Sunday 14 May 2017

आस्था और अन्धविश्वास

कई बार अन्धविश्वास और धार्मिक पाखण्ड के ऊपर चर्चा के दौरान कुछ ऐसे लोग टकराते हैं जो ये कहते हैं कि अंधविश्वास और पाखण्ड के तो वह भी प्रबल विरोधी हैं लेकिन ईश्वर में उनकी अटूट आस्था है और वे पूजा पद्धतियों और धार्मिक क्रिया कलापों को अन्धविश्वास से अलग आस्था का हिस्सा मानते हैं। उनके अनुसार आस्था रखना अन्धविश्वास नहीं है।

क्या वास्तव में अन्धविश्वास और आस्था दो भिन्न चीजें हैं?

अन्धविश्वास का शाब्दिक अर्थ तो बिलकुल स्पष्ट है। अन्धविश्वास अर्थात अँधा विश्वास यानी बिना देखे, बिना जाने, बिना समझे, बिना किसी प्रमाण, बिना किसी अनुभव किसी पर विश्वास करना।

और आस्था??

आस्था भी तो यही है बस फर्क इतना है कि आस्थाएं धर्म पर आधारित हैं जिनके स्रोत धर्मग्रन्थ हैं जिनके ईश्वर रचित होने का दावा आस्तिकों द्वारा किया जाता है। हालाँकि ईश्वर के होने और न होने के सम्बन्ध में अभी तक प्रमाण के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता और न ही धार्मिक किताबों के ईश्वरीय होने का कोई प्रमाण हमारे पास है। यदि ऐसा होता तो ये महज आस्थाएं नहीं बल्कि स्थापित सत्य कहलाते। हालाँकि सभी आस्थावान अपनी आस्था की सत्यता के सम्बन्ध में तरह तरह के दावे करते रहते हैं ताकि अपनी आस्था को सत्य साबित किया जा सके। लेकिन उनकी हर संभव कोशिश के बाद भी आस्था आस्था ही रहती है वो कभी सत्य नहीं हो सकती। क्योंकि आस्था का अस्तित्व तभी तक है जब तक उसके सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिल जाता। जैसे ही कोई ठोस प्रमाण मिलेगा वह आस्था आस्था न रहकर एक स्थापित सत्य हो जायेगी। अर्थात आस्था एक प्रमाणहीन विश्वास है जिसकी सत्यता निश्चित नहीं है। वो सत्य हो भी सकता है और नहीं भी।

एक उदाहरण से समझें –
गैलिलियो की खोज से पूर्व अधिकांश लोगों की आस्था थी कि धरती ब्रह्माण्ड का केंद्र है। लेकिन जब गैलिलियो ने ये साबित किया कि धरती मात्र सूर्य की परिक्रमा करने वाला एक ग्रह है तो लोगों की पुरानी आस्था असत्य हो गयी और जो गैलिलियो ने कहा वह स्थापित सत्य हो गया, क्योंकि गैलिलियो ने जो कहा था वह प्रमाण के आधार पर कहा था, जबकि आस्थावानों के पास उनकी आस्था के सम्बन्ध में कोई प्रमाण नहीं था। आज किसी को भी ये आस्था रखने की जरूरत नहीं है कि धरती सूर्य की परिक्रमा करती है क्योंकि हम जानते हैं ये स्थापित सत्य है।

इसी तरह पुराने समय में जिन लोगों की आस्था थी कि धरती चपटी है उनकी आस्था धरती के गोल सिद्ध होते ही असत्य हो गयी और आज जब हम कहते हैं की धरती गोल है तो ये कोई आस्था नहीं बल्कि स्थापित सत्य है। इसी तरह तमाम ऐसी आस्थायें और मान्यताएं हैं जिनका विज्ञान द्वारा समय समय पर खंडन होता रहा उनकी जगह स्थापित सत्यों ने ले ली है।


यदि इस नजरिये से देखा जाए तो आस्था और अन्धविश्वास में कोई फर्क नहीं है। फर्क है तो बस इतना की आस्था की सामजिक स्वीकार्यता धर्म से जुड़े होने के कारण अन्धविश्वास की तुलना में ज्यादा है। यदि किसी अन्धविश्वास को धर्म से जोड़कर उसे आस्था का नाम दे दिया जाए तो उसे आसानी से सामाजिक स्वीकार्यता मिल जाती है। यही कारण है आस्था के नाम पर तमाम अंधविश्वासों को न केवल सामजिक संरक्षण प्राप्त है बल्कि वो खूब फल-फूल रहे हैं। जो लोग खुद को शिक्षित और तर्कशील बताते हुए अन्धविश्वासों का विरोध करते हैं और समाज में व्याप्त अन्धविश्वास का दोष अशिक्षा और लोगों की मूढ़ता को देते हैं उनके दिमाग की बत्ती आस्था के नाम पर गुल हो जाती है और यही लोग आस्था के नाम पर दुनिया भर के ऊटपटांग काम ख़ुशी ख़ुशी करते देखे जा सकते हैं। फिर चाहे मूर्ति के सामने बैठ कर घंटी टनटनाना हो, शिवलिंग पर दूध चढ़ाना या नमाज के नाम पर की जाने वाली उठ्ठक बैठक ये अन्धविश्वास से भला किस तरह भिन्न हैं? धार्मिक कृत्य अन्धविश्वास ही तो हैं। मंदिर को देखकर सर झुकाना और बिल्ली के रास्ता काटने पर रुक जाना दोनों में भला क्या फर्क है? दोनों का आधार एक विश्वास ही तो है कि कोई अद्रश्य शक्ति है जो इस पर प्रतिक्रिया देती है जबकि उसके अस्तित्व का कोई प्रमाण मौजूद नहीं। 

