कई बार अन्धविश्वास और धार्मिक पाखण्ड के ऊपर
चर्चा के दौरान कुछ ऐसे लोग टकराते हैं जो ये कहते हैं कि अंधविश्वास और पाखण्ड के
तो वह भी प्रबल विरोधी हैं लेकिन ईश्वर में उनकी अटूट आस्था है और वे पूजा पद्धतियों
और धार्मिक क्रिया कलापों को अन्धविश्वास से अलग आस्था का हिस्सा मानते हैं। उनके
अनुसार आस्था रखना अन्धविश्वास नहीं है।
क्या वास्तव में अन्धविश्वास और आस्था दो भिन्न
चीजें हैं?
अन्धविश्वास का शाब्दिक अर्थ तो बिलकुल स्पष्ट
है। अन्धविश्वास अर्थात अँधा विश्वास यानी बिना देखे, बिना जाने, बिना समझे, बिना
किसी प्रमाण, बिना किसी अनुभव किसी पर विश्वास करना।
और आस्था??
आस्था भी तो यही है बस फर्क इतना है कि आस्थाएं
धर्म पर आधारित हैं जिनके स्रोत धर्मग्रन्थ हैं जिनके ईश्वर रचित होने का दावा
आस्तिकों द्वारा किया जाता है। हालाँकि ईश्वर के होने और न होने के सम्बन्ध में
अभी तक प्रमाण के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता और न ही धार्मिक किताबों के ईश्वरीय
होने का कोई प्रमाण हमारे पास है। यदि ऐसा होता तो ये महज आस्थाएं नहीं बल्कि
स्थापित सत्य कहलाते। हालाँकि सभी आस्थावान अपनी आस्था की सत्यता के सम्बन्ध में
तरह तरह के दावे करते रहते हैं ताकि अपनी आस्था को सत्य साबित किया जा सके। लेकिन
उनकी हर संभव कोशिश के बाद भी आस्था आस्था ही रहती है वो कभी सत्य नहीं हो सकती।
क्योंकि आस्था का अस्तित्व तभी तक है जब तक उसके सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं
मिल जाता। जैसे ही कोई ठोस प्रमाण मिलेगा वह आस्था आस्था न रहकर एक स्थापित सत्य हो
जायेगी। अर्थात आस्था एक प्रमाणहीन विश्वास है जिसकी सत्यता निश्चित नहीं है। वो
सत्य हो भी सकता है और नहीं भी।
एक उदाहरण से समझें –
गैलिलियो की खोज से पूर्व अधिकांश लोगों की
आस्था थी कि धरती ब्रह्माण्ड का केंद्र है। लेकिन जब गैलिलियो ने ये साबित किया कि
धरती मात्र सूर्य की परिक्रमा करने वाला एक ग्रह है तो लोगों की पुरानी आस्था
असत्य हो गयी और जो गैलिलियो ने कहा वह स्थापित सत्य हो गया, क्योंकि गैलिलियो ने
जो कहा था वह प्रमाण के आधार पर कहा था, जबकि आस्थावानों के पास उनकी आस्था के
सम्बन्ध में कोई प्रमाण नहीं था। आज किसी को भी ये आस्था रखने की जरूरत नहीं है कि
धरती सूर्य की परिक्रमा करती है क्योंकि हम जानते हैं ये स्थापित सत्य है।
इसी तरह पुराने समय में जिन लोगों की आस्था थी कि
धरती चपटी है उनकी आस्था धरती के गोल सिद्ध होते ही असत्य हो गयी और आज जब हम कहते
हैं की धरती गोल है तो ये कोई आस्था नहीं बल्कि स्थापित सत्य है। इसी तरह तमाम ऐसी
आस्थायें और मान्यताएं हैं जिनका विज्ञान द्वारा समय समय पर खंडन होता रहा उनकी
जगह स्थापित सत्यों ने ले ली है।
यदि इस नजरिये से देखा जाए तो आस्था और अन्धविश्वास
में कोई फर्क नहीं है। फर्क है तो बस इतना की आस्था की सामजिक स्वीकार्यता धर्म से
जुड़े होने के कारण अन्धविश्वास की तुलना में ज्यादा है। यदि किसी अन्धविश्वास को
धर्म से जोड़कर उसे आस्था का नाम दे दिया जाए तो उसे आसानी से सामाजिक स्वीकार्यता
मिल जाती है। यही कारण है आस्था के नाम पर तमाम अंधविश्वासों को न केवल सामजिक संरक्षण
प्राप्त है बल्कि वो खूब फल-फूल रहे हैं। जो लोग खुद को शिक्षित और तर्कशील बताते
हुए अन्धविश्वासों का विरोध करते हैं और समाज में व्याप्त अन्धविश्वास का दोष
अशिक्षा और लोगों की मूढ़ता को देते हैं उनके दिमाग की बत्ती आस्था के नाम पर गुल
हो जाती है और यही लोग आस्था के नाम पर दुनिया भर के ऊटपटांग काम ख़ुशी ख़ुशी करते
देखे जा सकते हैं। फिर चाहे मूर्ति के सामने बैठ कर घंटी टनटनाना हो, शिवलिंग पर
दूध चढ़ाना या नमाज के नाम पर की जाने वाली उठ्ठक बैठक ये अन्धविश्वास से भला किस
तरह भिन्न हैं? धार्मिक कृत्य अन्धविश्वास ही तो हैं। मंदिर को देखकर सर झुकाना और
बिल्ली के रास्ता काटने पर रुक जाना दोनों में भला क्या फर्क है? दोनों का आधार एक
विश्वास ही तो है कि कोई अद्रश्य शक्ति है जो इस पर प्रतिक्रिया देती है जबकि उसके
अस्तित्व का कोई प्रमाण मौजूद नहीं।
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