खोलते हैं इससे उन्हें सूर्य की गर्मी द्वारा जल वाष्पोत्सर्जीत होने से बचाने में मदद मिलती है। रंध्र छिद्र रात को खोलने के कारण गैसों का आदान प्रदान भी रात्रि के दौरान ही होता है। तो CAM का उपयोग करने वाले पौधे रात को भी ऑक्सीजन मुक्त कर सकते हैं।
पीपल चूंकि एक परोपजीवी, अधिपादप है जो किसी दूसरे पेड़ पर उगता है। इसलिए ये भी CAM क्रिया का प्रयोग करता है। लेकिन केवल तब तक जब तक यह अधिपादप रहता है। जब यह एक बार स्वयं को मिट्टी में स्थापित कर लेता है तो ये क्रिया बन्द हो जाती है और ये भी आम पेड़-पौधों की तरह C3 क्रिया पर आ जाता है।
तो इससे तीन बातें साफ़ होती हैं।
1. पीपल रात को ऑक्सीजन देने वाला एकमात्र पौधा नहीं है।
2. पीपल केवल तब तक रात को ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है जब तक यह अधिपादप रहता है।
3. रात को ऑक्सीजन उत्सर्जित करने वाले पौधे ज्यादा ऑक्सीजन का उत्पादन नहीं करते बल्कि वे जो ऑक्सीजन दिन में उत्सर्जित होनी थी उसी को रात को उत्सर्जित करते हैं।

गांजा दर्शन

दुनिया में विभिन्न तरह की दर्शन परंपराएं रही हैं। एक गुरुजी थे जो एक प्राचीन दर्शन परंपरा के वाहक थे। उनकी दर्शन परम्परा के अनुसार हिमालय पर्वत पर एक स्थान पर स्थित अंधेरी गुफाओं में एक रहस्यमय काली बिल्ली रहती है। जो उस बिल्ली के दर्शन पा ले वह भव बंधनों से मुक्त होकर सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है। उन गुरुजी के सैकड़ों अनुयायी थे जो गुरुजी के निर्देशन में रात दिन उन अंधेरी गुफाओं में काली बिल्ली को खोजते रहते थे। लेकिन दुर्भाग्य से आज तक न तो गुरूजी को और न ही उनके किसी अनुयायी को उस काली बिल्ली के दर्शन हुए थे। लेकिन फिर भी उनका अटूट विश्वास था कि वह काली बिल्ली वहीं है और कभी न कभी वे उसे खोज ही लेंगे।
उनके इस अटूट विश्वास का कारण थे वे प्राचीन ग्रंथ जिसमें कुछ प्राचीन ऋषियों ने अपने अनुभवों का संकलन किया था। जिसमें उन्होंने उस काली बिल्ली के साक्षात्कार का दावा किया था। हालाँकि आज तक किसी के द्वारा उस बिल्ली के साक्षात्कार किये जाने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं था लेकिन फिर भी उनकी उस प्राचीन ग्रन्थ और उन प्राचीन ऋषियों पर अटूट आस्था थी। उस काली बिल्ली को न खोज पाने का दोष वे अपनी अक्षमता को ही देते थे। यही नहीं उन्होंने अपनी दार्शनिक मान्यताओं के पक्ष में बड़े बड़े तर्कसंग्रह भी लिख रखे थे जिसमें उन्होंने तर्कों के द्वारा ये सिद्ध किया था कि उस काली बिल्ली का अस्तित्व है और वह उन अँधेरी गुफाओं में ही रहती है। उनके तर्क गजब के थे। वे किसी को भी अपने तर्कों से निरुत्तर करने की क्षमता रखते थे।
एक बार एक खोजी पत्रकार जो स्वभाव से संदेहवादी था उन गुरूजी के आश्रम उनकी दर्शन परम्परा को जानने के उद्देश से पहुंचा। जो पहली चीज जो उसने वहां नोटिस की वह ये कि उनके सभी अनुयायी आज भी उन सदियों पुराने तरीकों से ही बिल्ली की खोज कर रहे थे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने गुरूजी से पुछा, “गुरूजी कृपया मुझे ये बताइए जब आज वैज्ञानिक प्रगति के कारण तमाम ऐसे साधन उपलब्ध हैं जो आपकी खोज में सहायक हो सकते हैं तो आप लोग उनका उपयोग क्यों नहीं करते? आज भी आप इन अँधेरी गुफाओं को हाथों से टटोलकर बिल्ली की खोज कर रहे हैं जबकि आज हमारे पास सर्चलाइट, रात्रि में देखने में सक्षम नाईटविजन कैमरे और तापमान के बदलाव को पकड़ने वाले थर्मल कैमरे समेत तमाम साधन मौजूद हैं जो घुप्प अँधेरे में एक पतंगे की हलचल को भी पकड़ने में सक्षम हैं तो बिल्ली तो चुटकियों में पकड़ में आ जाएगी। आखिर क्या कारण है इन आधुनिक वैज्ञानिक साधनों का उपयोग न करने का?
