धार्मिक अंधभक्त नैतिकता से सम्बंधित सवालों द्वारा अक्सर
नास्तिकों को घेरते देखे जा सकते हैं। ये सवाल मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं।
पहले प्रकार के सवाल में वे नैतिकता का स्रोत पूछते हैं और न बता पाने की स्थिति
में धर्म को नैतिकता का स्रोत बताते हुए ठेल देते हैं। कहने का मतलब जो भी नैतिकता
है वो सब धर्म की देन है और धर्म के कारण टिकी हुयी है। बिना धर्म नैतिकता की
व्याख्या संभव ही नहीं है। धर्म गया तो नैतिकता भी चली जायेगी।
दुसरे प्रकार के सवाल वो होते हैं जिनमें नास्तिकों से
नैतिकता में विश्वास रखने की वजह पूछी जाती है। कि यदि वे सब कुछ प्रमाण की
बुनियाद पर ही स्वीकार करते हैं तो आखिर वे नैतिकता को किन प्रमाणों की बुनियाद पर
स्वीकार करते हैं? यानी कोई नैतिक नियम जैसे चोरी करना,
व्याभिचार करना गलत है यह किन प्रमाणों के आधार पर ज्ञात हुआ?
तो आइये आज इसी पर थोड़ी चर्चा करते हैं और इन सवालों के जवाब तलाशने
का प्रयास करते हैं।
जो पहला सवाल है यानी नैतिकता का स्रोत क्या है? इसका एक लाइन में जवाब दिया जाए तो वह होगा, “नैतिकता
का स्रोत है सोशल डिस्कोर्स यानी सामाजिक परिचर्चा। नैतिकता के कोई लिखित नियम
नहीं हैं। ये नियम कालांतर में हमने ही यानी हमारे समाज द्वारा ही निर्मित हुए हैं
हमारी यानी समाज की जरूरतों के अनुसार। मनुष्य चूँकि एक सामाजिक प्राणी है,
और जहाँ भी समाज होगा समूह होगा वहां कुछ नियम कायदे निर्धारित करने
होंगे ताकि समाज एक ईकाई की तरह सुचारू रूप से चल सके और अराजकता न फ़ैल जाए।
ये नियम कायदे सिर्फ मनुष्यों में ही नहीं पाए जाते, अन्य सामाजिक जीवों में भी इन्हें देखा जा सकता है। जैसे जंगली कुत्तों के
समाजों में हर सदस्य का स्थान और उसका काम निर्धारित होता है। मनुष्य के पूर्वजों
का अस्तिव भी इसी कारण से बच सका था क्योंकि उन्होंने समूह की ताकत को पहचाना था।
मानव ने चूँकि विचारों के संप्रेषण के लिए भाषा जैसी एक जटिल प्रणाली विकसित कर ली
थी जिसके कारण हम अन्य जीवों से इतर एक जटिल सामाजिक व्यवस्था बना सके। विचारों के
संप्रेषण के लिए भाषा एक बढ़िया माध्यम सिद्ध हुयी जिसने हमें बड़े समूह बनाने में
मदद की। बड़े समूहों की आवश्यकता के अनुसार सामाजिक नियम भी जटिल और परिष्कृत होते
चले गए। तो अब सवाल उठता है कि आखिर ये नियम बनते कैसे हैं?
हमारे समाज में क्या गलत है और क्या सही, क्या करने योग्य है और क्या नहीं
इस पर हमेशा एक चर्चा चलती रहती है। समाज में अक्सर नैतिक उस व्यवहार को
माना जाता है जिसे अधिकांश समाज सही और करने योग्य के तौर पर स्वीकार कर लेता है।
अब चूँकि ये डिस्कोर्स हमेशा चलता रहता है तो नैतिकता के नियम भी बदलते समय के साथ
बदलते हैं और परिष्कृत होते रहते हैं। समय के साथ बहुत सी चीजें जो कभी नैतिक रूप
से स्वीकार्य थीं वे टैबू बन जाती हैं और जो कभी टैबू थीं वो स्वीकार्य हो जाती
हैं।
गुलामी प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह
एक समय में समाज में नैतिक रूप से स्वीकार्य थे। हमारे तमाम प्राचीन ग्रंथों में न
केवल इनका जिक्र है बल्कि इनसे सम्बंधित नियम कायदे भी मौजूद हैं। लेकिन आज के
सभ्य समाजों में ये सभी एक टैबू हैं। इसी
तरह समलैंगिकता और लिव इन जो लम्बे समय से टैबू रहे हैं को अब धीरे धीरे सभ्य
समाजों में स्वीकार्यता मिल रही है। ये सभी उस सोशल डिस्कोर्स का फल है जिसे आप
लम्बे समय से समाज में चलते देख रहे हैं। ये जो रात दिन इनको लेकर अखबारों,
पत्रिकाओं, टीवी और आपके घर आस पड़ोस में जो
चर्चा चलती है यही सोशल डिस्कोर्स है जिससे किसी चीज के संदर्भ में एक आम राय बनती
है और जो कालांतर में किसी नैतिक नियम में बदल जाती है।
अब चूँकि ये एक एवोलुशनरी प्रोसेस है तो धर्म ग्रन्थ कभी भी
इसका स्रोत नहीं हो सकते। क्योंकि उनके नैतिक नियम तो जड़ हैं जिनमें परिवर्तन की
