आजकल धार्मिक लोगों में एक नया ट्रेंड चला है खुद को आध्यात्मिक कहने का। वे स्वयं को धार्मिक के स्थान पर आध्यात्मिक कहलाना पसंद करते हैं। धार्मिक कहलाना थोडा लो क्लास सा फील देता है जबकि आध्यात्मिक के साथ हाई क्लास और बुद्धिजीवी वाला फील आता है। सामान्यतः एक आम धार्मिक व्यक्ति अपनी परम्पराओं और मान्यताओं के बारे में कोई तर्क नहीं दे पाता। देता भी है तो वे बड़े बचकाने और खोखले तर्क होते हैं जो जरा से तर्क वितर्क से ढह जाते हैं। जबकि खुद को आध्यात्मिक कहने वाले व्यक्तियों के पास अपनी मान्यताओं के पक्ष में बड़े भारी-भरकम और जटिल तर्क होते हैं जिसे उसने बड़े जतन से कुछ आध्यात्मिक गुरुओं से प्रवचनों को पढ़कर अथवा सुनकर, अपने धर्म/मत के पक्ष में लिखित तर्कशास्त्रों को पढ़कर या फिर वर्तमान में अत्यधिक प्रचलित प्रोपेगैंडा साहित्य को पढ़कर जमा किया होता है। आध्यात्मिक लोग धार्मिक लोगों को मान्यतावादी कहते हैं और स्वयं को मान्यताओं से मुक्त एक स्वतंत्र खोजी की तरह प्रस्तुत करते हैं।
हमारा उद्देश्य समाज में व्याप्त अन्धास्थाओं, अंधविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, अवैज्ञानिकता और धार्मिक संगठनों द्वारा फैलाई जा रही भ्रांतियों को दूर कर एक तर्कशील व वैज्ञानिक चेतना युक्त समाज की स्थापना करना है। If you have query like manav ki utpatti, does god exist, science and religion, atheism, evolution, theory of evolution, reality of religion, rational, critical thinking etc. you are at right place.
Monday, 28 September 2020
अध्यात्म : धर्म के भ्रमजाल का आखिरी हथकंडा
ऐसा माना जाता है कि धार्मिक व्यक्ति यानी वह जिसने धर्मगत आस्थाओं और परम्पराओं को बिना विचारे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है। जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति उन्हें बिना जाने समझे नहीं स्वीकारता, परन्तु नकारता भी नहीं। बल्कि वह कुछ ऐसा कहता है कि वह इन आस्थाओं की सत्यता को खोजने का प्रयत्न कर रहा है। जब तक वह इनकी सत्यता अथवा असत्यता को स्वयं अनुभव नहीं कर लेता इनको स्वीकारा अथवा नकारा नहीं जा सकता। बात सुनने में काफी तार्किक प्रतीत होती है। परन्तु मेरा ऐसा अनुभव है कि ऐसा कहने वाले लगभग सभी तथाकथित अध्यात्मिक व्यक्ति अपने जीवन में वही सब धार्मिक क्रियाकलाप करते पाए जाते हैं जो कोई धार्मिक व्यक्ति करता है। इसके पीछे भी तर्क वही कि जब तक सत्य का पता न चले तो इनको नकारा भी नहीं जा सकता, अतः इनको करते रहने में कोई विशेष हानि नहीं।
यदि आप धर्मग्रंथों में लिखी अतार्किक और विरोधाभासी बातों पर चर्चा छेड़ें तो वे कहते हैं कि ये ग्रन्थ इनके रचयिता ने अनुभव के किसी विशिष्ट स्तर पर जाकर लिखे हैं, इनकी सत्यता को आंकने के लिए हमें उसी स्तर पर पहुंचना होगा। अनुभव के उस स्तर पर पहुंचे बिना इनके बारे में कुछ भी कहना व्यर्थ है। कुछ लोग एक कदम बढ़कर ऐसा भी कहते पाए जाते हैं कि अनुभव के उस स्तर पर आपको इनमें किसी तरह की अतार्किकता अथवा विरोधाभास नहीं मिलेगा।