गुरूजी: हम इन साधनों को आजमा चुके हैं, ये बेकार हैं और हमारे किसी काम के नहीं।
पत्रकार: आजमा चुके हैं मतलब? कब? कैसे?
गुरूजी: अभी कुछ समय पहले एक वैज्ञानिक दल सभी उपकरणों के साथ आया था। वे कई दिनों तक अपने उपकरणों के द्वारा उस बिल्ली को खोजते रहे लेकिन उनको कोई बिल्ली नहीं मिली।
पत्रकार: यदि आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण उस बिल्ली को नहीं खोज सके तो निश्चित ही वहां कोई बिल्ली नहीं है। यदि होती तो वह निश्चित ही पकड़ में आ जाती।
गुरूजी: वह बिल्ली कोई साधारण बिल्ली नहीं है जिसको इन उपकरणों से खोजा जा सके। विज्ञान अभी बच्चा है। उसको अभी बहुत कुछ सीखना है। ये भावनाओं की बात है, अनुभूति की बात है विज्ञान इसको नहीं समझ सकता।
पत्रकार: लेकिन आपके पास उस बिल्ली के होने का कोई प्रमाण भी तो मौजूद नहीं है। न ही आज तक किसी वैज्ञानिक खोज में उसके होने की पुष्टि हुयी फिर आप दावे के साथ कैसे कह सकते हैं कि वहां कोई बिल्ली है?
गुरूजी: क्या किसी के पास बिल्ली न होने का प्रमाण है? वैज्ञानिक खोजों की बात मत करना वो अपूर्ण हैं उनको हम नहीं मानते।
पत्रकार: लेकिन वहां बिल्ली होने का दावा तो आप ही कर रहे हैं तो ये आपकी ही जिम्मेदारी है कि आप उसके होने का प्रमाण दें।
गुरूजी: हमारे पास प्रमाण है। हमारे शास्त्र ही उसके होने का प्रमाण हैं। जिन ऋषियों ने उसका साक्षात्कार किया उनके अनुभव इन शास्त्रों में संकलित हैं और वो हमारे लिए सब प्रमाणों से बढ़कर हैं।
पत्रकार: ये शास्त्र सदियों पुराने हैं जब की खोज के साधन सीमित थे, इस दुनिया के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम थी और विज्ञान अपनी शैशवावस्था में था। आज जब हमारे पास आधुनिक खोजों के रूप में ज्ञान का विशाल भंडार मौजूद है तो हमें अपनी ख़ोज में उनका उपयोग करना चाहिए। इसके द्वारा हम बेहतर निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं। सम्भव है कि उन ऋषियों ने भूलवश अँधेरे में किसी चट्टान को ही काली बिल्ली समझ लिया हो। या फिर हो सकता है जब उन ऋषियों ने जब उसका साक्षात्कार किया हो तब वहां कोई बिल्ली रही हो, जो अब वहां नहीं है। हालाँकि सदियों पहले सीमित साधनों के जरिये उन्होंने इन गुफाओं को खोजा यह भी अपने आप में एक उपलब्धि है, लेकिन इन निष्कर्षों को अंतिम नहीं माना जा सकता। और फिर भला किसी के व्यक्तिगत अनुभवों को प्रमाण कैसे माना जा सकता है?