Tuesday 9 May 2017

अंधे योद्धा

दो योद्धा आपस में लड़ रहे थे, दोनों के हाथों में तलवारें, चेहरे पर क्रोध, बस एक दुसरे को मार डालने पर आमादा थे। दोनों का शरीर कई जगह से क्षत-विक्षत हो गया था जिससे खून रिस रहा था, पर दोनों में से कोई भी पीछे हटने को राजी न था।
लेकिन ये क्या??.... दोनों की आँखों पर पट्टी बंधी थी। वो दोनों बीच-बीच में उस पट्टी को सँभालते जाते थे, जरा ढीली पड़ती तो उसको पुनः कस लेते। मानो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वो पट्टी थी, जिसको की हर हाल में आँखों पर बंधे रहना जरूरी था।
एक व्यक्ति बैठा हुआ उन्हें आपस में लड़ते देख रहा था। जब बहुत देर हो गयी उन्हें लड़ते हुए तो उससे रहा ना गया। अगर इन्हें रोका न गया तो ये एक दुसरे को समाप्त ही कर डालेंगे ऐसा सोचकर वो उन्हें समझाने के लिए उठा।
"भाई क्यों लड़ रहे हो?
"तुम कौन हो? - पहले योद्धा ने पुछा।
"तुम किस तरफ से हो? - दुसरे योद्धा ने पुछा।
"मैं किसी तरफ से नहीं हूँ, बस आप दोनों को लड़ते मुझसे देखा नहीं गया तो समझाने चला आया।
"लेकिन तुम्हारी बोल-चाल से तो लगता है कि तुम हमारे लोगों में से हो -पहले योद्धा ने कहा।
"मैं था पर अब नहीं - उस व्यक्ति ने कहा।
"जरा पास तो आओ - पहले योद्धा ने कहा।
योद्धा ने अपना हाथ उस व्यक्ति के चेहरे पर फिराया। "तुम्हारी पट्टी कहाँ है?.... ओह! मैं समझ गया तुम कौन हो। तुम वही हो ना जिसने हमारे पुरखों के ज्ञान, परंपरा, दार्शनिक मान्यता और बलिदान के फलस्वरूप मिली इस बहुमूल्य धरोहर को उतार फेंका....और रणभूमि को छोड़कर भाग निकला।
"भगोड़े.....कायर कहीं के - वो चीखा।
उस योद्धा की मुट्ठी क्रोध से भिंच गयीं थीं।
"चले जाओ यहाँ से इससे पहले की मैं तुम्हें जान से मार डालूं।
"अरे भाई इतना क्रोध क्यों करते हो? तुम दोनों जरा अपनी हालात तो देखो। सदियां बीत गयीं तुम लोगों को लड़ते हुए, लाशों के ढेर लगा चुके हो, अब बस भी करो।... और बात भी बड़ी मामूली सी है जिसके लिए तुम एक दुसरे के लहू के प्यासे हुये पड़े हो।......कि बस हमारी मान्यता सही है यही लड़ाई है ना तुम्हारी??
"तो ये मामूली बात है??.....इसकी हिम्मत कैसे हुई हमारी महान परंपरा और मान्यता को गलत कहने की।
"अरे भाई परंपराएं बीतते समय के साथ अपनी उपयोगिता खो देती हैं। इसलिए जरूरी है कि एक समय के बाद इनकी समीक्षा कर ली जाए ताकि जो उपयोगी है वो बचा रहे और व्यर्थ है उसके बोझ से मुक्ति मिले। और जहाँ तक मान्यताओं की बात है, तो ये तो सब कल्पनाएं ही हैं सत्य नहीं हैं। मान्यता का अर्थ ही ये है कि जो मान लिया गया है। तो जो माना गया वो तो कल्पना ही हुयी सत्य नहीं, जो जाना गया वही सत्य है।
और तुम आपस में लड़े जा रहे हो की मेरी कल्पना सही और तुम्हारी कल्पना गलत। ये तो बच्चों वाली बात है।
"तो क्या जो हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है वो भी कल्पना है? वो तो निश्चित ही सत्य है, - पहले योद्धा ने दृणता से कहा।
"पहले ये समझो की सत्य क्या है। सत्य वो है जो हमारे अनुभवगत हो, जो किसी और ने अनुभव किया वो उसके लिए सत्य हुआ हमारे लिए नहीं। इसलिए पहले जो ग्रंथों में पहले उसे अनुभव करो उसकी सत्यता जांचों तब लड़ो तो फिर भी ठीक है, तुम दोनों तो बिना सत्यता जांचे ही उसे सच साबित करने की कोशिश कर रहे हो। यही कारण है कि तुम इस हालत में आ पहुंचे हो।
"तुम हमें बुद्धू समझते हो क्या? हमने अपने ग्रंथों की सत्यता जांच ली है। हमारे ग्रंथों में लिखा एक-एक शब्द निर्विवाद रूप से सत्य है। - दोनों योद्धा एक ही स्वर में बोले।
"कैसे जांच ली??... सत्य की जांच के लिए जो उपकरण चाहिए उसका तो तुमने उपयोग ही नहीं किया।
"कौन सा उपकरण??
"ये जो मोटी-मोटी पट्टियां तुम दोनों ने अपनी आँखों पर बाँध रखी हैं बिना इनको खोले तुमने कैसे सत्यता परख ली?
"खबरदार!! जो इन पट्टियों के बारे में एक शब्द भी कहा....तुम्हारी गर्दन धड़ से अलग कर दी जायेगी। - पहला योद्धा तलवार लहराते हुए बोला।
"ये पट्टियां हमारे पुरखों की विरासत हैं। जब से हमने होश संभाला है इनको सहेज के रखा है और जब तक इस शरीर में प्राण हैं सहेज के रखेंगे। हम तुम्हारी तरह नहीं हैं जो अपने पुरखों की विरासत को त्याग दें। .....मैं तुम्हारी चाल खूब समझता हूँ, तुम हमको भी अपने जैसा बनाना चाहते हो। जाओ जाओ किसी और का बेफकूफ बनाना, मैं तुम्हारी बातों में आने वाला नहीं हूँ। - दुसरे योद्धा ने लगभग दुत्कारते हुए कहा।
अब वह व्यक्ति पहले योद्धा की ओर मुड़ा।
