Monday 8 May 2017

कहीं आपके मस्तिष्क को हैक तो नहीं किया गया?


कंप्यूटर हैकिंग से तो आप सभी परिचित होंगे। कंप्यूटर हैकिंग असल में किसी कंप्यूटर प्रणाली में की जाने वाली घुसपैठ जैसी होती है जिसमे हैकर उस कंप्यूटर पर पूर्ण या आंशिक नियंत्रण स्थापित कर लेता है। ऐसा कर के वो न केवल कंप्यूटर के सामान्य कार्य काज में बाधा उत्पन्न कर सकता है बल्कि उसको अपने निर्देशानुसार चलने के लिए बाध्य कर सकता है। कंप्यूटर प्रणालियों में इस प्रकार के खतरों से निपटने के लिए सुरक्षा इंतजाम किये जाते हैं जिनको हम फ़ायरवॉल के नाम से जानते हैं। फ़ायरवॉल कंप्यूटर प्रणाली तक किसी भी तरह की अवैधानिक पहुँच की पहचान करता है जिससे उस कंप्यूटर को खतरा हो सकता है। जैसे ही कोई ऐसा कोई प्रयास पकड़ में आता है वो तुरंत एडमिन को सचेत कर देता है ताकि उसको रोका जा सके।
हमारे मष्तिष्क की कार्य रचना भी कुछ कुछ कंप्यूटर से मिलती जुलती है, और कंप्यूटर की तरह इसको भी जीवन भर हैकिंग के खतरों से दो चार होना पड़ता है। इसके प्रयास हमारे पैदा होते ही शुरू हो जाते हैं। हमारे समाज में मौजूद तमाम विचारधाराएँ और संगठित धर्म हमारे मस्तिष्क को हैक करने के लिए हर समय तैयार ही बैठे हैं और ये हमारे समाज और संस्कृति में इस कदर घुले मिले हैं कि इनके कुत्सित प्रयासों की पहचान कर पाना बड़ा मुश्किल है। हालांकि इस तरह के खतरों से निपटने के लिए प्रकृति ने हमें भी एक सुरक्षा तंत्र दिया है, जिसको हम शक या संदेह के नाम से जानते हैं। यही वो सुरक्षा प्रणाली है जो विचारों के संक्रमण से हमारी रक्षा करती है और सुनिश्चित करती है की उस विचार को स्वीकारा जाए अथवा नहीं। जब भी हमारी जानकारी में कोई असामान्य बात आती है तो हमारे मन में उसको लेकर संदेह पैदा होता है। जो हमें उस जानकारी की सत्यता को लेकर सोचने को मजबूर कर देता है ताकि हम उस जानकारी पर अच्छे से सोच विचारकर निर्णय लें की वह स्वीकारने योग्य है अथवा नहीं। यदि हमें वह बात भरोसे के लायक नहीं लगती तो हम उसको नकार देते हैं, इस प्रकार हमारा मस्तिष्क उससे संक्रमित होने से बच जाता है।
लेकिन संदेह के साथ एक समस्या है कि यह समय के साथ ही विकसित होता है। अर्थात जब हम बाल्य अवस्था में होते हैं तो संदेह का सुरक्षा घेरा इतना मजबूत नहीं होता। यही कारण है कि बच्चे परीकथाओं पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं। अर्थात बाल्यावस्था में यदि कोई चाहे तो आसानी से इसको बेधकर हमारे मस्तिष्क पर नियंत्रण स्थापित कर सकता है। यही कारण है बाल्यावस्था में जो संस्कार, आस्था और विश्वास मन में जड़ें जमा लेते हैं उनसे मुक्त होना बड़ा कठिन होता है। विचारों के संक्रमण की पहली डोज हमें कहीं बाहर से नहीं बल्कि अपने घर से ही मिलती है। चूँकि हमारे परिवारी जन भी किसी न किसी संगठित धर्म की विचारधारा के संक्रमण से प्रभावित होते हैं तो वही संक्रमण वो चाहे अनचाहे हमारे भी भीतर प्रविष्ट करा देते हैं। एक आध को छोड़ लगभग सभी मामलों में एक बालक व्यस्क होने तक किसी न किसी संगठित धर्म की विचारधारा के चपेट में आ ही जाता है और फिर जीवन भर इससे मुक्त नहीं हो पाता। आइये अब समझते हैं ये काम कैसे करती है।
यदि हमें किसी के मष्तिष्क को हैक करना है और उसे अपने नियंत्रण में लेना है तो सबसे पहले हमें उसकी सुरक्षा प्रणाली निष्क्रिय करना होगा अर्थात ये जो संदेह की फ़ायरवॉल है इसको किसी तरह निष्क्रिय करना होगा। लेकिन ऐसा कोई तरीका हमारे पास नहीं है जिससे कि इस फ़ायरवॉल को हमेशा के लिए निष्क्रिय किया जा सके पर कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे इस फ़ायरवॉल में सेंध लगाई जा सकती है ताकि विचारों को बिना फ़ायरवॉल के संपर्क में आये सीधे मस्तिष्क में प्रविष्ट कराया जा सके, और इन्हीं तरीकों में से एक सबसे बेहतरीन तरीका है धार्मिक आस्था।
धार्मिक आस्था इस फ़ायरवॉल में सेंध लगाने का सबसे पुराना और सबसे कारगर तरीका है, जिसका प्रयोग हजारों सालों से सफलतापूर्वक किया जा रहा है और ये आज भी उतना ही कारगर है। आस्था का अर्थ ही है अनदेखे, बिना परखे, बिना जाने, बिना तर्क के किसी में विश्वास करना। हालाँकि हमारे मस्तिष्क का मूल स्वाभाव यही है कि ये कभी भी अनदेखे में विश्वास नहीं करना चाहता। जब भी हम ऐसा करते हैं हमारा मष्तिष्क संदेह खड़ा करके हमें सचेत करता है। ऐसे में धर्म के नाम पर भय और लालच का एक घेरा खड़ा कर मस्तिष्क की इस प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली में सेंध लगायी जाती है, धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं में संदेह करने को ही पाप घोषित कर दिया जाता है और संदेह करने वाले को म्रत्यु के पश्चात नर्क में भयानक यातनाओं को भुगतने की धमकी देकर डराया जाता है और संदेह न करने पर तरह तरह के प्रलोभनों के सब्जबाग सजाये जाते हैं जिसमे म्रत्यु के पश्चात स्वर्ग में मिलने वाली तमाम कल्पनातीत सुख सुविधायें शामिल हैं। धर्म में संदेह न करने को बहुत महिमामंडित किया जाता है और इसको ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए अनिवार्य योग्यता की तरह प्रचारित किया जाता है। लोगों को धर्म की विचारधारा से जुडी हर बात पर आसानी से राजी किया जा सके इसलिए पूरी विचारधारा को ही ईश्वरीय या दिव्य घोषित कर दिया जाता है। सभी संगठित धर्म अपने धर्मग्रंथों को मानवरचित नहीं बल्कि ईश्वर रचित बताते हैं ताकि संदेह और तर्क का कोई स्थान ही न बचे। इसके साथ ही अपने पैत्रिक धर्म से जुड़ा श्रेष्ठता का भाव भी संदेह करने से रोकता है। फिर भी यदि संदेह बाकी रहे तो धार्मिक संस्थायायें लगातार भ्रामक प्रचारों के माध्यम से संदेहों का खंडन करती रहती हैं। अगर आप किसी भी संगठित धर्म की मूल भावना पर गौर करेंगे तो आप पायेंगे की इसका सारा प्रयास आपको संदेह और तर्क से विमुख रखने पर है। क्योंकि आपके मस्तिष्क पर नियंत्रण आपको संदेह और तर्क से विमुख रखकर ही संभव है।
इसलिए कोई भी धर्म जो आपको संदेह करने से रोकता है तर्क से विमुख करता है वो आपको गुलाम बनाने के साधन के अतरिक्त कुछ भी नहीं है। शक करना, संदेह करना, तर्क करना कोई रोग नहीं है बल्कि आपको रोग से दूर रखने का साधन है। यहाँ मुझे जुनैद मुनकिर साहब की लिखी एक कविता याद आती है जो मुझे अत्यंत प्रिय है।

