Tuesday 9 May 2017

अंधे योद्धा

दो योद्धा आपस में लड़ रहे थे, दोनों के हाथों में तलवारें, चेहरे पर क्रोध, बस एक दुसरे को मार डालने पर आमादा थे। दोनों का शरीर कई जगह से क्षत-विक्षत हो गया था जिससे खून रिस रहा था, पर दोनों में से कोई भी पीछे हटने को राजी न था।
लेकिन ये क्या??.... दोनों की आँखों पर पट्टी बंधी थी। वो दोनों बीच-बीच में उस पट्टी को सँभालते जाते थे, जरा ढीली पड़ती तो उसको पुनः कस लेते। मानो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वो पट्टी थी, जिसको की हर हाल में आँखों पर बंधे रहना जरूरी था।
एक व्यक्ति बैठा हुआ उन्हें आपस में लड़ते देख रहा था। जब बहुत देर हो गयी उन्हें लड़ते हुए तो उससे रहा ना गया। अगर इन्हें रोका न गया तो ये एक दुसरे को समाप्त ही कर डालेंगे ऐसा सोचकर वो उन्हें समझाने के लिए उठा।
"भाई क्यों लड़ रहे हो?
"तुम कौन हो? - पहले योद्धा ने पुछा।
"तुम किस तरफ से हो? - दुसरे योद्धा ने पुछा।
"मैं किसी तरफ से नहीं हूँ, बस आप दोनों को लड़ते मुझसे देखा नहीं गया तो समझाने चला आया।
"लेकिन तुम्हारी बोल-चाल से तो लगता है कि तुम हमारे लोगों में से हो -पहले योद्धा ने कहा।
"मैं था पर अब नहीं - उस व्यक्ति ने कहा।
"जरा पास तो आओ - पहले योद्धा ने कहा।
योद्धा ने अपना हाथ उस व्यक्ति के चेहरे पर फिराया। "तुम्हारी पट्टी कहाँ है?.... ओह! मैं समझ गया तुम कौन हो। तुम वही हो ना जिसने हमारे पुरखों के ज्ञान, परंपरा, दार्शनिक मान्यता और बलिदान के फलस्वरूप मिली इस बहुमूल्य धरोहर को उतार फेंका....और रणभूमि को छोड़कर भाग निकला।
"भगोड़े.....कायर कहीं के - वो चीखा।
उस योद्धा की मुट्ठी क्रोध से भिंच गयीं थीं।
"चले जाओ यहाँ से इससे पहले की मैं तुम्हें जान से मार डालूं।
"अरे भाई इतना क्रोध क्यों करते हो? तुम दोनों जरा अपनी हालात तो देखो। सदियां बीत गयीं तुम लोगों को लड़ते हुए, लाशों के ढेर लगा चुके हो, अब बस भी करो।... और बात भी बड़ी मामूली सी है जिसके लिए तुम एक दुसरे के लहू के प्यासे हुये पड़े हो।......कि बस हमारी मान्यता सही है यही लड़ाई है ना तुम्हारी??
"तो ये मामूली बात है??.....इसकी हिम्मत कैसे हुई हमारी महान परंपरा और मान्यता को गलत कहने की।
"अरे भाई परंपराएं बीतते समय के साथ अपनी उपयोगिता खो देती हैं। इसलिए जरूरी है कि एक समय के बाद इनकी समीक्षा कर ली जाए ताकि जो उपयोगी है वो बचा रहे और व्यर्थ है उसके बोझ से मुक्ति मिले। और जहाँ तक मान्यताओं की बात है, तो ये तो सब कल्पनाएं ही हैं सत्य नहीं हैं। मान्यता का अर्थ ही ये है कि जो मान लिया गया है। तो जो माना गया वो तो कल्पना ही हुयी सत्य नहीं, जो जाना गया वही सत्य है।
और तुम आपस में लड़े जा रहे हो की मेरी कल्पना सही और तुम्हारी कल्पना गलत। ये तो बच्चों वाली बात है।
"तो क्या जो हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है वो भी कल्पना है? वो तो निश्चित ही सत्य है, - पहले योद्धा ने दृणता से कहा।
"पहले ये समझो की सत्य क्या है। सत्य वो है जो हमारे अनुभवगत हो, जो किसी और ने अनुभव किया वो उसके लिए सत्य हुआ हमारे लिए नहीं। इसलिए पहले जो ग्रंथों में पहले उसे अनुभव करो उसकी सत्यता जांचों तब लड़ो तो फिर भी ठीक है, तुम दोनों तो बिना सत्यता जांचे ही उसे सच साबित करने की कोशिश कर रहे हो। यही कारण है कि तुम इस हालत में आ पहुंचे हो।
"तुम हमें बुद्धू समझते हो क्या? हमने अपने ग्रंथों की सत्यता जांच ली है। हमारे ग्रंथों में लिखा एक-एक शब्द निर्विवाद रूप से सत्य है। - दोनों योद्धा एक ही स्वर में बोले।
"कैसे जांच ली??... सत्य की जांच के लिए जो उपकरण चाहिए उसका तो तुमने उपयोग ही नहीं किया।
"कौन सा उपकरण??