"देखो भाई ये तो मेरी बात मानेगा नहीं, कम से कम तुम तो समझो।....मैं तो तुम लोगों में से ही हूँ। एक समय था जब मैं भी तुम्हारी तरह था, मैं भी तुम लोगों के साथ ही लड़ा करता था। लेकिन मैंने सत्य को जाना और मैं चाहता हूँ तुम भी जानो, पर इन पट्टियों को खोले बिना तुम सत्य नहीं जान पाओगे।
"तुमने कोई सत्य-वत्य नहीं जाना, कायर हो तुम जो रण छोड़कर भाग गए और मुझे भी कायर बनाना चाहते हो। तुम्हारे जैसे बहुतों को सूली पर लटकाया है, कड़ाहों में जलाया है और तिल-तिल करके मारा है.. चले जाओ यहाँ से वर्ना तुम्हारा भी वही हश्र होगा।
"मैं जानता हूँ। लेकिन फिर भी तुमसे आग्रह कर रहा हूँ कोई तो वजह होगी? मैं तुम्हारे ही हित की बात कर रहा हूँ अगर तुम समझो तो.....अच्छा सुनो, जरा साइड में आओ।
"हाँ कहो
"क्या तुम जानते हो ये जो तुमने पट्टी बंधी हुई है ये तुम्हारे युद्धकौशल में बाधक है?? मैंने देखा है तुम कई बार अपने लक्ष्य से चूक जाते हो। यदि ये पट्टी हटा दो तो तुम्हारा हर वार सटीक होगा और शत्रु का कोई भी वार तुम्हें छू भी ना पायेगा। तुम चुटकियों में अपने शत्रु को पराजित कर सकते हो।
"तुम बड़े चालबाज आदमी मालूम पड़ते हो, लगता है आज आत्महत्या करने के उद्देश्य से घर से निकले हो। बस अब अगर एक और बात तुमने इन पट्टियों के खिलाफ कही तो तुम्हारा सर धड़ से अलग कर दूंगा।
"ठीक है मुझे मारना है...मार लेना। मैं यहीं खड़ा हूँ.....अगर मेरी बात झूठी निकले तो मैं मरने को तैयार हूँ। लेकिन मुझे मारने से पहले एक बार इन पट्टियों को खोल दो।
योद्धा सोच में पड़ गया....कैसा अजीब आदमी है जो मरने से भी नहीं डर रहा। कहीं जो ये कह रहा है सच तो नहीं?? अगर जो ये कह रहा है सच हुआ तो कम से कम इस शत्रु से तो छुटकारा मिलेगा। और अगर झूठ बोला तो इस भगोड़े को मारने का पुण्य मिलेगा। यानी दोनों ओर से फायदा ही फायदा है।
ये सोचकर उस योद्धा ने पट्टी खोलने के लिए हाथ बढ़ाया। वो धीरे-धीरे एक एक पट्टी को खोलकर रखने लगा। अब उसकी आँखों को प्रकाश की अनुभूति होने लगी थी। प्रकाश उसके लिए बिलकुल अपरिचित चीज थी। अब उसका कौतूहल बढ़ने लगा..अब उसके हाथ तेजी से चल रहे थे। और फिर वो अंतिम पट्टी भी खोल दी।
पलकों से छन कर आने वाला लाल प्रकाश उसको महसूस हो रहा था।
"आँखें खोलो - उस व्यक्ति ने कहा।
योद्धा की पलकों में हरकत हुई और उसने अपनी आँखे धीरे से खोल दीं। तीव्र प्रकाश से उसकी आँखें चौंधिया गयीं। फिर धीरे-धीरे सब सामान्य हुआ और उसे आस-पास की सभी वस्तुएं नज़र आने लगीं। जो व्यक्ति उसको समझा रहा था वो सामने खड़ा था। कुछ दूर पर वो शत्रु भी जिससे वो लड़ रहा था लहूलुहान खड़ा था। उसके शरीर में कई घाव थे जिनसे खून टप-टप टपके जा रहा था। फिर उसने खुद को देखा, उसका खुद का हाल भी कुछ वैसा ही था। अपने भीतर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ की इतना जीवन मैंने किस मूर्खता में गँवा दिया। जिन परंपराओं और मान्यताओं की मैंने अपनी जान पर खेल कर हिफाजत की जिनकी श्रेष्ठता और सत्यता साबित करने के लिए लड़ा, उन्होंने ही मुझे सत्य से दूर कर दिया। मैंने अपना आधा जीवन एक अंधे की भांति गुजार दिया। भला हो इस आदमी का जिसने अपनी जान की परवाह न करके मुझे इस अँधेरे से निकाला। ये सोचकर कृतज्ञता से उसकी आँखें भर आईं। किन शब्दों से इसका शुक्रिया अदा करूँ, ऐसा सोच ही रहा था कि वह व्यक्ति बोल पड़ा, "सोचते क्या हो? वो खड़ा तुम्हारा शत्रु......जाओ मार डालो उसे।
योद्धा ने एक नजर अपने शत्रु पर डाली जो हमले की आशंका से चौकन्ना हो गया था और हमला होने के भय से हवा में तलवार भांज रहा था। फिर उसने एक नजर अपनी तलवार पर डाली......अब तो बड़ा आसान था, अब वो चाहे तो एक ही झटके में उसे समाप्त कर सकता था। लेकिन पहले जिस क्रोध, घृणा और बदले की भावना के वशीभूत हो वो अपने शत्रु से लड़ रहा था अब उसका नामोनिशान भी न था, बल्कि शत्रु की हालत देख हृदय में करुणा उमड़ रही थी।
अरे बेचारा....अबोध है...नहीं जानता क्या कर रहा है, किस मूर्खता में पड़ा है। अगर होश होता तो ऐसा थोड़े करता।
एक ही क्षण में सब कुछ बदल गया था। ....और फिर तलवार हाथ से छूट कर गिर पड़ी।
अब उसे जीसस की वो कथा याद आ रही थी जिसमे उनको सूली पर चढ़ाया जा रहा था और वो बार-बार सूली पर चढाने वालों के लिए प्रार्थना कर रहे थे।
'हे पिता, इनको माफ़ कर देना ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं।
उसने ये कथा कई बार सुनी थी लेकिन हमेशा सोचता था कि कोई इतना करुणावान कैसे हो सकता है जो अपने कातिलों के लिए भी दुआ करे। अब वो उसी करुणा को अपने भीतर महसूस कर रहा था।