गुरूजी(आवाज में तल्खी के साथ): देखो! तुम अब अपनी सीमा लाँघ रहे हो। हमारे शास्त्रों और ऋषियों पर ऊँगली उठाते हो! चार किताबें क्या पढ़ लीं अपनी परम्पराओं पर ही उँगलियाँ उठाने लगे। अपनी ही जड़ों को खोदते तुम्हें शर्म नहीं आती। तुम जैसे मैकाले पुत्रों की वजह से भारत की आज ये दुर्दशा है।
(गुरूजी ने पास में बैठे अपने चेले को हाथ के इशारे से चिलम तैयार करने को कहा)
चलो अब निकलो यहाँ से हमारे ध्यान का समय हो रहा है।
और वह पत्रकार उन गुरूजी की कूपमंडूकता से व्यथित होकर वहां से उठकर चल दिया। उसके जाते ही गुरूजी ने उच्च गुणवत्ता युक्त गांजे से तैयार की गई चिलम से एक कश खींचा और अपने मुहं और नथुनों से धीरे धीरे धुआं छोड़ते हुए अधखुली आँखों से दर्शन की गहराईयों में उतरने लगे।

आत्मा और म्रत्यु

भारतीय समाज में और कुछ अन्य समाजों में भी ऐसी आम मान्यता है कि म्रत्यु उस अवस्था का नाम है जब आत्मा(रूह) शरीर को त्याग देती है। भारतीय समाज में ऐसा मानने की बड़ी वजह भारतीय दर्शन है जिसका कहना है की इस पंचभूत(भौतिक तत्वों) से निर्मित शरीर में एक आत्मा का वास है। जीवित प्राणियों में चेतना का कारण यह अभौतिक आत्मा ही है जो सभी जीवों में जीवनपर्यंत वास करती है। ये आत्मा नित्य और अविनाशी है जो कभी भी नष्ट नहीं होती, ये पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण करती है।

गीता पूरी तरह इसी दर्शन पर ही आधारित है। गीता के अनुसार.....
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (१३)
भावार्थ : जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। (१३)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२२)
भावार्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नये शरीरों को धारण करता है। (२२)
गीता की ही तरह अन्य ग्रंथों में भी जीवात्मा सम्बन्धी दर्शन मौजूद है। ये दर्शन हमारे समाज में इस कदर रच बस गया है कि कुछ एक को छोड़कर लगभग सभी इसको निर्विवाद रूप से सत्य मानते हैं। यहाँ तक की आत्माओं की शांति के लिए विभिन्न प्रकार के पूजा पाठ और कर्मकांड भी हमारे समाज में प्रचलित हैं। लेकिन आज तक आत्मा जैसी किसी चीज के अस्तित्व का एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका है। हालाँकि जब भी आत्मा के अस्तित्व पर सवाल उठाये जाते हैं लोग अक्सर सुनी सुनाई कुछ घटनाओं का जिक्र जरूर करते हैं। जिसमे दो घटनाएँ प्रमुख हैं।
पहली घटना किसी ऐसे प्रयोग से सम्बंधित है जिसमे किसी वैज्ञानिक ने म्रत्यु की ओर अग्रसर एक व्यक्ति को एक शीशे के एयरटाइट चैम्बर में बंद कर दिया और जब उस व्यक्ति की म्रत्यु हुयी तो उसकी आत्मा के निकलने के कारण शीशे में दरार पड़ गयी। लगभग हम सभी ने अपने बड़ों से इस घटना के बारे में जरूर सुना होगा। मैंने भी बहुत से लोगों से इसके बारे में सुना था। लेकिन मेरे बहुत खोजने पर भी इस तरह के किसी प्रयोग के कभी आयोजित होने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका।
दूसरा प्रयोग थोडा मजेदार है और यह वास्तविक भी है। इसको 21 ग्राम एक्सपेरिमेंट के नाम से जाना जाता है। जिसको एक अमरीकी डॉक्टर डंकन मैकडोगल द्वारा सन 1907 में संपन्न किया गया था। जिसको उन्होंने अपनी धारणा ‘जिसका आधार था कि आत्मा में कुछ वजन होना चाहिए’ को टेस्ट करने के लिए संपन्न किया था। जिसमें उन्होंने 6 ऑब्जेक्ट पर प्रयोग किया और पाया कि एक ऑब्जेक्ट का वजन म्रत्यु के बाद 21.3 ग्राम कम हो गया था। हालाँकि डॉ डंकन स्वंय इस प्रयोग के निष्कर्षों को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थे। उनका