"ये जो मोटी-मोटी पट्टियां तुम दोनों ने अपनी आँखों पर बाँध रखी हैं बिना इनको खोले तुमने कैसे सत्यता परख ली?
"खबरदार!! जो इन पट्टियों के बारे में एक शब्द भी कहा....तुम्हारी गर्दन धड़ से अलग कर दी जायेगी। - पहला योद्धा तलवार लहराते हुए बोला।
"ये पट्टियां हमारे पुरखों की विरासत हैं। जब से हमने होश संभाला है इनको सहेज के रखा है और जब तक इस शरीर में प्राण हैं सहेज के रखेंगे। हम तुम्हारी तरह नहीं हैं जो अपने पुरखों की विरासत को त्याग दें। .....मैं तुम्हारी चाल खूब समझता हूँ, तुम हमको भी अपने जैसा बनाना चाहते हो। जाओ जाओ किसी और का बेफकूफ बनाना, मैं तुम्हारी बातों में आने वाला नहीं हूँ। - दुसरे योद्धा ने लगभग दुत्कारते हुए कहा।
अब वह व्यक्ति पहले योद्धा की ओर मुड़ा।
"देखो भाई ये तो मेरी बात मानेगा नहीं, कम से कम तुम तो समझो।....मैं तो तुम लोगों में से ही हूँ। एक समय था जब मैं भी तुम्हारी तरह था, मैं भी तुम लोगों के साथ ही लड़ा करता था। लेकिन मैंने सत्य को जाना और मैं चाहता हूँ तुम भी जानो, पर इन पट्टियों को खोले बिना तुम सत्य नहीं जान पाओगे।
"तुमने कोई सत्य-वत्य नहीं जाना, कायर हो तुम जो रण छोड़कर भाग गए और मुझे भी कायर बनाना चाहते हो। तुम्हारे जैसे बहुतों को सूली पर लटकाया है, कड़ाहों में जलाया है और तिल-तिल करके मारा है.. चले जाओ यहाँ से वर्ना तुम्हारा भी वही हश्र होगा।
"मैं जानता हूँ। लेकिन फिर भी तुमसे आग्रह कर रहा हूँ कोई तो वजह होगी? मैं तुम्हारे ही हित की बात कर रहा हूँ अगर तुम समझो तो.....अच्छा सुनो, जरा साइड में आओ।
"हाँ कहो
"क्या तुम जानते हो ये जो तुमने पट्टी बंधी हुई है ये तुम्हारे युद्धकौशल में बाधक है?? मैंने देखा है तुम कई बार अपने लक्ष्य से चूक जाते हो। यदि ये पट्टी हटा दो तो तुम्हारा हर वार सटीक होगा और शत्रु का कोई भी वार तुम्हें छू भी ना पायेगा। तुम चुटकियों में अपने शत्रु को पराजित कर सकते हो।
"तुम बड़े चालबाज आदमी मालूम पड़ते हो, लगता है आज आत्महत्या करने के उद्देश्य से घर से निकले हो। बस अब अगर एक और बात तुमने इन पट्टियों के खिलाफ कही तो तुम्हारा सर धड़ से अलग कर दूंगा।
"ठीक है मुझे मारना है...मार लेना। मैं यहीं खड़ा हूँ.....अगर मेरी बात झूठी निकले तो मैं मरने को तैयार हूँ। लेकिन मुझे मारने से पहले एक बार इन पट्टियों को खोल दो।
योद्धा सोच में पड़ गया....कैसा अजीब आदमी है जो मरने से भी नहीं डर रहा। कहीं जो ये कह रहा है सच तो नहीं?? अगर जो ये कह रहा है सच हुआ तो कम से कम इस शत्रु से तो छुटकारा मिलेगा। और अगर झूठ बोला तो इस भगोड़े को मारने का पुण्य मिलेगा। यानी दोनों ओर से फायदा ही फायदा है।