Monday 8 May 2017

कहीं आपके मस्तिष्क को हैक तो नहीं किया गया?


कंप्यूटर हैकिंग से तो आप सभी परिचित होंगे। कंप्यूटर हैकिंग असल में किसी कंप्यूटर प्रणाली में की जाने वाली घुसपैठ जैसी होती है जिसमे हैकर उस कंप्यूटर पर पूर्ण या आंशिक नियंत्रण स्थापित कर लेता है। ऐसा कर के वो न केवल कंप्यूटर के सामान्य कार्य काज में बाधा उत्पन्न कर सकता है बल्कि उसको अपने निर्देशानुसार चलने के लिए बाध्य कर सकता है। कंप्यूटर प्रणालियों में इस प्रकार के खतरों से निपटने के लिए सुरक्षा इंतजाम किये जाते हैं जिनको हम फ़ायरवॉल के नाम से जानते हैं। फ़ायरवॉल कंप्यूटर प्रणाली तक किसी भी तरह की अवैधानिक पहुँच की पहचान करता है जिससे उस कंप्यूटर को खतरा हो सकता है। जैसे ही कोई ऐसा कोई प्रयास पकड़ में आता है वो तुरंत एडमिन को सचेत कर देता है ताकि उसको रोका जा सके।
हमारे मष्तिष्क की कार्य रचना भी कुछ कुछ कंप्यूटर से मिलती जुलती है, और कंप्यूटर की तरह इसको भी जीवन भर हैकिंग के खतरों से दो चार होना पड़ता है। इसके प्रयास हमारे पैदा होते ही शुरू हो जाते हैं। हमारे समाज में मौजूद तमाम विचारधाराएँ और संगठित धर्म हमारे मस्तिष्क को हैक करने के लिए हर समय तैयार ही बैठे हैं और ये हमारे समाज और संस्कृति में इस कदर घुले मिले हैं कि इनके कुत्सित प्रयासों की पहचान कर पाना बड़ा मुश्किल है। हालांकि इस तरह के खतरों से निपटने के लिए प्रकृति ने हमें भी एक सुरक्षा तंत्र दिया है, जिसको हम शक या संदेह के नाम से जानते हैं। यही वो सुरक्षा प्रणाली है जो विचारों के संक्रमण से हमारी रक्षा करती है और सुनिश्चित करती है की उस विचार को स्वीकारा जाए अथवा नहीं। जब भी हमारी जानकारी में कोई असामान्य बात आती है तो हमारे मन में उसको लेकर संदेह पैदा होता है। जो हमें उस जानकारी की सत्यता को लेकर सोचने को मजबूर कर देता है ताकि हम उस जानकारी पर अच्छे से सोच विचारकर निर्णय लें की वह स्वीकारने योग्य है अथवा नहीं। यदि हमें वह बात भरोसे के लायक नहीं लगती तो हम उसको नकार देते हैं, इस प्रकार हमारा मस्तिष्क उससे संक्रमित होने से बच जाता है।
लेकिन संदेह के साथ एक समस्या है कि यह समय के साथ ही विकसित होता है। अर्थात जब हम बाल्य अवस्था में होते हैं तो संदेह का सुरक्षा घेरा इतना मजबूत नहीं होता। यही कारण है कि बच्चे परीकथाओं पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं। अर्थात बाल्यावस्था में यदि कोई चाहे तो आसानी से इसको बेधकर हमारे मस्तिष्क पर नियंत्रण स्थापित कर सकता है। यही कारण है बाल्यावस्था में जो संस्कार, आस्था और विश्वास मन में जड़ें जमा लेते हैं उनसे मुक्त होना बड़ा कठिन होता है। विचारों के संक्रमण की पहली डोज हमें कहीं बाहर से नहीं बल्कि अपने घर से ही मिलती है। चूँकि हमारे परिवारी जन भी किसी न किसी संगठित धर्म की विचारधारा के संक्रमण से प्रभावित होते हैं तो वही संक्रमण वो चाहे अनचाहे हमारे भी भीतर प्रविष्ट करा देते हैं। एक आध को छोड़ लगभग सभी मामलों में एक बालक व्यस्क होने तक किसी न किसी संगठित धर्म की विचारधारा के चपेट में आ ही जाता है और फिर जीवन भर इससे मुक्त नहीं हो पाता। आइये अब समझते हैं ये काम कैसे करती है।
यदि हमें किसी के मष्तिष्क को हैक करना है और उसे अपने नियंत्रण में लेना है तो सबसे पहले हमें उसकी सुरक्षा प्रणाली निष्क्रिय करना होगा अर्थात ये जो संदेह की फ़ायरवॉल है इसको किसी तरह निष्क्रिय करना होगा। लेकिन ऐसा कोई तरीका हमारे पास नहीं है जिससे कि इस फ़ायरवॉल को हमेशा के लिए निष्क्रिय किया जा सके पर कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे इस फ़ायरवॉल में सेंध लगाई जा सकती है ताकि विचारों को बिना फ़ायरवॉल के संपर्क में आये सीधे मस्तिष्क में प्रविष्ट कराया जा सके, और इन्हीं तरीकों में से एक सबसे बेहतरीन तरीका है धार्मिक आस्था।
धार्मिक आस्था इस फ़ायरवॉल में सेंध लगाने का सबसे पुराना और सबसे कारगर तरीका है, जिसका प्रयोग हजारों सालों से सफलतापूर्वक किया जा रहा है और ये आज भी उतना ही कारगर है। आस्था का अर्थ ही है अनदेखे, बिना परखे, बिना जाने, बिना तर्क के किसी में विश्वास करना। हालाँकि हमारे मस्तिष्क का मूल स्वाभाव यही है कि ये कभी भी अनदेखे में विश्वास नहीं करना चाहता। जब भी हम ऐसा करते हैं हमारा मष्तिष्क संदेह खड़ा करके हमें सचेत करता है। ऐसे में धर्म के नाम पर भय और लालच का एक घेरा खड़ा कर मस्तिष्क की इस प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली में सेंध लगायी जाती है, धार्मिक आस्थाओं और मान्यताओं में संदेह करने को ही पाप घोषित कर दिया जाता है और संदेह करने वाले को म्रत्यु के पश्चात नर्क में भयानक यातनाओं को भुगतने की धमकी देकर डराया जाता है और संदेह न करने पर तरह तरह के प्रलोभनों के सब्जबाग सजाये जाते हैं जिसमे म्रत्यु के पश्चात स्वर्ग में मिलने वाली तमाम कल्पनातीत सुख सुविधायें शामिल हैं। धर्म में संदेह न करने को बहुत महिमामंडित किया जाता है और इसको ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए अनिवार्य योग्यता की तरह प्रचारित किया जाता है। लोगों को धर्म की विचारधारा से जुडी हर बात पर आसानी से राजी किया जा सके इसलिए पूरी विचारधारा को ही ईश्वरीय या दिव्य घोषित कर दिया जाता है। सभी संगठित धर्म अपने धर्मग्रंथों को मानवरचित नहीं बल्कि ईश्वर रचित बताते हैं ताकि संदेह और तर्क का कोई स्थान ही न बचे। इसके साथ ही अपने पैत्रिक धर्म से जुड़ा श्रेष्ठता का भाव भी संदेह करने से रोकता है। फिर भी यदि संदेह बाकी रहे तो धार्मिक संस्थायायें लगातार भ्रामक प्रचारों के माध्यम से संदेहों का खंडन करती रहती हैं। अगर आप किसी भी संगठित धर्म की मूल भावना पर गौर करेंगे तो आप पायेंगे की इसका सारा प्रयास आपको संदेह और तर्क से विमुख रखने पर है। क्योंकि आपके मस्तिष्क पर नियंत्रण आपको संदेह और तर्क से विमुख रखकर ही संभव है।
इसलिए कोई भी धर्म जो आपको संदेह करने से रोकता है तर्क से विमुख करता है वो आपको गुलाम बनाने के साधन के अतरिक्त कुछ भी नहीं है। शक करना, संदेह करना, तर्क करना कोई रोग नहीं है बल्कि आपको रोग से दूर रखने का साधन है। यहाँ मुझे जुनैद मुनकिर साहब की लिखी एक कविता याद आती है जो मुझे अत्यंत प्रिय है।