कोई गुंजाईश नहीं होती। धर्म ग्रंथो में मौजूद नियम उस दौर के हैं जिस समय इनकी
रचना हुयी थी और जाहिर है उनमें से बहुत सारे नियम अब आउटडेटेड हो चुके हैं। अगर
धार्मिक संहिताओं को नैतिकता के स्रोत की तरह स्वीकार करें तो हमें उन तमाम
वर्तमान में बर्बर समझे जाने वाले नियमों को भी स्वीकारना पड़ेगा जिन्हें कोई भी
सभ्य समाज स्वीकारने को राजी नहीं हो सकता। यहाँ तक कि वे लोग जो धर्म को नैतिकता
का स्रोत बताते हैं वे स्वयं भी इनको स्वीकारने में अचकचाते हैं। उन्हें भी जब इन
बर्बर नियमों का हवाला दिया जाता है तो वे या तो कुतर्कों से इनका बचाव करते नजर
आते हैं या इन्हें प्रक्षिप्त बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं।
धर्म प्रदत नैतिकता की पोल धार्मिक लोगों के व्यवहार से खुल
जाती है। सभी प्रमुख धर्मों का इतिहास खून से रंजित है और जिसका ख़ासा कारण भी है।
धार्मिक सिद्धांत चूँकि मानव कल्पना की उपज हैं जिनका कोई भी प्रमाणिक आधार आज तक
सिद्ध नहीं किया जा सका है। यही कारण है कि सभी धर्मों के सिद्धांत एक दूसरे से
टकराते हैं अब चूँकि इनका आधार सत्य नहीं बल्कि कल्पना है तो इनका समाधान किसी भी
प्रकार संभव नहीं है। धर्मों के इन्हीं सैद्धांतिक टकरावों ने इतिहास में भीषण
संघर्षों को जन्म दिया है, और वर्तमान में भी हर दिन सैकड़ों लोग इन
संघर्षों की भेंट चढ़ रहे हैं।
अपने देश का ही अगर उदहारण लें तो विभाजन जैसी त्रासदी का
एकमात्र कारण धार्मिक मतभेद ही था। इसके कारण जो स्थितियां बिगड़ीं वे आज तक
सामान्य नहीं हो सकीं। भारत और पकिस्तान के बीच तीन युद्ध हो चुके हैं, सीमा पर जारी संघर्ष और सीमापार आतंकवाद के कारण लाखों जानें जा चुकी हैं।
धार्मिक भावनाओं के भड़कने के कारण तमाम दंगे हो चुके हैं। धार्मिक मतभेदों के कारण
हर दिन देश के किसी न किसी हिस्से में बदसलूकी और मारपीट की घटनाएँ आम हैं।
धार्मिक लोग अपने ऐतिहासिक महापुरुषों, आइडल्स और सिद्धांतों
की आलोचना के प्रति कितने असहिष्णु हैं ये भी किसी से छिपा हुआ नहीं है, जिसके लिए वो किसी को जान से मार देने तक में गुरेज नहीं करते।
धर्म को नैतिकता का स्रोत बताने वाले ये भी दावा करते हैं
कि धर्म के कारण ही व्यवस्था कायम है यदि लोग धर्म से विमुख हो गए तो अराजकता फ़ैल
जायेगी। लेकिन आंकड़े कुछ और ही बयान करते हैं। आंकड़ों की मानें तो दुनिया के वे
देश जहाँ धार्मिकता का प्रतिशत अधिक है वही देश अपराध, मानवाधिकार हनन, सामाजिक असुरक्षा में शिखर पर हैं।
जबकि वे देश जहाँ धार्मिकता का प्रतिशत कम है वहां का न केवल नागरिक जीवन का स्तर
ऊँचा है बल्कि मानवाधिकार और सामाजिक सुरक्षा भी बेहतर स्थिति में है।
अभी कुछ वर्ष पूर्व नीदरलैंड में अपराधियों की कम संख्या के
कारण जेलों को बंद किये जाने की खबर मिडिया की सुर्ख़ियों में थी। नीदरलैंड की
डेमोग्राफी पर नजर डालें तो पता चलता है कि वहां की आधी से अधिक जनसंख्या उन लोगों
की है जो किसी भी धर्म में आस्था नहीं रखते। इसलिए ये कहना बिल्कुल ही गलत होगा कि
धर्म लोगों को अराजक होने से रोकता है। अगर आप अराजकता की घटनाओं का विश्लेषण करें
तो उसमें धर्म से मोटीवेटेड लोगों की भीड़ ही पायेंगे।
क्या दंगों में दुकानों घरों को आग लगाती, लूटपाट करती, घरों में घुसकर लोगों को मारती
बलात्कार करती भीड़ नास्तिकों की है? जरा एक बार ठन्डे दिमाग
से सोचिये क्या वास्तव में व्यवस्था धर्म की वजह से कायम है? नहीं! व्यवस्था कायम है संविधान और कानून की वजह से। इसमें खामियां हो
सकती हैं लेकिन फिर भी यही है जिसने अराजकता पर लगाम लगाईं हुयी है। यदि एक दिन के
लिए कानून हटा लिया जाए तो परिणाम की कल्पना आप कर सकते हैं।
अब बात करते हैं दूसरे सवाल की, यानी नास्तिक नैतिकता को किन प्रमाणों की बुनियाद पर स्वीकार करते हैं?
