Tuesday, 18 September 2018

आत्मा और म्रत्यु

भारतीय समाज में और कुछ अन्य समाजों में भी ऐसी आम मान्यता है कि म्रत्यु उस अवस्था का नाम है जब आत्मा(रूह) शरीर को त्याग देती है। भारतीय समाज में ऐसा मानने की बड़ी वजह भारतीय दर्शन है जिसका कहना है की इस पंचभूत(भौतिक तत्वों) से निर्मित शरीर में एक आत्मा का वास है। जीवित प्राणियों में चेतना का कारण यह अभौतिक आत्मा ही है जो सभी जीवों में जीवनपर्यंत वास करती है। ये आत्मा नित्य और अविनाशी है जो कभी भी नष्ट नहीं होती, ये पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण करती है।

गीता पूरी तरह इसी दर्शन पर ही आधारित है। गीता के अनुसार.....
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥ (१३)
भावार्थ : जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल अवस्था से युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था को निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऎसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। (१३)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ (२२)
भावार्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नये शरीरों को धारण करता है। (२२)
गीता की ही तरह अन्य ग्रंथों में भी जीवात्मा सम्बन्धी दर्शन मौजूद है। ये दर्शन हमारे समाज में इस कदर रच बस गया है कि कुछ एक को छोड़कर लगभग सभी इसको निर्विवाद रूप से सत्य मानते हैं। यहाँ तक की आत्माओं की शांति के लिए विभिन्न प्रकार के पूजा पाठ और कर्मकांड भी हमारे समाज में प्रचलित हैं। लेकिन आज तक आत्मा जैसी किसी चीज के अस्तित्व का एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका है। हालाँकि जब भी आत्मा के अस्तित्व पर सवाल उठाये जाते हैं लोग अक्सर सुनी सुनाई कुछ घटनाओं का जिक्र जरूर करते हैं। जिसमे दो घटनाएँ प्रमुख हैं।
पहली घटना किसी ऐसे प्रयोग से सम्बंधित है जिसमे किसी वैज्ञानिक ने म्रत्यु की ओर अग्रसर एक व्यक्ति को एक शीशे के एयरटाइट चैम्बर में बंद कर दिया और जब उस व्यक्ति की म्रत्यु हुयी तो उसकी आत्मा के निकलने के कारण शीशे में दरार पड़ गयी। लगभग हम सभी ने अपने बड़ों से इस घटना के बारे में जरूर सुना होगा। मैंने भी बहुत से लोगों से इसके बारे में सुना था। लेकिन मेरे बहुत खोजने पर भी इस तरह के किसी प्रयोग के कभी आयोजित होने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका।
दूसरा प्रयोग थोडा मजेदार है और यह वास्तविक भी है। इसको 21 ग्राम एक्सपेरिमेंट के नाम से जाना जाता है। जिसको एक अमरीकी डॉक्टर डंकन मैकडोगल द्वारा सन 1907 में संपन्न किया गया था। जिसको उन्होंने अपनी धारणा ‘जिसका आधार था कि आत्मा में कुछ वजन होना चाहिए’ को टेस्ट करने के लिए संपन्न किया था। जिसमें उन्होंने 6 ऑब्जेक्ट पर प्रयोग किया और पाया कि एक ऑब्जेक्ट का वजन म्रत्यु के बाद 21.3 ग्राम कम हो गया था। हालाँकि डॉ डंकन स्वंय इस प्रयोग के निष्कर्षों को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं थे। उनका कहना था कि इस प्रयोग को बहुत सारे ऑब्जेक्ट पर प्रयोग करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। साथ ही वैज्ञानिक बिरादरी ने भी इस प्रयोग के तरीकों पर सवाल उठाये थे और इसको एक अवैज्ञानिक प्रयोग करार दिया था। लेकिन न केवल मीडिया ने इस प्रयोग को बहुत तूल दिया बल्कि धार्मिक संस्थाओं ने भी इसको हाथों हाथ लिया और इसका खूब प्रचार किया गया कि वैज्ञानिकों ने आत्मा का भार माप लिया है। इस प्रचार का ही परिणाम है कि लोग आज भी इस पर विश्वास करते हैं।