शक जुर्म नहीं, शक पाप नहीं, शक ही तो इक पैमाना है ,

विश्वास में तुम लुटते हो सदा, विश्वास में कब तक जाना है।

शक लाज़िम है भगवान ओ, ख़ुदा पर जिनकी सौ दूकानें हैं ,

औतार ओ पयम्बर पर शक हो, जो ज़्यादः तर अफ़साने1हैं।

शक हो सूफ़ी सन्यासी पर, जो छोटे ख़ुदा बन बैठे हैं ,

शक फूटे धर्म ग्रंथों पर, फ़ासिक़२ हैं दुआ बन बैठे हैं।

शक पनपे धर्म के अड्डों पर, जो अपनी हुकूमत पाये हैं ,

जो पिए हैं ख़ून की गंगा जल, जो माले ग़नीमत3 खाए हैं।

शक थोड़ा सा ख़ुद पर भी हो, मुझ पर कोई ग़ालिब४ तो नहीं ?

जो मेरा गुरू बन बैठा है, वह बदों का ग़ासिब५ तो नहीं ?

शक के परदे हट जाएँ तो, 'मुंकिर' हक़ की तस्वीर मिले ,

क़ौमों को नई तालीम मिले, जेहनों को नई तासीर६ मिले।


१-कहानी   २- मिथ्य   ३-युद्ध में लूटी सम्पत्ति   ४-विजई   ५ -अप्भोगी   ६-सत्य

कुरान में विज्ञान

       कुरान को खुदा की किताब और मुहम्मद साहब को अंतिम पैगम्बर मानने वाले अति आस्तिक मुस्लिमों के चेहरे की रंगत तब देखते ही बनती है जब कोई गोरा (western guy) इस्लाम की तारीफ़ करता है। और अगर कहीं वो कुरान या हदीस की किसी बात को विज्ञान की किसी खोज से जोड़ दे तब तो सुभानअल्लाह।
आपने ऐसी पोस्ट अक्सर फेसबुक पर देखीं होंगी जिसमे ये दावा किया जाता है की विज्ञान की अमुक खोज के बारे में कुरान में पहले से दिया हुआ है। अक्सर इस्लाम में दावा करने वाले मौलवी और ओलेमा इसका दावा करते देखे जाते हैं की विज्ञान ने जिस चीज को अब खोजा उसके बारे में कुरान ने 1400 साल पहले बता दिया था। जैसे: बिग बैंग थ्योरी, सूर्य का घूर्णन, जीवन का उद्भव, गर्भ में बच्चे का बनना, चन्द्रमा का सूर्य की रोशनी से प्रकाशित होना और भी जाने क्या-क्या।
मशहूर इस्लामिक वक्ता और अब तड़ीपार मियां जाकिर नाइक अक्सर अपने वक्तव्यों में बढ़ चढ़कर इसका जिक्र करते पाए जाते हैं और इस्लाम को सबसे साइंटिफिक धर्म बताते हैं।
इससे पहले कि हम कुरान के वैज्ञानिक दावों की पड़ताल करें, ये जान लीजिये की ये वैज्ञानिक दावे किसने, कब और कैसे खोजे।
कुरान के अधिकांश वैज्ञानिक दावे उस समय प्रकाश में आये जब 1976 में एक फ्रांसिसी मेडिकल सर्जन डॉ. मोराईस बुकाय द्वारा लिखी एक किताब “The Quran and Science” प्रकशित हुई जिसमे कुरान की आयातों में छुपी विज्ञान की बहुत सी खोजों का जिक्र किया गया था। और जैसा की होना ही विज्ञान के बढ़ते क़दमों से इस्लाम के भविष्य को लेकर चिंतित मोलवियों ने इस किताब को हाथों हाथ लिया। जल्दी ही ये किताब उनके वक्तव्यों में किये जाने वाले वैज्ञानिक दावों का मुख्य स्रोत बनने के साथ-साथ नए मोलवियों को प्रशिक्षण के दौरान पढाई जाने वाली किताबों में से एक जरूरी किताब बन गयी। चूँकि ये किताब किसी गोरे ने लिखी थी जो की मुस्लिम भी नहीं था इसलिए आम जनता को समझाना भी बड़ा आसन हो गया। क्योंकि एक आम अवधारणा है ‘जो पता नहीं कैसे बनी’ कि कोई गोरा किसी बात का दावा करे तो हम उस दावे पर सहज विश्वास कर लेते हैं। इसलिए मुल्लाओं ने इस किताब को बहुत सराहा। सभी इस्लामी देशों ने इस किताब का अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद करवाया।
हालाँकि डॉ. बुकाय के ये दावे कितने वैज्ञानिक हैं इसका पता किताब को पढने के बाद चल जाता है। अगर आप जरा सी भी वैज्ञानिक अथवा तर्कपूर्ण समझ भी रखते हैं तो किताब में डॉ. बुकैल्ल के दावों का घुमावदार तर्क और कुरान में से अपने मतलब की लाइनों का चयन सहज ही पकड़ सकते हैं। मगर दुर्भाग्य ये है की विश्व की अधिकांश जनसँख्या पर्याप्त सामान्य समझ भी नहीं रखती वैज्ञानिक समझ तो दूर की बात है। इसीलिए जाकिर नाइक और उसके जैसे अन्य मोलवियों का काम आसान हो जाता है। लेकिन एक बात और है जो की शक पैदा करती है की फ्रांस में रहने वाले एक मेडिकल सर्जन को कुरान में विज्ञान ढूंढने की क्या जरूरत पड़ गयी थी??....तो आइये जरा इसकी पड़ताल करते हैं।