कहना था कि इस प्रयोग को बहुत सारे ऑब्जेक्ट पर प्रयोग करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। साथ ही वैज्ञानिक बिरादरी ने भी इस प्रयोग के तरीकों पर सवाल उठाये थे और इसको एक अवैज्ञानिक प्रयोग करार दिया था। लेकिन न केवल मीडिया ने इस प्रयोग को बहुत तूल दिया बल्कि धार्मिक संस्थाओं ने भी इसको हाथों हाथ लिया और इसका खूब प्रचार किया गया कि वैज्ञानिकों ने आत्मा का भार माप लिया है। इस प्रचार का ही परिणाम है कि लोग आज भी इस पर विश्वास करते हैं।
इसके साथ ही कुछ लोग पुनर्जन्म की कुछ घटनाओं को भी आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण की तरह प्रस्तुत करते हैं। हालांकि इस बारे में भी मिथ्या प्रचार बहुत अधिक है। भारत में तर्कशील संगठनों ने जितनी भी पुनर्जन्म की घटना की जाँच की सभी को फर्जी पाया। अभी तक एक भी पुनर्जन्म की घटना की वैज्ञानिक रूप से पुष्टि नहीं की जा सकी है।
मेडिकल साइंस ने शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंगों और अवयवों की कार्यविधि की खोज की है लेकिन आज तक उनको आत्मा जैसी किसी चीज के होने का कोई प्रमाण नहीं मिल सका। विज्ञान के अनुसार म्रत्यु उस अवस्था का नाम है जब एक जीवित प्राणी की वो महत्वपूर्ण जैविक क्रियाएं बंद हो जाती हैं जो की उसे जीवित बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। एक प्राणी में ऐसा कई कारण से हो सकता है, जैसे बीमारी, बुढ़ापा या फिर किसी बाहरी वस्तु द्वारा किसी महत्वपूर्ण अंग को पहुंचा आघात, जिसके कारण श्वसन अथवा रक्तसंचरण तंत्र किसी तरह बाधित हो जाता है और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती।
जैसा की आप जानते हैं कि हमारा शरीर खरबों विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बना है। जिसमें हर कोशिका को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन और महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है जिसको शरीर के कुछ अंग मिलकर अंजाम देते हैं। जिसमें ऑक्सीजन सोखने का काम फेफड़ों का है और पोषक तत्वों को सोखने का काम पाचनतंत्र का है, जिसको ह्रदय और लाखों किलोमीटर लम्बी धमनियों और शिराओं से मिलकर बना रक्तसंचरण तंत्र हमारे शरीर की हर कोशिका तक पहुंचाने का कार्य करता है। जिसके आभाव में कुछ समय में ही विभिन्न अंगों की कोशिकाएं काम करना बंद कर सकती हैं। इन अंगों में सबसे महत्वपूर्ण है मस्तिष्क जिसको निरंतर ऑक्सीजन युक्त रक्त की निर्बाध सप्लाई की जरूरत पड़ती है। जिसके किसी भी कारण से बाधित होने पर मात्र 7 सेकिंड के भीतर ही मस्तिष्क की कोशिकाएं नष्ट होनी शुरू हो जाती हैं।
चूँकि मस्तिष्क न केवल हमारी चेतना और बोध का कारण है बल्कि इस शरीर का नियंत्रक भी है इसलिए इसको पहुंची क्षति चेतना को सदा के लिए समाप्त कर देती है जिसको फिर पुनः नहीं पाया जा सकता। वैज्ञानिक भाषा में इसी को ब्रेन डेथ कहते हैं। चूँकि हमारे मस्तिष्क का एक हिस्सा श्वसन तंत्र को भी संचालित करता है इसलिए इसको क्षति पहुँचते है सांस लेने की स्वाभाविक प्रक्रिया रुक जाती है। पर्याप्त ऑक्सीजन न मिलने के कारण कुछ ही सेकिंड में ह्रदय भी काम करना बंद कर देता है, जिसके कारण पूरे शरीर में रक्तसंचरण ठप हो जाता है और शरीर की कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं। हालाँकि आज चिकित्सा विज्ञान में हुयी प्रगति के कारण हमने ऐसे यंत्रों को विकसित कर लिया है जिनकी सहायता से स्वाभाविक रूप सांस लेने में असमर्थ एक व्यक्ति को यंत्रों की सहायता से कृत्रिम सांस दी जा सकती है और मस्तिष्क के काम न करने की स्थिति में भी उस व्यक्ति के ह्रदय को कार्यरत रखा जा सकता है। इन यंत्रों को लाइफ सपोर्ट सिस्टम कहते हैं।
लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर चल रहे किसी व्यक्ति की मस्तिष्कीय गतिविधियों पर चिकित्सकों द्वारा नजर रखी जाती है और उनके पहली जैसी स्थिति में पहुँचने का इन्तजार किया जाता है। लेकिन मस्तिष्कीय गतिविधि शून्य होने पर व्यक्ति को ब्रेन डेड घोषित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में सपोर्ट सिस्टम के कारण व्यक्ति का ह्रदय तो काम कर रहा होता है लेकिन मस्तिष्क नष्ट होने के कारण अब वह पुनः कभी चेतन अवस्था में नहीं लौट सकता।
इससे यह तो सिद्ध होता है कि जीवों में चेतना का कारण मस्तिष्क ही है कोई आत्मा नहीं। मस्तिष्क के अरबों खरबों न्यूरॉन मिलकर इन्द्रियों द्वारा प्राप्त संकेतों का विश्लेषण करते हैं और उससे प्राप्त अनुभवों को याददाश्त के खजाने में संरक्षित करते जाते हैं। हम हर क्षण अपने आस पास जो अनुभव करते हैं उसके अनुभव हमारे मस्तिष्क पर अंकित होते चले जाते हैं जिससे कदम दर कदम हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता जाता है। हालाँकि जेनेटिक कारणों से भी हर व्यक्ति के पास कुछ जन्मजात योग्यताएं होती हैं वे भी उसके व्यक्तित्व को निर्मित करने में मदद करती हैं।
इसी तरह शरीर के हर अंग की कार्यविधि के बारे में वैज्ञानिकों ने पता लगाया है और उनकी सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर जाकर व्याख्या भी की है, लेकिन किसी भी अंग की कार्यप्रणाली में आत्मा जैसी किसी चीज का कोई रोल सामने नहीं आया। पहले लोगों की मान्यता थी की आत्मा ह्रदय में वास करती है। इसीलिए जब वैज्ञानिक ह्रदय प्रत्यारोपण(Heart Transplant) पर प्रयोग कर रहे थे तो कहा जाता था कि ये असंभव है। ऐसा कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन वैज्ञानिकों ने इसको संभव कर दिखाया और आज दुनिया भर में हर वर्ष हजारों ह्रदय सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किये जाते हैं जिसमें से अकेले अमेरिका में ही लगभग 5 हजार ह्रदय हर वर्ष प्रत्यारोपित होते हैं। इसी तरह शरीर के अन्य अंगों को भी सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया जा रहा है। यहाँ तक की वैज्ञानिक अब एक कदम और बढ़कर सर के प्रत्यारोपण(Head Transplant) पर भी विचार कर रहे हैं। जी हाँ आपने सही सुना “सर” “Head”। और यदि सब कुछ ठीक रहा तो हम जल्द ही इस अद्भुत सर्जरी के साक्षी होने वाले हैं।
इटली के एक तंत्रिका विज्ञानी(neuroscientist) डॉ सेर्गियो कैनावेरो ने 2018 में एक मानव सर प्रत्यारोपण को अंजाम देने की घोषणा की है। उनको इसके लिए एक वालंटियर भी मिल गया है जो कि एक चीन में है। उसकी पहचान गुप्त रखी गयी है। इस ऑपरेशन को वे एक अन्य चाइनीज तंत्रिका विज्ञानी के साथ मिलकर चीन में ही अंजाम देंगे। जिसमें उस व्यक्ति के सर को एक ब्रेन डेड डोनर की बॉडी पर प्रत्यारोपित कर दिया जायेगा। डॉ कैनावेरो इस सर्जरी की सफलता को लेकर बहुत आश्वस्त हैं। उनका कहना है कि इस सर्जरी को अंजाम देने के बाद एक माह तक मरीज को चिकित्सीय कोमा की स्थिति में रखा जाएगा। जिसके बाद वह सामान्य रूप से होश में आ जायेगा और शरीर के सभी अंगों को हिला डुला सकेगा। हालांकि नए धड़ पर इच्छानुसार नियंत्रण स्थापित करना अभी संभव नहीं होगा क्योंकि मस्तिष्क को नए धड़ के साथ सामंजस्य बिठाने में समय लगेगा। लेकिन निरंतर अभ्यास के बाद वह एक वर्ष के भीतर ही सामान्य रूप से चल फिर सकेगा।