इसके साथ ही कुछ लोग पुनर्जन्म की कुछ घटनाओं को भी आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण की तरह प्रस्तुत करते हैं। हालांकि इस बारे में भी मिथ्या प्रचार बहुत अधिक है। भारत में तर्कशील संगठनों ने जितनी भी पुनर्जन्म की घटना की जाँच की सभी को फर्जी पाया। अभी तक एक भी पुनर्जन्म की घटना की वैज्ञानिक रूप से पुष्टि नहीं की जा सकी है।
मेडिकल साइंस ने शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंगों और अवयवों की कार्यविधि की खोज की है लेकिन आज तक उनको आत्मा जैसी किसी चीज के होने का कोई प्रमाण नहीं मिल सका। विज्ञान के अनुसार म्रत्यु उस अवस्था का नाम है जब एक जीवित प्राणी की वो महत्वपूर्ण जैविक क्रियाएं बंद हो जाती हैं जो की उसे जीवित बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं। एक प्राणी में ऐसा कई कारण से हो सकता है, जैसे बीमारी, बुढ़ापा या फिर किसी बाहरी वस्तु द्वारा किसी महत्वपूर्ण अंग को पहुंचा आघात, जिसके कारण श्वसन अथवा रक्तसंचरण तंत्र किसी तरह बाधित हो जाता है और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलती।
जैसा की आप जानते हैं कि हमारा शरीर खरबों विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बना है। जिसमें हर कोशिका को जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन और महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की जरूरत पड़ती है जिसको शरीर के कुछ अंग मिलकर अंजाम देते हैं। जिसमें ऑक्सीजन सोखने का काम फेफड़ों का है और पोषक तत्वों को सोखने का काम पाचनतंत्र का है, जिसको ह्रदय और लाखों किलोमीटर लम्बी धमनियों और शिराओं से मिलकर बना रक्तसंचरण तंत्र हमारे शरीर की हर कोशिका तक पहुंचाने का कार्य करता है। जिसके आभाव में कुछ समय में ही विभिन्न अंगों की कोशिकाएं काम करना बंद कर सकती हैं। इन अंगों में सबसे महत्वपूर्ण है मस्तिष्क जिसको निरंतर ऑक्सीजन युक्त रक्त की निर्बाध सप्लाई की जरूरत पड़ती है। जिसके किसी भी कारण से बाधित होने पर मात्र 7 सेकिंड के भीतर ही मस्तिष्क की कोशिकाएं नष्ट होनी शुरू हो जाती हैं।
चूँकि मस्तिष्क न केवल हमारी चेतना और बोध का कारण है बल्कि इस शरीर का नियंत्रक भी है इसलिए इसको पहुंची क्षति चेतना को सदा के लिए समाप्त कर देती है जिसको फिर पुनः नहीं पाया जा सकता। वैज्ञानिक भाषा में इसी को ब्रेन डेथ कहते हैं। चूँकि हमारे मस्तिष्क का एक हिस्सा श्वसन तंत्र को भी संचालित करता है इसलिए इसको क्षति पहुँचते है सांस लेने की स्वाभाविक प्रक्रिया रुक जाती है। पर्याप्त ऑक्सीजन न मिलने के कारण कुछ ही सेकिंड में ह्रदय भी काम करना बंद कर देता है, जिसके कारण पूरे शरीर में रक्तसंचरण ठप हो जाता है और शरीर की कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं। हालाँकि आज चिकित्सा विज्ञान में हुयी प्रगति के कारण हमने ऐसे यंत्रों को विकसित कर लिया है जिनकी सहायता से स्वाभाविक रूप सांस लेने में असमर्थ एक व्यक्ति को यंत्रों की सहायता से कृत्रिम सांस दी जा सकती है और मस्तिष्क के काम न करने की स्थिति में भी उस व्यक्ति के ह्रदय को कार्यरत रखा जा सकता है। इन यंत्रों को लाइफ सपोर्ट सिस्टम कहते हैं।
लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर चल रहे किसी व्यक्ति की मस्तिष्कीय गतिविधियों पर चिकित्सकों द्वारा नजर रखी जाती है और उनके पहली जैसी स्थिति में पहुँचने का इन्तजार किया जाता है। लेकिन मस्तिष्कीय गतिविधि शून्य होने पर व्यक्ति को ब्रेन डेड घोषित कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में सपोर्ट सिस्टम के कारण व्यक्ति का ह्रदय तो काम कर रहा होता है लेकिन मस्तिष्क नष्ट होने के कारण अब वह पुनः कभी चेतन अवस्था में नहीं लौट सकता।
इससे यह तो सिद्ध होता है कि जीवों में चेतना का कारण मस्तिष्क ही है कोई आत्मा नहीं। मस्तिष्क के अरबों खरबों न्यूरॉन मिलकर इन्द्रियों द्वारा प्राप्त संकेतों का विश्लेषण करते हैं और उससे प्राप्त अनुभवों को याददाश्त के खजाने में संरक्षित करते जाते हैं। हम हर क्षण अपने आस पास जो अनुभव करते हैं उसके अनुभव हमारे मस्तिष्क पर अंकित होते चले जाते हैं जिससे कदम दर कदम हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता जाता है। हालाँकि जेनेटिक कारणों से भी हर व्यक्ति के पास कुछ जन्मजात योग्यताएं होती हैं वे भी उसके व्यक्तित्व को निर्मित करने में मदद करती हैं।
इसी तरह शरीर के हर अंग की कार्यविधि के बारे में वैज्ञानिकों ने पता लगाया है और उनकी सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर जाकर व्याख्या भी की है, लेकिन किसी भी अंग की कार्यप्रणाली में आत्मा जैसी किसी चीज का कोई रोल सामने नहीं आया। पहले लोगों की मान्यता थी की आत्मा ह्रदय में वास करती है। इसीलिए जब वैज्ञानिक ह्रदय प्रत्यारोपण(Heart Transplant) पर प्रयोग कर रहे थे तो कहा जाता था कि ये असंभव है। ऐसा कभी नहीं किया जा सकता। लेकिन वैज्ञानिकों ने इसको संभव कर दिखाया और आज दुनिया भर में हर वर्ष हजारों ह्रदय सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किये जाते हैं जिसमें से अकेले अमेरिका में ही लगभग 5 हजार ह्रदय हर वर्ष प्रत्यारोपित होते हैं। इसी तरह शरीर के अन्य अंगों को भी सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया जा रहा है। यहाँ तक की वैज्ञानिक अब एक कदम और बढ़कर सर के प्रत्यारोपण(Head Transplant) पर भी विचार कर रहे हैं। जी हाँ आपने सही सुना “सर” “Head”। और यदि सब कुछ ठीक रहा तो हम जल्द ही इस अद्भुत सर्जरी के साक्षी होने वाले हैं।
इटली के एक तंत्रिका विज्ञानी(neuroscientist) डॉ सेर्गियो कैनावेरो ने 2018 में एक मानव सर प्रत्यारोपण को अंजाम देने की घोषणा की है। उनको इसके लिए एक वालंटियर भी मिल गया है जो कि एक चीन में है। उसकी पहचान गुप्त रखी गयी है। इस ऑपरेशन को वे एक अन्य चाइनीज तंत्रिका विज्ञानी के साथ मिलकर चीन में ही अंजाम देंगे। जिसमें उस व्यक्ति के सर को एक ब्रेन डेड डोनर की बॉडी पर प्रत्यारोपित कर दिया जायेगा। डॉ कैनावेरो इस सर्जरी की सफलता को लेकर बहुत आश्वस्त हैं। उनका कहना है कि इस सर्जरी को अंजाम देने के बाद एक माह तक मरीज को चिकित्सीय कोमा की स्थिति में रखा जाएगा। जिसके बाद वह सामान्य रूप से होश में आ जायेगा और शरीर के सभी अंगों को हिला डुला सकेगा। हालांकि नए धड़ पर इच्छानुसार नियंत्रण स्थापित करना अभी संभव नहीं होगा क्योंकि मस्तिष्क को नए धड़ के साथ सामंजस्य बिठाने में समय लगेगा। लेकिन निरंतर अभ्यास के बाद वह एक वर्ष के भीतर ही सामान्य रूप से चल फिर सकेगा।
वैसे इस सर्जरी को सर प्रत्यारोपण के बजाये धड़ प्रत्यारोपण कहना अधिक ठीक रहेगा। क्योंकि वास्तव में हमारी पहचान, याददाश्त और व्यक्तित्व का सम्बन्ध हमारे सर में स्थित मस्तिष्क से है। सर में स्थित मस्तिष्क ही वास्तव में शरीर का नियंत्रणकर्ता और स्वामी है, जिसको पुराने धड़ के स्थान पर एक नया धड़ दिया जा रहा है।