असल में डॉ. बुकाय सऊदी अरब के तत्कालीन सम्राट किंग फैज़ल के फैमिली फिजिशियन भी थे। डॉ. बुकाय किंग फैज़ल की अकूत संपत्ति और शानो शौकत से बहुत प्रभावित थे, और जाहिर है किंग फैज़ल उनके सबसे ख़ास कस्टमर्स में से एक थे, और कस्टमर भी ऐसा जिसे की कोई खोना नहीं चाहेगा। तो डॉ. बुकाय ने किंग फैज़ल से नजदीकियां बढानी शुरू कीं, बातचीत का सिलसिला बढ़ा तो किंग फैज़ल ने डॉक्टर साहब का परिचय इस्लाम और कुरान से कराया। यहीं से डॉ. बुकाय के दिमाग में किंग फैज़ल का खासमखास बनने और साथ ही पेट्रो डॉलर कमाने का एक दोहरा प्लान दिमाग में कौंध गया, और डॉ. बुकाय ने तुरंत ही अरबी भाषा सीखनी शुरू कर दी। डॉ. बुकैल्ल अच्छी तरह जानते थे की अरब के मालदार शेखों कोई बात अन्दर तक गुदगुदा सकती थी तो वो ये की एक गोरा काफ़िर कुरान की तारीफ करे। उन्होंने यही किया, क्योंकि ये जिन्दगी भर एक डॉक्टर की जॉब करके गुजार देने से कहीं बेहतर था, क्योंकि इसमें ढेर सारा पैसा कमाने का मौका तो था ही साथ ही अरब के रईस शेखों की हमदर्दी और पूरे मुस्लिम जगत की दुआएं भी शामिल थी।
अगर आप डॉ. बुकाय की किताब पढ़ें तो इसमें डॉक्टर साहब ने इस्लाम की तारीफों के पुल बाँध दिए हैं जैसे की डॉक्टर साहब को पूरा विश्वास हो कि दुनिया में यही एकमात्र सच्चा और वैज्ञानिक धर्म है। तो जब कोई किसी धर्म से इतना प्रभावित हो जो जाहिर सी बात है वो उसे अपना लेगा।
तो क्या डॉ. बुकाय ने इस्लाम अपनाया??
नहीं............डॉ. साहब इतने मूर्ख नहीं थे। वो अच्छी तरह जानते थे की अगर वो इस्लाम अपना लें तो और बहुत सारा माल बटोर सकते हैं पर ज्यादा लालच ठीक नहीं, चूँकि उन्होंने कुरान पढ़ा था, तो वो जानते थे की इस्लाम में केवल दाखिल होने का रास्ता है निकलने का नहीं। इस्लाम छोड़ने की सजा मौत है। इसलिए उन्होंने बस अपना उल्लू सीधा किया माल बटोरा और सीधे घर की रास्ता पकड़ी।
इसी तरह एक और डॉक्टर थे “डॉ. कैथ मूरे” जो की टोरंटो यूनिवर्सिटी में एनाटोमी एंड सेल बायोलॉजी विभाग के प्रेसिडेंट थे। जब उन्हें सऊदी अरब से किंग अब्दुल अज़ीज़ यूनिवर्सिटी से एक बड़े पद पर काम करने के ऑफर आई तो उनके नथुनों ने पेट्रो डॉलर की भीनी सुगंध को महसूस किया, और कुछ दिन बाद ही वो किंग अब्दुल अजीज यूनिवर्सिटी की एम्ब्र्योलोजी कमिटी में काम कर रहे थे। उनको यूनिवर्सिटी में जो काम दिया गया वो भी बड़ा मजेदार था, उनको कुरान और सुन्नाह में से उन पंक्तियों की खोज करनी थी जो मानव जन्म, शरीर-रचना और विकास से सम्बंधित हों। लेकिन यहाँ एक बात जो समझ नहीं आती वो ये की अरब के लोगों को इस काम के लिए एक विदेशी काफ़िर की क्या जरूरत पड़ गई, जबकि उनके अपने देश में उनके बहुत से मुस्लिम भाई इस क्षेत्र में अच्छे विशेषज्ञ होने के साथ-साथ कुरान और अरबी भाषा के अच्छे जानकार भी थे? क्या उनको अपने मुस्लिम भाइयों की प्रतिभा पर शक था?