ये सोचकर उस योद्धा ने पट्टी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया। वो धीरे-धीरे एक एक पट्टी को खोलकर रखने लगा। अब उसकी आँखों को प्रकाश की अनुभूति होने लगी थी। प्रकाश उसके लिए बिलकुल अपरिचित चीज थी। अब उसका कौतूहल बढ़ने लगा..अब उसके हाथ तेजी से चल रहे थे। और फिर वो अंतिम पट्टी भी खोल दी।
पलकों से छन कर आने वाला लाल प्रकाश उसको महसूस हो रहा था।
"आँखें खोलो - उस व्यक्ति ने कहा।
योद्धा की पलकों में हरकत हुई और उसने अपनी आँखे धीरे से खोल दीं। तीव्र प्रकाश से उसकी आँखें चौंधिया गयीं। फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हुआ और उसे आस-पास की सभी वस्तुएं नज़र आने लगीं। जो व्यक्ति उसको समझा रहा था वो सामने खड़ा था। कुछ दूर पर वो शत्रु भी जिससे वो लड़ रहा था लहूलुहान खड़ा था। उसके शरीर में कई घाव थे जिनसे खून टप-टप टपके जा रहा था। फिर उसने खुद को देखा, उसका खुद का हाल भी कुछ वैसा ही था। अपने भीतर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ की इतना जीवन मैंने किस मूर्खता में गँवा दिया। जिन परंपराओं और मान्यताओं की मैंने अपनी जान पर खेल कर हिफाजत की जिनकी श्रेष्ठता और सत्यता साबित करने के लिए लड़ा, उन्होंने ही मुझे सत्य से दूर कर दिया। मैंने अपना आधा जीवन एक अंधे की भांति गुजार दिया। भला हो इस आदमी का जिसने अपनी जान की परवाह न करके मुझे इस अँधेरे से निकाला। ये सोचकर कृतज्ञता से उसकी आँखें भर आईं। किन शब्दों से इसका शुक्रिया अदा करूँ, ऐसा सोच ही रहा था कि वह व्यक्ति बोल पड़ा, "सोचते क्या हो? वो खड़ा तुम्हारा शत्रु......जाओ मार डालो उसे।
योद्धा ने एक नजर अपने शत्रु पर डाली जो हमले की आशंका से चौकन्ना हो गया था और हमला होने के भय से हवा में तलवार भांज रहा था। फिर उसने एक नजर अपनी तलवार पर डाली......अब तो बड़ा आसान था, अब वो चाहे तो एक ही झटके में उसे समाप्त कर सकता था। लेकिन पहले जिस क्रोध, घृणा और बदले की भावना के वशीभूत हो वो अपने शत्रु से लड़ रहा था अब उसका नामोनिशान भी न था, बल्कि शत्रु की हालत देख हृदय में करुणा उमड़ रही थी।
अरे बेचारा....अबोध है...नहीं जानता क्या कर रहा है, किस मूर्खता में पड़ा है। अगर होश होता तो ऐसा थोड़े करता।
एक ही क्षण में सब कुछ बदल गया था। ....और फिर तलवार हाथ से छूट कर गिर पड़ी।
अब उसे जीसस की वो कथा याद आ रही थी जिसमे उनको सूली पर चढ़ाया जा रहा था और वो बार-बार सूली पर चढाने वालों के लिए प्रार्थना कर रहे थे।
'हे पिता, इनको माफ़ कर देना ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।
उसने ये कथा कई बार सुनी थी लेकिन हमेशा सोचता था कि कोई इतना करुणावान कैसे हो सकता है जो अपने कातिलों के लिए भी दुआ करे। अब वो उसी करुणा को अपने भीतर महसूस कर रहा था।

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