जो लोग इस सर्जरी की सफलता को लेकर सशंकित हैं उनको बता दूँ कि इस तरह की सर्जरी को पूर्व में जानवरों पर अंजाम दिया जा चुका है जिसमें वैज्ञानिकों को काफी हद तक सफलता भी मिली है। 1965 में एक अमरीकी डॉक्टर रोबर्ट जे. वाइट ने प्रयोगों की एक श्रंखला को अंजाम दिया जिसमें उन्होंने एक कुत्ते के सर को एक अन्य कुत्ते के शरीर पर स्थापित कर उसकी मुख्य धमनियों को उसके कुत्ते की धमनियों से जोड़ दिया गया। इन प्रयोगों में स्थापित किये हुए सर को 6 घंटे से लेकर 2 दिन तक जीवित रखने में सफलता मिली। एक अन्य प्रयोग में एक बन्दर के सर को पूरी तरह से एक दुसरे बन्दर के धड़ पर स्थापित किया गया। स्थापित किया हुआ सर पूरी तरह से होशोहवास में था। वह न केवल देख और सुन सकता था बल्कि उसके मोटर फंक्शन भी सही तरह काम कर रहे थे, अर्थात वह चबाने और निगलने में भी सक्षम था। लेकिन चूँकि उसके सर को धड़ के तंत्रिका तंत्र से नहीं जोड़ा गया था इसलिए वह धड़ के अंगों को हिलाने में सक्षम नहीं था। लेकिन अभी हाल में ही हुए कुछ प्रयोगों में चूहों के सर को प्रत्यारोपित धड़ के तंत्रिका तंत्र से जोड़ने में सफलता मिली है। जिसके कारण वे चूहे प्रत्यारोपित धड़ को हिलाने डुलाने में सक्षम थे।
भले ही शुरुआती कुछ प्रयोगों में वैज्ञानिकों को वांछित सफलता न मिले लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है कि आने वाले कुछ वर्षों में इस तरह की सर्जरी को सफलतापूर्वक अंजाम दिया जा सकेगा। ये सर्जरी इस बात को तो बखूबी सिद्ध कर ही देगी कि यदि कोई आत्मा है तो वह कम से कम धड़ में तो नहीं है। अब बचता है सर! तो क्या आत्मा केवल सर में ही वास करती है? या फिर कोई आत्मा-वात्मा नहीं ये मात्र मस्तिष्क से उत्पन्न चेतना ही है?
यदि पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार किया जाए तो इसको समझना इतना भी कठिन नहीं है। जिस चेतना को हम आत्मा समझते हैं वह वास्तव में मस्तिष्क से ही उत्पन्न होंती है। मस्तिष्क से भिन्न उसके अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। चेतना अभौतिक है लेकिन उसका कारण भौतिक मस्तिष्क ही है कोई आत्मा नहीं। बिल्कुल वैसे ही जैसे कंप्यूटर पर रन होने वाले प्रोग्राम का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं होता लेकिन उसके अभौतिक अस्तिव का कारण भौतिक कंप्यूटर ही है। कंप्यूटर से भिन्न उसका कोई अस्तित्व नहीं। बस फर्क इतना है कि कंप्यूटर प्रोग्रामिंग को एक प्रोग्रामर अंजाम देता है, लेकिन यहां इसी कार्य को प्रकृति करती है। हमारा मस्तिष्क भी अरबों वर्ष की प्रोग्रामिंग का ही परिणाम है, जो प्रकृति में प्रथम जीव के साथ प्रारम्भ हुई थी और जो तमाम कालखंडों में उत्तरोत्तर विकसित होते हुए वर्तमान में इस स्वरूप में हमें प्राप्त हुआ है। हमारी जीवन यात्रा के दौरान ये हर रोज नए अनुभवों को सहेजता जाता है। हमारा व्यक्तित्व, हमारे अनुभव, हमारी स्मृतियां और हमारी चेतना सभी मस्तिष्क के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाती हैं, जो बचता है तो बस वह डीएनए का अंश जो हम अपने बच्चों को दे जाते हैं।

2 comments:

  1. बहुत ही ज्यादा अच्छी तरीके से समझाया गया है सर आपके द्वारा। 🙏🙏🙏

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