जो लोग अरब देशों में काम करते हैं वो ये जानते होंगे की वहां एक किस्म का रंग-भेद चलता है जो कि गोरे लोगों को काले लोगों से बेहतर मानता है। गोरे लोगों का वेतन और सुविधाएँ काले लोगों की अपेक्षा सामान्यत: ज्यादा होती हैं, और उनकी कही हुई बात को भी ज्यादा तहरीज दी जाती है। एक काले व्यक्ति द्वारा ‘फिर चाहे वो कितना ही काबिल हो’ दिया गया बयान इतना महत्त्व नहीं रखता, जबकि कोई सामान्य योग्यता का गोरा व्यक्ति यदि कोई बात कहता है तो वो उनके लिए बहुत मायने रखती है। गोरे लोग इस बात को बखूबी समझते हैं और इसका जमकर फायदा उठाते हैं। अब जरा देखिये डॉ. मूरे ने अपने अन्नदाताओं को कैसे खुश किया। काहिरा में हुई कांफ्रेस में उन्होंने एक रिसर्च पेपर पढ़ा जिसमे उन्होंने कहा,
“ये मेरे लिए बड़ी ख़ुशी की बात है की मुझे कुरान में मनुष्य के जन्म और विकास सम्बंधित जानकारी तलाशने का मौका मिला। और अब ये मुझको बिल्कुल साफ़ हो गया है की ये जानकारी मुहम्मद साहब के पास केवल ईश्वर से ही आ सकती है क्योंकि जो जानकारी मुझे कुरान में मिली वो बीती हुयी कुछ एक शताब्दियों के दौरान ही खोजी गयी है। इससे मुझे ये प्रमाणित हो गया है की मुहम्मद ईश्वर के भेजे हुए दूत थे।“
वाह!! कमाल कर दिया! एक काफ़िर के मुहँ से मुल्लाओं को खुश करने के लिए इससे बेहतर और क्या बयान हो सकता था। लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है की उसने पूरे रिसर्च पेपर में कहीं ये नहीं कहा की कुरान में जो बातें लिखी हैं वो वैज्ञानिक हैं। उसने जो भी कहा वो अपनी व्यक्तिगत अनुभूति पर कहा जबकि वैज्ञानिक आंकड़े व्यक्तिगत अनुभूति पर नहीं बल्कि सार्वभौमिक अनुभूति पर आधारित होते हैं। तो उसने केवल वो कहा जो कि मुल्ला सुनना चाहते थे। और कमाल की बात ये रही की इतनी गहरी अनुभूति होने पर भी उसने इस्लाम नहीं अपनाया, उसने बस अपने पैसे लिए और रास्ते भर मुल्लाओं की मूर्खता पर हँसता हुआ अपने घर गया। पश्चिम में एक कहावत है कि हर मिनट में एक बुद्धू पैदा होता है। जब तक इस्लाम मुल्लाओं के चंगुल में है इस धरती पर ऐसे बुद्धू भारी तादात में पैदा होते रहेंगे जिनको की पश्चिम के लोगों द्वारा लूटा जाता रहेगा।
आप यदि ऐसे गोरों की लिस्ट बनायें जिन्होंने कभी भी इस्लाम की तारीफ़ में कुछ कहा है तो आप पायेंगे की उन्होंने कभी न कभी या तो अरब में काम किया है या उनको अरबों द्वारा एक भारी-भरकम बजट के साथ इस्लाम पर रिसर्च करने के लिए नियुक्त किया गया होता है। इस तरह का रिसर्च सऊदी अरब में आम है जिसमे की विदेशियों को ‘विशेष तौर पर गोरों को’ एक भारीभरकम बजट के साथ कुरान, हदीस तथा इस्लामिक मान्यताओं और परम्पराओं पर रिसर्च करने के लिए नियुक्त किया जाता है, जिसका उद्देश्य केवल इनकी वैज्ञानिकता और प्रमाणिकता को सिद्ध करना होता है। अब इस तरह की रिसर्चों में कितनी निष्पक्षता बरती जाती होगी ये तो आप समझ ही सकते हैं। इस तरह की रिसर्चों का परिणाम पहले से ही तय होता है और पूरी रिसर्च ये ध्यान में रख के करी जाती है की रिसर्च से पूर्व जो परिणाम तय किये हैं वही आयें। कमाल की बात ये है की इन रिसर्च आंकड़ों की विरले ही कभी कोई जांच किसी थर्ड पार्टी से करायी जाती है और करायी भी जाती है तो ये जांच भी कितनी निष्पक्ष होती होगी ये कहा नहीं जा सकता। बाद में किसी भव्य आयोजन के द्वारा रिसर्च के परिणामों की घोषणा की जाती है और फिर सऊदी अरब के विश्व भर में तैयार किये गए मुल्ला नेटवर्क द्वारा इसको जन-जन तक पहुंचा दिया जाता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है जब इसी तरह की रिसर्च पश्चिम की किसी गुमनाम यूनिवर्सिटी द्वारा की जाती है, ऐसी ही एक रिसर्च जो मैंने पढ़ी थी जो की जर्मनी की किसी यूनिवर्सिटी में की गयी थी जिसका उद्देश था की पशुओं को मांस के लिए क़त्ल करने का कौन सा तरीका बेहतर है “हलाल या स्टनिंग”। किस तरीके से पशु को कम दर्द