ईश्वर के अस्तित्व के सन्दर्भ में भी वे कुछ ऐसा ही तर्क देते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर में आस्था रखने वाले और ईश्वर में अनास्था रखने वाले दोनों ही गलत हैं। अर्थात आस्तिक और नास्तिक दोनों ही वास्तव में मान्यतावादी हैं। आस्तिक ने मान लिया है कि ईश्वर है और नास्तिक ने मान लिया है कि ईश्वर नहीं है। दोनों ही चूँकि बिना खोजे ही निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं अतः दोनों ही कभी सत्य को नहीं जान सकेंगे।
मुझे नहीं पता इस तर्क का मूल प्रतिपादनकर्ता कौन है लेकिन मैंने इसे सर्वप्रथम ओशो के प्रवचनों में सुना था। आज भी ओशो के चेले जगह जगह इसी तर्क को दोहराते देखे जा सकते हैं। अपनी पोस्टों पर अक्सर ही मेरा सामना ऐसे लोगों से होता रहता है। यह तर्क सुनने में बड़ा तार्किक प्रतीत होता है। धर्म से तलाक की अर्जी देने जा रहे व्यक्ति को भी घरवापसी के लिए सोचने पर विवश कर देने की क्षमता रखता है। परन्तु वास्तव में आध्यात्मिकों के सभी तर्क भले ही प्रथमद्रष्टया कितने ही तार्किक प्रतीत हों लेकिन सभी सिरे से आधारहीन हैं। आइये देखें कैसे?
सर्वप्रथम ईश्वर के अस्तित्व के संदर्भ में दिए जाने वाले तर्क को ही ले लेते हैं। इस तर्क में आस्तिक और नास्तिक दोनों को ही मान्यतावादी कहकर एक ही पड़ले में तोलने का प्रयास किया जा रहा है। यह तर्क नास्तिक, अनीश्वरवादी दर्शन पर आधारित धर्म के अनुयायियों के लिए तो उचित जान पड़ता है लेकिन वे लोग जो ईश्वर की अवधारणा की प्रमाणहीनता को समझकर नास्तिक हुए हैं उन पर यह तर्क सही नहीं बैठता। क्योंकि उनके द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का कोई आस्थागत कारण नहीं है बल्कि ईश्वर की अवधारणा के पक्ष में प्रमाणों का नितांत आभाव है। भला प्रमाणों के आभाव में किसी अवधारणा को कैसे स्वीकारा जा सकता है? लेकिन अब यहाँ कुछ लोग एक नया तुर्रा देते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण दिए नहीं जा सकते, प्रमाण आपको स्वयं खोजने होंगे। आंय???? क्या कहा जरा दोबारा कहिये?
यह तर्क कितना मूर्खतापूर्ण है जरा देखिये तो। दावा आप कर रहे हैं और प्रमाण खोजने को हमें कह रहे हैं। क्या ऐसा ही तर्क सभी अस्तित्वहीन काल्पनिक कथाओं के चरित्रों के बारे में नहीं दिया जा सकता? उदहारण के तौर पर यदि मैं कहूँ कि परियों के अस्तित्व को स्वीकारने वाले और नकारने वाले दोनों ही गलत हैं क्योंकि दोनों ही बिना खोजे निष्कर्ष पर पहुँच गए हैं। परियों के अस्तित्व का प्रमाण दिया नहीं जा सकता, यह आपको स्वयं ही खोजना होगा। यही तर्क उड़ने वाले घोड़ों, फरिश्तों और हर उस चीज के सन्दर्भ में दिया जा सकता है जिसका अस्तित्व सिर्फ मनुष्य की कल्पनाओं में है।