वैसे इस सर्जरी को सर प्रत्यारोपण के बजाये धड़ प्रत्यारोपण कहना अधिक ठीक रहेगा। क्योंकि वास्तव में हमारी पहचान, याददाश्त और व्यक्तित्व का सम्बन्ध हमारे सर में स्थित मस्तिष्क से है। सर में स्थित मस्तिष्क ही वास्तव में शरीर का नियंत्रणकर्ता और स्वामी है, जिसको पुराने धड़ के स्थान पर एक नया धड़ दिया जा रहा है।
जो लोग इस सर्जरी की सफलता को लेकर सशंकित हैं उनको बता दूँ कि इस तरह की सर्जरी को पूर्व में जानवरों पर अंजाम दिया जा चुका है जिसमें वैज्ञानिकों को काफी हद तक सफलता भी मिली है। 1965 में एक अमरीकी डॉक्टर रोबर्ट जे. वाइट ने प्रयोगों की एक श्रंखला को अंजाम दिया जिसमें उन्होंने एक कुत्ते के सर को एक अन्य कुत्ते के शरीर पर स्थापित कर उसकी मुख्य धमनियों को उसके कुत्ते की धमनियों से जोड़ दिया गया। इन प्रयोगों में स्थापित किये हुए सर को 6 घंटे से लेकर 2 दिन तक जीवित रखने में सफलता मिली। एक अन्य प्रयोग में एक बन्दर के सर को पूरी तरह से एक दुसरे बन्दर के धड़ पर स्थापित किया गया। स्थापित किया हुआ सर पूरी तरह से होशोहवास में था। वह न केवल देख और सुन सकता था बल्कि उसके मोटर फंक्शन भी सही तरह काम कर रहे थे, अर्थात वह चबाने और निगलने में भी सक्षम था। लेकिन चूँकि उसके सर को धड़ के तंत्रिका तंत्र से नहीं जोड़ा गया था इसलिए वह धड़ के अंगों को हिलाने में सक्षम नहीं था। लेकिन अभी हाल में ही हुए कुछ प्रयोगों में चूहों के सर को प्रत्यारोपित धड़ के तंत्रिका तंत्र से जोड़ने में सफलता मिली है। जिसके कारण वे चूहे प्रत्यारोपित धड़ को हिलाने डुलाने में सक्षम थे।
भले ही शुरुआती कुछ प्रयोगों में वैज्ञानिकों को वांछित सफलता न मिले लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले कुछ वर्षों में इस तरह की सर्जरी को सफलतापूर्वक अंजाम दिया जा सकेगा। ये सर्जरी इस बात को तो बखूबी सिद्ध कर ही देगी कि यदि कोई आत्मा है तो वह कम से कम धड़ में तो नहीं है। अब बचता है सर! तो क्या आत्मा केवल सर में ही वास करती है? या फिर कोई आत्मा-वात्मा नहीं ये मात्र मस्तिष्क से उत्पन्न चेतना ही है?
यदि पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार किया जाए तो इसको समझना इतना भी कठिन नहीं है। जिस चेतना को हम आत्मा समझते हैं वह वास्तव में मस्तिष्क से ही उत्पन्न होंती है। मस्तिष्क से भिन्न उसके अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। चेतना अभौतिक है लेकिन उसका कारण भौतिक मस्तिष्क ही है कोई आत्मा नहीं। बिल्कुल वैसे ही जैसे कंप्यूटर पर रन होने वाले प्रोग्राम का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता लेकिन उसके अभौतिक अस्तिव का कारण भौतिक कंप्यूटर ही है। कंप्यूटर से भिन्न उसका कोई अस्तित्व नहीं। बस फर्क इतना है कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग को एक प्रोग्रामर अंजाम देता है, लेकिन यहां इसी कार्य को प्रकृति करती है। हमारा मस्तिष्क भी अरबों वर्ष की प्रोग्रामिंग का ही परिणाम है, जो प्रकृति में प्रथम जीव के साथ प्रारम्भ हुई थी और जो तमाम कालखंडों में उत्तरोत्तर विकसित होते हुए वर्तमान में इस स्वरूप में हमें प्राप्त हुआ है। हमारी जीवन यात्रा के दौरान ये हर रोज नए अनुभवों को सहेजता जाता है। हमारा व्यक्तित्व, हमारे अनुभव, हमारी स्मृतियां और हमारी चेतना सभी मस्तिष्क के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाती हैं, जो बचता है तो बस वह डीएनए का अंश जो हम अपने बच्चों को दे जाते हैं।