महसूस होता है। पशु को होने वाले दर्द को मापने के लिए उन्होंने ECG मशीन का प्रयोग किया था। अब ये तो बताने की जरूरत नहीं है की रिसर्च का परिणाम क्या रहा होगा। अगर कोई निष्पक्ष रिसर्चर इस रिसर्च को पढ़े तो वो इसे रद्दी की टोकरी में फेंकने में देर नहीं लगाएगा। क्योंकि इसमें रिसर्च के सभी मानकों का उल्लंघन किया गया है। रिसर्च का लक्ष्य स्पष्ट समझ आता है कि इसको हलाल तरीके को बेहतर साबित करने के उद्देश से ही अंजाम दिया गया है ताकि इस पारंपरिक इस्लामिक तरीके पर वैज्ञानिकता का ठप्पा लगाया जा सके।
पश्चिमी रिसर्चर बड़े चालाक होते हैं वो जानते हैं की मुल्लाओं को क्या परिणाम चाहिए, इसलिए वो रिसर्च को उल्टा करके शुरू करते हैं। पहले ये तय किया जाता है की इस रिसर्च से हमें क्या परिणाम चाहिए, फिर पूरी रिसर्च का आयोजन इस तरह से किया जाता है की अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो जायें। इस तरह के रिसर्च आयोजन आर्थिक बदहाली से जूझ रही पश्चिम की नयी यूनिवर्सिटीयों के लिए जीवन दान का काम करते हैं। नए मुल्लाओं को लगता है की इस तरह की रिसर्च करवा के उन्होंने कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हांसिल कर ली है, मानो उन्होंने तेल के पैसे के दम पर विज्ञान को खरीद लिया है। जबकि हकीकत ये है की इस तरह के रिसर्च आयोजनों से केवल चालक पश्चिमी रिसर्चरों का ही भला होता है जबकि विश्व भर में फैले मुस्लिमों की एक बड़ी संख्या भ्रम का शिकार होती है, जिसका परिणाम उनको और उनकी आने वाली पीढ़ी को भुगतना ही पड़ेगा।
पश्चिम बड़ा चालक है और उसकी चालाकियों को केवल बुद्दिमानी से ही मात दी जा सकती है। लेकिन मुल्लाओं की बुद्धि पर तो कुरान का पर्दा पड़ा है। उनकी दृष्टि सीमित हो गयी है वो कुरान से आगे कुछ और देखने में असमर्थ है। जहाँ पश्चिम पुरानी धार्मिक मान्यताओं को दरकिनार कर विज्ञान के मार्ग पर चल पड़ा है वहीँ मुल्ला लोग कुरआन की आयतों में विज्ञान खोज रहे हैं ताकि अपने धर्म के सर्वश्रेष्ठ होने के अहंकार को संतुष्ट कर सकें और दुनिया भर के मुसलमानों को ये तसल्ली दे सकें की वो सही राह पर हैं।
अन्य धर्मों में भी गाहे-बगाहे ऐसी बातें सुनने को मिलती रहती हैं जहाँ की लोग आज की विज्ञान की खोजों का सम्बन्ध अपने धर्मग्रंथों की मिथकीय कहानियों से जोड़ते हैं। जैसे की हिन्दू पुष्पक विमान का संधर्भ देकर पहला विमान हिंदुओं द्वारा बनाया जाना बताते हैं, गणेश जी का सर काटकर हाथी का सर लगाने को सफल सर्जरी बताते हैं। महाभारत के युद्ध में आण्विक हथियारों का प्रयोग और भी जाने क्या-क्या। हो सकता है भविष्य में इनको भी गोरों से रिसर्च करवा कर प्रमाणित करवाने की कोशिश हो बाकी गौ मूत्र, गोबर और हवन इत्यादि पर तो स्वदेशी रिसर्चर रिसर्च कर ही रहे हैं।
जैसे-जैसे विज्ञान का प्रभाव दुनिया में बढ़ रहा है पुरानी मान्यताएं, परम्पराएं और धर्मग्रंथों में लिखी बातें और मिथकीय कहानियां न केवल संदेह के घेरे में आ रही हैं बल्कि अपनी प्रसंगिकता भी खोती जा रही हैं और प्रबुद्ध समाज द्वारा इनको संदेह से देखा जा रहा है। लेकिन धर्म के ठेकेदारों को ये बिल्कुल भी गंवारा नहीं की कोई भी उनके सदियों पुराने स्थापित धर्म पर जरा भी संदेह करे और अपने धर्म को सही, सच्चा और वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। उनकी ये कोशिश सिर्फ धर्म रुपी बाड़े को मजबूती देने की है ताकि कोई इस बाड़े की सीमा को तोड़ कर आजाद ना होने पाए। पश्चिम उनकी इस हालत को बखूबी समझता है और इसका जमकर फायदा उठा रहा है।