यदि कोई किसी ऐसी चीज की खोज में लग जाए जिसका कि वास्तविकता में कोई अस्तित्व ही न हो तो क्या उसकी खोज कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकती है? ऐसी खोज के किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए ब्रह्माण्ड की आयु भी कम पड़ जायेगी, क्योंकि जिसका कोई अस्तित्व ही न हो उसके होने न होने के बारे में आपको कभी कोई सुराग नहीं मिलेगा, भले ही आप उसकी खोज में अपना जीवन ही क्यों न न्योछावर कर दें। अध्यात्म जिसे एक स्वतंत्र खोज पद्धति की तरह प्रस्तुत किया जाता है कुछ ऐसी ही खोज है। लेकिन आध्यात्मिक व्यक्ति इसे चुनौती की तरह लेते हैं। यद्धपि यह अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। वे कहते हैं कि यह खोज उन्हीं के लिए है जो जिन्दगी की बाजी लगाने को तैयार हैं। इस तरह वे अपने को एक जांबाज की तरह प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं जिसने ईश्वर की खोज में जीवन की बाजी लगा दी है।
वास्तव में देखा जाए तो ईश्वर का अस्तित्व है अथवा नहीं यह प्रश्न ही गलत है। सही प्रश्न है “ब्रह्माण्ड कैसे अस्तिव में आया?” ईश्वर तो इस सवाल का जवाब पाने की चेष्टा में गढ़ी गई एक अवधारणा है जो मात्र मानवीय कल्पनाओं की उपज है। अब यदि कोई किसी कल्पना को खोज का विषय बनाएगा तो भला वह क्या कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकता है?
अब ठीक इसी तरह आप धर्मग्रंथों के बारे में दिए गए तर्कों को भी ले सकते हैं। वहां भी आपको धर्मग्रंथों के बारे में कोई फैसला सुनाने से रोकने की कोशिश की जा रही है। तर्क दिया जा रहा है कि अनुभव की किसी विशिष्ट अवस्था पर पहुंचकर ही इनकी सही व्याख्या की जा सकती है। यानी यहाँ भी आपसे उम्मीद की जा रही है कि आप अनुभव की उस अवस्था जिसके होने का भी कोई प्रमाण नहीं है के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दें तभी आपको इनका सार पल्ले पड़ेगा। जब तक आपको इनमें जरा सी भी अतार्किकता दिख रही है तो इसका मतलब आप अभी अनुभव के उस स्तर पर नहीं पहुंचे। मतलब धर्मग्रन्थ गलत नहीं हैं आप ही गलत हैं जो उन्हें समझ नहीं पा रहे। धर्मग्रंथों को सही ढंग से समझने के लिए उस तथाकथित अनुभव के घटित होने का इन्तजार करने के अतरिक्त आपके पास कोई चारा नहीं है। जाहिर है यहाँ भी ईश्वर की खोज की तरह ही एक काल्पनिक अवस्था जिसके होने का कोई भी प्रमाण नहीं है को खोज का विषय बनाया गया है और कहना गलत नहीं होगा कि यह खोज भी कभी किसी निष्कर्ष पर पहुँचने वाली नहीं है।
अब जरा एक मिनट के लिए उन लोगों की मानसिक स्थिति के बारे में विचार कीजिये जो ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों पर विश्वास करके बैठे हैं और अध्यात्म को विज्ञान के ही समकक्ष एक तर्कपूर्ण खोज पद्धति समझकर स्वयं के एक स्वतंत्र खोजी होने का भ्रम पालकर बैठे हैं। क्या आपको वास्तव में लगता है कि ऐसे लोग स्वतंत्र खोजी हैं? जो धार्मिक मान्यताओं से निरपेक्ष होकर खोज कर रहे हैं?