जैसा कि अभी हमने ऊपर समझा कि नैतिकता के नियम प्रकृति के
नियमों जैसे नहीं हैं जो कि यूनिवर्सल हैं और जिनको सिद्ध किया जा सकता है ।
नैतिकता के नियम हमारे द्वारा ही निर्मित किये गए हैं समाज की आवश्यकताओं के
अनुसार। और इसीलिए एबसोल्युट मोरेलिटी जैसी कोई चीज नहीं होती। जैसे चोरी करना गलत
है ये नियम हमने अपने समाज की जरूरतों के मुताबिक़ बनाया है। ये कोई सार्वभौम सत्य
नहीं है। अगर ये कोई सार्वभौमिक सत्य होता तो प्रकृति में हर ओर इसका पालन होता
नजर आता। लेकिन प्रकृति में तो हर ओर इसका उल्लंघन ही नजर आता है।
यदि आपने खाद्य श्रंखला के बारे में पढ़ा होगा तो आप जानते
होंगे कि पौधों को छोड़कर बाकी सभी जीव अपनी उर्जा जरूरतों के लिए एक दुसरे पर
निर्भर हैं। इसके लिए वे दुसरे जीवों द्वारा जमा की गई उर्जा का बलपूर्वक अधिग्रहण
करते हैं। जो कि चोरी ही है। पौधे जो स्टार्च जमा करते हैं, या पशु जो चर्बी या मांस जमा करते हैं, या मधुमक्खी
जो शहद बनाती है, गाय जो दूध देती है वो आपके लिए नहीं है।
आप बिना उनकी अनुमति के बलपूर्वक उसे लेते हैं ताकि आप खुद जिन्दा रह सकें। तो
नैतिकता का यह नियम यहाँ काम नहीं करता, क्योंकि यह नियम
हमने अपने समाज की आवश्यकता के अनुसार निर्मित किया है। एक अन्य उदाहरण से समझते
हैं।
यातायात के नियमों से तो आप सभी परिचित होंगे। जैसे सड़क पर
बाएं ओर चलना चाहिए। रेड लाइट पर रुकना चाहिए। स्पीड लिमिट का पालन करना चाहिए
इत्यादि। क्या ये सभी नियम एबसोल्युट हैं? क्या ये कोई सार्वभौमिक सत्य हैं? कतई नहीं। ये सभी नियम हमने ही बनाये हैं ताकि सड़क पर यातायात सुचारू रूप
से चल सके। ठीक इसी तरह नैतिक सामाजिक नियम भी इसीलिए बनाये जाते हैं ताकि समाज
सुचारू रूप से चल सके। और जिस तरह यातायात के नियमों की सत्यता का कोई प्रमाण नहीं
दिया जा सकता उसी तरह नैतिकता के नियमों का भी प्रमाण नहीं दिया जा सकता।
क्या सड़क पर बायीं ओर ही चलना चाहिए इसको किसी तरह सिद्ध
किया जा सकता है? नहीं। हाँ इसके पक्ष में तर्क दिए जा सकते
हैं। कि हमें सड़क पर बायीं ओर इसलिए चलना चाहिए ताकि विपरीत दिशा से आते दो वाहन
टकरा न जाएँ। ठीक इसी तरह चोरी करना गलत है इसे किसी तरह सिद्ध नहीं किया जा सकता,
पर इसके पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं। चोरी करना गलत है क्योंकि
इससे सामाजिक व्यवस्था भंग होती है जिससे समाज में अराजकता और असुरक्षा बढ़ती है।
नास्तिक भी इन्हीं तर्कों के आधार पर नैतिक नियमों को समाज के हित के लिए आवश्यक
मानकर उनका समर्थन और पालन करते हैं।
क्या आपको नहीं लगता नैतिकता का पालन और समर्थन दैवीय दंड
की अपेक्षा तर्कों से करना बेहतर है? आइंस्टीन का यह कथन यहाँ बेहद प्रासंगिक है, “अगर
दंड का भय ही आपको अच्छे काम के लिए प्रेरित करता है तो माफ़ कीजियेगा आप एक बुरे
इंसान हैं।