शक जुर्म नहीं, शक पाप नहीं, शक ही तो इक पैमाना है ,

विश्वास में तुम लुटते हो सदा, विश्वास में कब तक जाना है।

शक लाज़िम है भगवान ओ, ख़ुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,

औतार ओ पयम्बर पर शक हो, जो ज़्यादः तर अफ़साने1हैं।

शक हो सूफ़ी सन्यासी पर, जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,

शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़२ हैं दुआ बन बैठे हैं।

शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,

जो पिए हैं ख़ून की गंगा जल, जो माले ग़नीमत3 खाए हैं।

शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब४ तो नहीं ?

जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब५ तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो, 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,

क़ौमों को नई तालीम मिले, जेहनों को नई तासीर६ मिले।


१-कहानी   २- मिथ्य   ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति   ४-विजई   ५ -अप्भोगी   ६-सत्य

2 comments:

  1. EXCELLENT ARTICLE. AN EYE OPENER. IF A PERSON EVEN AFTER READING YOUR THIS ARTICLE IS NOT MOVED TO RAISE QUESTION,TO CREAT DOUBT AGAINST ALL TYPES OF SUPERSTITIONS HE IS IN THE MOST LOSS OD HIS OR HER LIFE. I ALSO LIKE YOU HAVE SCIENTIFIC ATTITUDE. I SEE IN PARK WHERE I GO IN THE MORNING THAT 99% PERSONS ARE ORTHODOX AND LYING IN THE WELL OF SUPERSTITIONS AND HAVE UNSHAKEN BELIEF IN GOD. I TRY MY LEVEL BEST TO CREAT SCIENTIFIC ATTITUDE BUT NO RESULT. ANYWAY YOUR EFFORTS TO REMOVE SUPERSTITIONS IN THE SOCIETY IS REALLY VERY MUCH PRAISEWORTHY. I FOLLOW YOU ON "AASTHA MUKTI" ON YOU TUBE CHANNEL.THANKS

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  2. Really it is eye opener to the blind followers.

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