यदि आप सूक्ष्मता से निरिक्षण करेंगे तो पायेंगे कि ये सभी वास्तव में धर्मभीरु लोग हैं। क्योंकि ऐसी खुली चालबाजी को वही नजरअंदाज कर सकता है जिसकी अपने धर्म में गहरी आस्था हो। आस्था आपको मूर्खतापूर्ण तर्कों पर भी विश्वास करने पर राजी कर सकती है बशर्ते वे आपकी धार्मिक मान्यताओं की किसी प्रकार रक्षा करते हों।
यही नहीं ऐसे लोग तमाम पूर्वाग्रह अपने साथ लिए चलते हैं। जैसे कोई ब्रह्म है जिसका हमें साक्षात्कार करना है। ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है। सत्य पर माया का पर्दा है। ब्रह्म के साक्षात्कार से यह पर्दा हट जाता है और व्यक्ति को अपने वास्तविक स्वरुप का बोध होता है इत्यादि इत्यादि। कोई भी स्वतंत्र खोज इतने पूर्वाग्रहों को साथ लेकर होती है क्या? इतने पूर्वाग्रहों को लेकर यदि कोई लम्बे समय तक ध्यान करता है तो बहुत सम्भावना है कि एक समय उसका मस्तिष्क इन सभी को साकार कर दे। गहरा ध्यान हमको ट्रांस की अवस्था में ले जाता है। ये सम्मोहन की अवस्था जैसी ही होती है। इस अवस्था में मस्तिष्क की किसी भी विचार को आसानी से स्वीकार लेता है। इस अवस्था में स्वीकारे गए विचार आगे चलकर मतिभ्रम(hallucination) को जन्म देते हैं। जिन्हें साधक द्वारा अध्यात्मिक अनुभव समझ लिया जाता है।
अध्यात्म असल में धर्म के ही एक रीसायकल मेकेनिज्म जैसा ही है। जो लोग थोड़ा अध्ययनशील होते हैं परिपक्क्वता के स्तर पर आकर धर्म के दावों की प्रमाणहीनता का बोध उनकी आस्था को झकझोरने लगता है। तभी अध्यात्म का जाल उन्हें घेर लेता है। कुछ वैसे ही जैसे अपना मोबाइल नंबर पोर्ट करवाने पर सर्विस प्रोवाइडर कम्पनी के मार्केटिंग डिपार्टमेंट से ऑफर आने लगते हैं। अरे कहाँ जाने की सोच रहे हो? किस पर संदेह कर रहे हो? अपने पैत्रक धर्म पर? वही धर्म जिसके साथ इतने वर्ष गुजारे। इतने निष्ठुर न बनो। अपने पैत्रक धर्म को तुमने इतना कमजोर समझा है? प्रमाण की बात है न? हाँ तो मिल जाएगा प्रमाण। कौन बड़ी बात है? तुमने अभी खोजा ही कहाँ जो मिल जाए? खोजो तो सही। खोजने पर भी न मिले तब बात करना। तुम तो बिना खोजे ही चलने का मूड बना लिए। आओ खोजें। अब अंधे को क्या चाहिए दो ऑंखें। धार्मिक लोग वैसे भी अपनी आस्थाओं को डूबने से बचाने के लिए तिनके के सहारे खोजते रहते हैं। कोई भी व्यक्ति जिसकी अपने धर्म में गहरी आस्था हो को यह बात एकदम जंच जाती है। और इस तरह संदेह के शूल का चतुराईपूर्वक शमन करके व्यक्ति को पुनः उसी मुर्खता में धकेल दिया जाता है।
जितने भी तथाकथित अध्यात्मिक गुरु हैं उनके आस-पास आपको ज्यादातर पढ़े लिखे लोग ही मिलेंगे, कम पढ़े लिखे लोग ज्यादातर आपको कथावाचकों के पंडालों में ताली पीटते नजर आयेंगे। वर्तमान में सद्गुरु जग्गी वासुदेव इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। ये सभी वही लोग हैं जो अपनी डांवाडोल धार्मिक आस्थाओं को एक मजबूत आधार प्रदान करने के प्रयास में लुभावने तर्कों के जाल में फंसकर ऐसे गुरुओं तक पहुँचते हैं।
देखा जाये तो आध्यात्मिकता कुछ और नहीं बस थोड़े से बेहतर कुतर्कों से सुसज्जित धार्मिकता ही है। आध्यात्मिक लोग भले ही स्वयं को स्वतंत्र खोजी मानें लेकिन वास्तव में वे स्वयं को धोखा देने में आम धार्मिक लोगों से थोड़ा ज्यादा कुशल मात्र हो गए हैं।
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